श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ३९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
उनतालीसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अक्रूरजी का भली-भाँति सम्मान किया । वे आराम से पलंग पर बैठ गये । उन्होंने मार्ग में जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ॥ १ ॥ परीक्षित् ! लक्ष्मी के आश्रयस्थान भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ? फिर भी भगवान् के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तु की कामना नहीं करते ॥ २ ॥ देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने सायङ्काल का भोजन करने के बाद अक्रूरजी के पास जाकर अपने स्वजन–सम्बन्धियों के साथ कंस के व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रम के सम्बन्ध में पूछा ॥ ३ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — ‘चाचाजी ! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है । आपको यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ ? स्वागत है । मैं आपकी मङ्गल-कामना करता हूँ । मथुरा के हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? ॥ ४ ॥ हमारा नाममात्र का मामा कंस तो हमारे कुल के लिये एक भयङ्कर व्याधि है । जब तक उसकी बढ़ती हो रही है, तब तक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चों का कुशल-मङ्गल क्या पूछे ॥ ५ ॥ चाचाजी ! हमारे लिये यह बड़े खेद की बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिता को अनेकों प्रकार की यातनाएँ झेलनी पड़ीं — तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े । और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ी से जकड़कर जेल में डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ॥ ६ ॥ मैं बहुत दिनों से चाहता था कि आप लोगों में से किसी-न-किसी का दर्शन हो । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयीं, सौम्य-स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्त से हुआ ? ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब उन्होंने बतलाया कि ‘कंस ने तो सभी यदुवंशियों से घोर वैर ठान रखा है । वह वसुदेवजी को मार डालने का भी उद्यम कर चुका है’ ॥ ८ ॥ अकूरजी ने कंस का सन्देश और जिस उद्देश्य से उसने स्वयं अक्रूरजी को दूत बनाकर भेजा था और नारदजी ने जिस प्रकार वसुदेवजी के घर श्रीकृष्ण के जन्म लेने का वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया ॥ ९ ॥ अक्रूरजी की यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओं का दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजी को कंस की आज्ञा सुना दी ॥ १० ॥ तब नन्दबाबा ने सब गोपों को आज्ञा दी कि ‘सारा गोरस एकत्र करो । भेंट की सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ों ॥ ११ ॥ कल प्रातःकाल ही हम सब मथुरा की यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंस को गोरस देंगे । वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है । उसे देखने के लिये देश की सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है । हमलोग भी उसे देखेंगे ।’ नन्दबाबा ने गाँव के कोतवाल के द्वारा यह घोषणा सारे व्रज में करवा दी ॥ १२ ॥

परीक्षित् ! जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिये अक्रूरजी व्रज में आये हैं, तब उनके हृदय में बड़ी व्यथा हुई । वे व्याकुल हो गयीं ॥ १३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के मथुरा जाने की बात सुनते ही बहुतों के हृदय में ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया । और बहुतों की ऐसी दशा हुई — वे इस प्रकार अचेत हो गयी कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूडों तक का पता न रहा ॥ १४ ॥ भगवान् के स्वरूप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों की चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयी, मानो वे समाधिस्थ-आत्मा में स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसार का कुछ ध्यान ही न रहा ॥ १५ ॥ बहुत-सी गोपियों के सामने भगवान् श्रीकृष्ण का प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुसकान और हृदय को स्पर्श करनेवाली विचित्र पदों से युक्त मधुर वाणी नाचने लगी । वे उसमें तल्लीन हो गयी । मोहित हो गयीं ॥ १६ ॥ गोपियाँ मन-ही-मन भगवान् की लटकीली चाल, भाव-भङ्गी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोक को मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारताभरी लीलाओं का चिन्तन करने लगीं और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं । उनका हृदय, उनका जीवन — सब कुछ भगवान् के प्रति समर्पित था । उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे । वे झुंड-की-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ॥ १७-१८ ॥

गोपियों ने कहा — धन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परंतु तुम्हारे हृदय में दया का लेश भी नहीं है । पहले तो तुम सौहार्द और प्रेम से जगत् के प्राणियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपस में एक कर देते हो; मिला देते हो परंतु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो ! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चों के खेल की तरह व्यर्थ ही है ॥ १९ ॥ यह कितने दुःख की बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करनेवाले श्यामसुन्दर का मुखकमल दिखलाया । कितना सुन्दर है वह ! काले-काले घुँघराले बाल कपोलों पर झलक रहे हैं । मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोते की चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरों पर मन्द-मन्द मुसकान की सुन्दर रेखा, जो सारे शोक को तत्क्षण भगा देती है । विधाता ! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रहे हो ! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ॥ २० ॥ हम जानती हैं, इसमें अक्रूर का दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता हैं । वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्ख की भाँति छीन रहे हो । इनके द्वारा हम श्यामसुन्दर के एक-एक अङ्ग में तुम्हारी सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं । विधाता ! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ॥ २१ ॥

अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर को भी नये-नये लोगों से नेह लगाने की चाट पड़ गयी है । देखो तो सही — इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया ? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदि को छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हीं के लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परंतु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखते तक नहीं ॥ २२ ॥ आज की रात का प्रातःकाल मथुरा की स्त्रियों के लिये निश्चय ही बड़ा मङ्गलमय होगा । आज उनकी बहुत दिनों की अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायेंगी । जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकान से युक्त मुखारविन्द का मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरी में प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी ॥ २३ ॥ यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होने के साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनों की आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा की युवतियाँ अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलभ मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीं रम जायेंगे । फिर हम गँवार ग्वालिनों के पास ये लौटकर क्यों आने लगे ॥ २४ ॥ धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दर का दर्शन करके मथुरा के दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के नेत्र अवश्य ही परमानन्द का साक्षात्कार करेंगे । आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा । साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायेंगे ॥ २५ ॥

देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है । इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता । सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था ॥ २६ ॥ सखी ! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं । देखो-देखो, वे भी रथ पर बैठ गये और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं । सचमुच ये मूर्ख हैं । और हमारे बड़े-बूढ़े ! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मन में आवे, करो ।’ अब हम क्या करें ? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है ॥ २७ ॥ चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दर को रोकेंगी; कुल के बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे ? अरीं सखी ! हम आधे क्षण के लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दन का सङ्ग छोड़ने में असमर्थ थीं । आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ॥ २८ ॥ सखियो ! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्य की मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिङ्गन से हमने रासलीला की वे रात्रियाँ — जो बहुत विशाल थीं — एक क्षण के समान बिता दी थीं । अब भला, उनके बिना हम उन्हीं की दी हुई अपार विरह-व्यथा का पार कैसे पायेंगी ॥ २९ ॥ एक दिन की नहीं, प्रतिदिन की बात है, सायङ्काल में प्रतिदिन ये ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ वन से गौएँ चराकर लौटते हैं । उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गले के पुष्पहार गौओं के खुर की रज से ढके रहते हैं । वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे हृदय को बेध डालते हैं । उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! गोपियाँ वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण को स्पर्श, उनको आलिङ्गन कर रहा था । वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयी और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ — इस प्रकार ऊँची आवाज से पुकार-पुकारकर सुललित स्वर से रोने लगीं ॥ ३१ ॥ गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं ! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ । अकूरजी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर रथ पर सवार हुए और उसे हाँक ले चले ॥ ३२ ॥ नन्दबाबा आदि गोपों ने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदि से भरे मटके और भेंट की बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ों पर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले ॥ ३३ ॥ इसी समय अनुराग के रँग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुई । अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से कुछ सन्देश पाने की आकाङ्क्षा से वहीं खड़ी हो गयीं ॥ ३४ ॥ यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के हदय में बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया ॥ ३५ ॥ गोपियों को जब तक रथ की ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही, तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे । परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था ॥ ३६ ॥ अभी उनके मन में आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें ! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं । परीक्षित् ! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दर की लीलाओं का गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोक-सन्ताप को हल्का करतीं ॥ ३७ ॥

परीक्षित् ! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेगवाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजी के किनारे जा पहुँचे ॥ ३८ ॥ वहाँ उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजी का मरकतमणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया । इसके बाद बलरामजी के साथ भगवान् वृक्षों के झुरमुट में खड़े रथ पर सवार हो गये ॥ ३९ ॥ अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड (अनन्त-तीर्थ या ब्रह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ॥ ४० ॥ उस कुण्ड में स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे । उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं ॥ ४१ ॥ अब उनके मन में यह शङ्का हुई कि ‘वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जल में कैसे आ गये ? जब यहाँ हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे । ऐसे सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ॥ ४२ ॥ वे उस रथ पर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे । उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ॥ ४३ ॥ परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ ४४ ॥ शेषजी के हजार सिर है और प्रत्येक फण पर मुकुट सुशोभित हैं । कमलनाल के समान उज्ज्वल शरीर पर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरों से युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो ॥ ४५ ॥ अक्रूरजी ने देखा कि शेषजी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं । वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं । बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमल के रक्तदल के समान रतनारे नेत्र हैं ॥ ४६ ॥

उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन हैं । उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्त को चुराये लेती हैं । भौहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है । सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरों की छटा निराली ही हैं ॥ ४७ ॥ बाँहें घुटनों तक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं । कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल लक्ष्मीजी का आश्रयस्थान है । शङ्ख के समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपल के पत्ते के समान शोभायमान हैं ॥ ४८ ॥ स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथी की सूँड के समान जाँघ, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं । एड़ी के ऊपरी गाँठे उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखों से दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रहीं हैं । चरणकमल की अंगुलियाँ और अँगूठे नयी और कोमल पँखुड़ियों के समान सुशोभित हैं ॥ ४९-५० ॥ अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलों से तथा यज्ञोपवीत से वह दिव्य मूर्ति अलङ्कृत हो रही है । एक हाथ में पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथों में शङ्ख चक्र, और गदा, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, गले में कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ॥ ५१-५२ ॥ नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान् के परम् प्रेमी भक्त तथा आठौं वसु अपने परम प्रियतम भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावों के अनुसार निर्दोष वेदवाणी से भगवान् की स्तुति कर रहे हैं ॥ ५३-५४ ॥ साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य — ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवों के मोक्ष और बन्धन में कारणरूपा बहिरङ्ग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरङ्गा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ॥ ५५ ॥

भगवान् की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया । उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी । सारा शरीर हर्षावेश से पुलकित हो गया । प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आँसू से भर गये ॥ ५६ ॥ अब अक्रूरजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद स्वर से भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ५७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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