श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ४०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चालीसवाँ अध्याय
अक्रूरजी के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति

अक्रूरजी बोले — प्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं । आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सृष्टि की है । मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहङ्कार, महत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृदेवता — यही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहार के कारण और ये सब-के-सब आपके ही अङ्गस्वरूप हैं ॥ २ ॥ प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ ‘इदंवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं । अनात्मा होने के कारण जड़ हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते । क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा हीं ठहरे । ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं । परन्तु वे प्रकृति के गुण रजस् से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते ॥ ३ ॥ साधु योगी स्वयं अपने अन्तःकरण में स्थित अन्तर्यामी’ के रूप में, समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त ‘परमात्मा के’ रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डल में स्थित ‘इष्टदेवता’ के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वर के रूप में साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ४ ॥

बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्म-मार्ग का उपदेश करनेवाली त्रयी-विद्या के द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देव-वाचक नाम तथा वज्र-हस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती हैं, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ५ ॥ बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त क्रम का संन्यास कर देते हैं और शान्त-भाव में स्थित हो जाते हैं । वे इस प्रकार ज्ञान-यज्ञ के द्वारा ज्ञान-स्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥ और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्ध-चित्त वैष्णव-जन आपकी बतलायी हुई पाञ्च-रात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायण-रूप एक स्वरूप की पूजा करते हैं ॥ ७ ॥ भगवन् ! दूसरे लोग शिवजी के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से, जिसके आचार्य-भेद से अनेक अवान्तर-भेद भी हैं, शिव-स्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जो लोग दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तव में आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षा जल भरकर घूमती-घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती है, वैसे ही सभी प्रकार के उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ॥ १० ॥

प्रभो ! आपकी प्रकृति के तीन गुण हैं — सत्त्व, रज और तम् । ब्रह्मा से लेकर स्थावर-पर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रों से ओत-प्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृति के उन गुणों से ही ओतप्रोत हैं ॥ ११ ॥ परन्तु आप सर्व-स्वरूप होने पर भी उनके साथ लिप्त नहीं है । आपकी दृष्टि निर्लिप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियों के साक्षी हैं । यह गुणों के प्रवाह से होनेवाली सृष्टि अज्ञान-मूलक हैं और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियों में व्याप्त है; परन्तु आप उससे सर्वथा अलग हैं । इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ अग्नि आपका मुख है । पृथ्वी चरण है । सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं । आकाश नाभि हैं । दिशाएँ कान हैं । स्वर्ग सिर है । देवेन्द्र-गण भुजाएँ हैं । समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्ति के रूप में उपासना के लिये कल्पित हुई है ॥ १३ ॥ वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं । मेघ सिर के केश हैं । पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं । दिन और रात पलकों का खोलना और मींचना है । प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य हैं ॥ १४ ॥

अविनाशी भगवन् ! जैसे जल में बहुत-से जलचर जीव और गूलर के फलों में नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासना के लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूप में अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप क्रीडा करने के लिये पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह को धो-बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनन्द से आपके निर्मल यश का गान करते हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपने वेदों, ऋषियों, ओषधियों और सत्यव्रत आदि की रक्षा-दीक्षा के लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलय के समुद्र में स्वच्छन्द विहार किया था । आपके मत्स्यरूप को मैं नमस्कार करता हूँ । आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों का संहार करने के लिये हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था । मैं आपके उस रूप को भी नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ आपने ही वह विशाल कच्छ्परूप ग्रहण करके मन्दराचल को धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ । आपने ही पृथ्वी के उद्धार की लीला करने के लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरा बार-बार नमस्कार ॥ १८ ॥

प्रह्लाद-जैसे साधुजनों का भय मिटानेवाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंह-रूप को मैं नमस्कार करता हूँ । आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ धर्म का उल्लङ्घन करनेवाले घमंडी क्षत्रियों के वन का छेदन कर देने के लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था । मैं आपके उस रूप को नमस्कार करता हूँ । रावण का नाश करने के लिये आपने रघुवंश में भगवान् राम के रूप से अवतार ग्रहण किया था । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ वैष्णवजनों तथा यदुवंशियों का पालन-पोषण करने के लिये आपने ही अपने को वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध — इस चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट किया है । में आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिये आप शुद्ध अहिंसामार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का रूप ग्रहण करेंगे । मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायेंगे, तब उनका नाश करने के लिये आप ही कल्कि के रूप में अवतीर्ण होंगे । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥

भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोहित हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ — इस झूठे दुराग्रह में फँसकर कर्म के मार्गों में भटक रहे हैं ॥ २३ ॥ मेरे स्वामी ! इसी प्रकार में भी स्वप्न में दीखनेवाले पदार्थों के समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदि को सत्य समझकर उन्हीं के मोह में फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ॥ २४ ॥ मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओं को नित्य, अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ लिया । भला, इस उलटी बुद्धि की भी कोई सीमा है ! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्व में ही रम गया और यह बात बिल्कुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ॥ २५ ॥ जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के लिये तालाब पर जाय और उसे उससे पैदा हुए सिवार आदि घासों से ढका देखकर ऐसा समझे ले कि यहाँ जल नहीं हैं, तथा सूर्य की किरणों में झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ ॥ २६ ॥

मैं अविनाशी अक्षर वस्तु के ज्ञान से रहित हूँ । इसी से मेरे मन में अनेक वस्तुओं की कामना और उनके लिये कर्म करने के सङ्कल्प उठते ही रहते हैं । इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मन को मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं । इसीलिये इस मन को मैं रोक नहीं पाता ॥ २७ ॥ इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छत्र-छाया में आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टों के लिये दुर्लभ हैं । मेरे स्वामी ! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ । क्योंकि पद्मनाभ ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आपमें लगती है ॥ २८ ॥ प्रभो ! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं । जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं । जीव के रूप में एवं जीवों के सुख-दुःख आदि के निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं । आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं । आप स्वयं ब्रह्म हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ प्रभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवों के आश्रय (सङ्कर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मन के अधिष्ठातृदेवता हृषीकेश (प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) हैं । मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । प्रभो ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये ॥ ३० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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