श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ४४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौवालीसवाँ अध्याय
चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने चाणूर आदि के वध का निश्चित संकल्प कर लिया । जोड़ बद दिये जाने पर श्रीकृष्ण चाणूर से और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े ॥ १ ॥ वे लोग एक-दूसरे को जीत लेने की इच्छा से हाथ से हाथ बाँधकर और पैरों में पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ॥ २ ॥ वे पंजों से पंजे, घुटनों से घुटने, माथे से माथा और छाती से छाती भिड़ाकर एक-दूसरे पर चोट करने लगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदार को पकड़कर इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोर से जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट जाते थे । इस प्रकार एक-दूसरे को रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदार को पछाड़ देने की चेष्टा करते । कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरों में दबाकर उठा लेता । हाथों से पकड़कर ऊपर ले जाता । गले में लिपट जाने पर ढकेल देता और आवश्यकता होने पर हाथ-पाँव इकट्ठे करके गाँठ बाँध देता ॥ ४-५ ॥

परीक्षित् ! इस दंगल को देखने के लिये नगर की बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं । उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानों के साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपस में बातचीत करने लगीं — ॥ ६ ॥ ‘यहाँ राजा कंस के सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं । कितने खेद की बात है कि राजा के सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकों के युद्ध का अनुमोदन करते हैं ॥ ७ ॥ बहिन ! देखो, इन पहलवानों का एक-एक अङ्ग वज्र के समान कठोर है । ये देखने में बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं । परन्तु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं । इनकी किशोरावस्था है । इनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुकुमार है । कहाँ ये और कहाँ वे ? ॥ ८ ॥ जितने लोग यहाँ इकड़े हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लङ्घन का पाप लगेगा । सखी ! अब हमें भी यहाँ से चल देना चाहिये । जहाँ अधर्म की प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे, यही शास्त्र का नियम है ॥ ९ ॥ देखो, शास्त्र कहता हैं कि बुद्धिमान् पुरुष को सभासदों के दोषों को जानते हुए, सभा में जाना ठीक नहीं है । क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणों को कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना — ये तीनों ही बातें मनुष्य को दोषभागी बनाती हैं ॥ १० ॥

देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रु के चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं । उनके मुख पर पसीने की बूंदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोश पर जल की बूँदें ॥ ११ ॥ सखियो ! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजी का मुख मुष्टिक के प्रति क्रोध के कारण कुछ-कुछ लाल लोचनों से युक्त हो रहा है । फिर भी हास्य का अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा हैं ॥ १२ ॥ सखी ! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है । क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्य के वेष में छिपकर रहते हैं । स्वयं भगवान् शङ्कर और लक्ष्मीजी जिनके चरणों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु बहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पों की माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजी के साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरह के खेल खेलते हुए आनन्द से विचरते हैं ॥ १३ ॥ सखी ! पता नहीं, गोपियों ने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रों के दोनों से नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरी का पान करती रहती हैं । इनका रूप क्या है, लावण्य का सार ! संसार में या उससे परे किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं है, फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है ! सो भी किसी के सँवारने-सजाने से नहीं, गहने-कपड़े से भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है । इस रूप को देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती । क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है । समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित हैं । सखियो ! परन्तु इसका दर्शन तो औरों के लिये बड़ा ही दुर्लभ है । वह तो गोपियों के ही भाग्य में बदा हैं ॥ १४ ॥

सखी ! व्रज की गोपियाँ धन्य हैं । निरन्तर श्रीकृष्ण में ही चित्त लगा रहने के कारण प्रेम भरे हृदय से, आँसुओं के कारण गद्गद कण्ठ से — वे इन्हीं की लीलाओं का गान करती रहती हैं । वे दूध दुहते, दही मथते, धान कुटते, घर लीपते, बालकों को झूला झुलाते, रोते हुए बालकों को चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरों को झाड़ते-बुहारते-कहाँ तक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्ण के गुणों के गान में ही मस्त रहती हैं ॥ १५ ॥ ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओं को चराने के लिये व्रज से वन में जाते हैं और सायङ्काल उन्हें लेकर व्रज में लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हैं । उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घर का सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्ते में दौड़ आती हैं और श्रीकृष्ण का मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवन से युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं । सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं ॥ १६ ॥

भरत-वंश-शिरोमणे ! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन शत्रु को मार डालने का निश्चय किया ॥ १७ ॥ स्त्रियों की ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे । वे पुत्र-स्नेहवश शोक से विह्वल हो गये । उनके हृदय में बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी । क्योंकि वे अपने पुत्रों के बल-वीर्य को नहीं जानते थे ॥ १८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और उनसे भिड़नेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकार के दाँव-पेंच का प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे ॥ १९ ॥ भगवान् के अङ्ग-प्रत्यङ्ग वज्र से भी कठोर हो रहे थे । उनकी रगड़ से चाणूर की रग-रग ढीली पड़ गयी । बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीर के सारे बन्धन टूट रहे हैं । उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई ॥ २० ॥ अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाज की तरह झपटा और दोनों हाथों के घूँसे बाँधकर उसने भगवान् श्रीकृष्ण की छाती पर प्रहार किया ॥ २१ ॥ परन्तु उसके प्रहार से भगवान् तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलों के गजरे की मार से गजराज । उन्होंने चाणूर की दोनों भुजाएँ पकड़ ली और उसे अन्तरिक्ष में बड़े वेग से कई वार घुमाकर धरती पर दे मारा । परीक्षित् ! चाणूर के प्राण तो घुमाने के समय ही निकल गये थे । उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्र की पूजा के लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ॥ २२-२३ ॥

इसी प्रकार मुष्टिक ने भी पहले बलरामजी को एक घूँसा मारा । इसपर बली बलरामजी ने उसे बड़े जोर से एक तमाचा जड़ दिया ॥ २४ ॥ तमाचा लगने से वह काँप उठा और आँधी से उखड़े हुए वृक्ष के समान अत्यन्त व्यथित और अन्त में प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ हे राजन् ! इसके बाद योद्धाओं में श्रेष्ठ भगवान् बलरामजी ने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवान को खेल-खेल में ही बायें हाथ के घूँसे से उपेक्षापूर्वक मार डाला ॥ २६ ॥ उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने पैर की ठोकर से शल का सिर धड़ से अलग कर दिया और तोशल को तिनके की तरह चीरकर दो टुकड़े कर दिया । इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये ॥ २७ ॥ जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल — ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचाने के लिये स्वयं वहाँ से भाग खड़े हुए ॥ २८ ॥ उनके भाग जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वालवाल को खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरी-ध्वनि के साथ अपने नूपुरों की झनकार को मिलाकर मल्लक्रीडा–कुश्ती के खेल करने लगे ॥ २९ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ । श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है’, — इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे । परन्तु कंस को इससे बड़ा दुःख हुआ । वह और भी चिढ़ गया ॥ ३० ॥ जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी — ॥ ३१ ॥ ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो । गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो ॥ ३२ ॥ वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है । उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है । इसलिये उसे भी जीता मत छोड़ो’ ॥ ३३ ॥ कंस इस प्रकार बढ़-चढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से वेगपूर्वक उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मञ्च पर जा चढ़े ॥ ३४ ॥ जब मनस्वी कंस ने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान् श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली ॥ ३५ ॥

हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा । आकाश में उड़ते हुए बाज के समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर । परन्तु भगवान् का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है । जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान् ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ॥ ३६ ॥ इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान् ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मञ्च से रंगभूमि में गिरा दिया । फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्व के आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े ॥ ३७ ॥ उनके कूदते ही कंस की मृत्यु हो गयी । सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे । नरेन्द्र ! उस समय सबके मुँह से हाय ! हाय !’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ॥ ३८ ॥ कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था । वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते — सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान् श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था । इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप — वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो — उसे भगवान् के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है ॥ ३९ ॥

कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे । वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आग-बबूले होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े ॥ ४० ॥ जब भगवान् बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है ॥ ४१ ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं । भगवान् के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे । अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४२ ॥ महाराज ! कंस और उसके भाइयों की स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुई । वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं ॥ ४३ ॥ वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर दे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं ॥ ४४ ॥

‘हा नाथ ! हे प्यारे ! हे धर्मज्ञ ! हे करुणामय ! हे अनाथवत्सल ! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी । आज हमारे घर उजड़ गये । हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ॥ ४५ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे । आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मङ्गलचिह्न उतर गये । यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयीं ॥ ४६ ॥ स्वामी ! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई । सच है, जो जगत् के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ॥ ४५ ॥ ये भगवान् श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पति और प्रलय के आधार हैं । यही रक्षक भी हैं । जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं । उन्होंने रानियों को दाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोकरीति के अनुसार मरनेवालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने जेल में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की ॥ ५० ॥ किंतु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदय से नहीं लगाया । उन्हें शङ्का हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें ॥ ५१ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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