April 26, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ४७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सैंतालीसवाँ अध्याय उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! गोपियों ने देखा कि श्रीकृष्ण के सेवक उद्धवजी की आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्ण से मिलती-जुलती है । घुटनों तक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र हैं, शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में कमलपुष्पों की माला है, कानों में मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है ॥ १ ॥ पवित्र मुसकान-वाली गोपियों ने आपस में कहा — ‘यह पुरुष देखने में तो बहुत सुन्दर है । परन्तु यह है कौन ? कहाँ से आया है ? किसका दूत हैं ? इसने श्रीकृष्ण-जैसी वेषभूषा क्यों धारण कर रखी है ?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उनमें से बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों के आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धवजी को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयी ॥ २ ॥ जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनय से झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदि से उद्धवजी का अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्त में आसन पर बैठाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगी — ॥ ३ ॥ ‘उद्धवजी ! हम जानती हैं कि आप यदुनाथ के पार्षद हैं । उन्हीं का संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं । आपके स्वामी ने अपने माता-पिता को सुख देने के लिये आपको यहाँ भेजा है ॥ ४ ॥ अन्यथा हमें तो अब इस नन्दगाँव में-गौओं के रहने की जगह में उनके स्मरण करने योग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियों का स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाई से छोड़ पाते हैं ॥ ५ ॥ दूसरों के साथ जो प्रेम-सम्बन्ध का स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थ के लिये ही होता है । भौरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा ही स्वार्थ का प्रेम-सम्बन्ध होता हैं ॥ ६ ॥ जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आनेवाले के पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है । जब प्रजा देखती हैं कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है । अध्ययन समाप्त हो जाने पर कितने शिष्य अपने आचार्यों की सेवा करते हैं ? यज्ञ की दक्षिणा मिली कि ऋत्विज् लोग चलते बने ॥ ७ ॥ जब वृक्ष पर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँ से बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं । भोजन कर लेने के बाद अतिथिलोग ही गृहस्थ की और कब देखते हैं ? वन में आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए । चाहे स्त्री के हृदय में कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेने के बाद उलटकर भी तो नहीं देखता’ ॥ ८ ॥ परीक्षित् ! गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे । जब भगवान् श्रीकृष्ण के दूत बनकर उद्धवजी व्रज में आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयी कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये । भगवान् श्रीकृष्ण ने बचपन से लेकर किशोर अवस्था तक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं । वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जा को भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ ९-१० ॥ एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था भगवान् श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का । उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है । उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के लिये दूत भेजा हो । वह गोपी भौंरें से इस प्रकार कहने लगी — ॥ ११ ॥ गोपी ने कहा — मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है । तू हमारे पैरों को मत छू । झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर । हम देख रहीं हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कम तेरी पूँछों पर भी लगा हुआ है । तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता हैं । जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रक्खें । उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ? ॥ १२ ॥ जैसा तू काला हैं, वैसे ही वे भी हैं । तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले । उन्होंने हमें केवल एक बार-हाँ, ऐसा ही लगता है — केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधर-सुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से चले गये । पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी । चितचोर ने उनका भी चित चुरा लिया होगा ॥ १३ ॥ अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं । हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है । तू हमलोगों के सामने यदुवंश-शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हमलोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं । हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिल्कुल पुराने हैं । तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी । तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्ण को मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर । वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं । उनके हृदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी हैं । वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँह-माँगी वस्तु देंगी ॥ १४ ॥ भौरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायें, उनके पास दौड़ी न आवे — ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है । औरों की तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं । फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस गिनती में है ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा नाम तो । ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं, परन्तु इसकी सार्थकता तो इसमें है कि तुम दीनों पर दया करो । नहीं तो श्रीकृष्ण ! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़ जाता है ॥ १५ ॥ अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक । मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को सन्देश-वाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये । परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की । देख, हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया । परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं । वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोड़कर चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करे ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर विश्वास करना चाहिये ? ॥ १६ ॥ ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया । ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँह-माँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश से बाँधकर पाताल में डाल दिया । ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवाले को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है । अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या, किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है । परन्तु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?” तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकती ॥ १७ ॥ श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं । यहाँ तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःख से सनी हुई घर-गृहस्थी छोड़कर अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर-भीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं । फिर भी श्रीकृष्ण की लीला-कथा छोड़ नहीं पाते । वास्तव में उसका रस, उसका चसका ऐसा ही है । यही दशा हमारी हो रही है ॥ १८ ॥ जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्श से होनेवाली काम-व्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं । इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह । तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ॥ १९ ॥ हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो । अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा । प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो । कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो । अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन हैं । हम तो उनके पास जा चुकी हैं । परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ-उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ॥ २० ॥ अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों को भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओं कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रक्खेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ॥ २१ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं । उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा — ॥ २२ ॥ उद्धवजी ने कहा — अहो गोपियो ! तुम कृतकृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । देवियो ! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगों ने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया हैं ॥ २३ ॥ दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान् की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ॥ २४ ॥ यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमलोगों ने पवित्र-कीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेम-भक्ति प्राप्त की है और उसका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २५ ॥ सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को, जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है ॥ २६ ॥ महाभाग्यवती गोपियो ! भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया हैं, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है । तुमलोगों का वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया हैं ॥ २७ ॥ मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ । तुम्हारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण ने तुमलोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है । कल्याणियो ! वही लेकर मैं तुमलोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो ॥ २८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है — मैं सबका उपादान कारण होने से सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ । इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता । जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी — ये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी है, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं; वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ । वे मुझमें हैं, मैं उनमें हैं और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ ॥ २९ ॥ मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक् है । वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदों से रहित सर्वथा शुद्ध है । कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते । माया की तीन वृत्तियाँ हैं — सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत् । इनके द्वारा वहीं अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ [[वि.] – 1. बुद्धिमान; दक्ष 2. चतुर; होशियार। ], तो कभी तैजस और कभी विश्वरूप से प्रतीत होता है ॥ ३१ ॥ मनुष्य को चाहिये कि वह समझे कि स्वप्न में दीखनेवाले पदार्थों के समान ही जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं । इसीलिये उन विषयों का चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियों को रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत् के स्वाप्निक विषयों को त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषों का वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्ति में ही समाप्त होते हैं । सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ॥ ३३ ॥ गोपियों ! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनों का ध्रुवतारा हूँ । तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ । किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है । वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सन्निधि का अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ॥ ३४ ॥ क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियों का चित्त अपने परदेशी प्रियतम में जितना निश्चल भाव से लगा रहता है, उतना आँखों के सामने, पास रहनेवाले प्रियतम में नहीं लगता ॥ ३५ ॥ अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ॥ ३६ ॥ कल्याणियो ! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा को रात्रि में रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं — मेरे साथ रास-विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं । (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है )॥ ३७ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का यह संदेशा सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ । उनके संदेश से उन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप और एक-एक लीला की याद आने लगी । प्रेम से भरकर उन्होंने उद्धवजी से कहा — ॥ ३८ ॥ गोपियों ने कहा — उद्धवजी ! यह बड़े सौभाग्य की और आनन्द की बात है कि यदुवंशियों को सतानेवाला पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया । यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि श्रीकृष्ण के बन्धु-बान्धव और गुरुजनों के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ किन्तु उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइये । जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवन से उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुरा की स्त्रियों से भी वे प्रेम करते हैं या नहीं ?’ ॥ ४० ॥ तब तक दूसरी गोपी बोल उठी — ‘अरी सखी ! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेम की मोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं । सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगर की स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भाव से उनकी ओर देखेंगी तब वे उन पर क्यों न रीझेंगे ?’ ॥ ४१ ॥ दूसरी गोपियाँ बोली — ‘साधो ! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियों की मण्डली में कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्द रूप से, बिना किसी सङ्कोच के जब प्रेम की बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों की भी याद करते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ कुछ गोपियों ने कहा — ‘उद्धवजी ! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्द के पुष्प खिले हुए थे, चारों और चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था ! उन रात्रियों में ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हमलोगों के साथ नृत्य किया था । कितनी सुन्दर थी वह रास-लीला ! उस समय हमलोगों के पैरों के नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे । हम सब सखियाँ उन्हीं की सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का गान कर रही थी और वे हमारे साथ नाना प्रकार के विहार कर रहे थे’ ॥ ४३ ॥ कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठी — उद्धवजी ! हम सब तो उन्हीं के विरह की आग से जल रही है । देवराज इन्द्र जैसे जल बरसाकर वन को हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदि से हमें जीवनदान देने के लिये यहाँ आयेंगे ?’ ॥ ४४ ॥ तब तक एक गोपी ने कहा — ‘अरी सखी ! अब तो उन्होंने शत्रुओं को मारकर राज्य पा लिया है, जिसे देखो, वहीं उनका सुहृद् बना फिरता है । अब वे बड़े-बड़े नरपतियों की कुमारियों से विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनों के पास क्यों आयेंगे ?” ॥ ४५ ॥ दूसरी गोपी ने कहा — ‘नहीं सखी । महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं । उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य है । हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियों से उनका कोई प्रयोजन नहीं है । हमलोगों के बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ॥ ४६ ॥ देखो वेश्या होने पर भी पिङ्गला ने क्या ही ठीक कहा है — संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है ।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान् श्रीकृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं । उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है ॥ ४७ ॥ हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने, जिनकी कीर्ति का गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्त में जो मीठी-मीठी प्रेम की बातें की हैं उन्हें छोड़ने का, भुलाने का उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो तो, उनकी इच्छा न होने पर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरण से लिपटी रहती हैं, एक क्षण के लिये भी उनका अङ्ग-सङ्ग छोड़कर कहीं नहीं जातीं ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे । यह वही पर्वत है, जिसके शिखर पर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे । ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रात्रि के समय रासलीला करते थे, और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चराने के लिये ये सुबह-शाम हमलोगो को देखते हुए जाते-आते थे । और यह ठीक वैसी ही वंशी की तान हमारे कानों में गूंजती रहती है, जैसी वे अपने अधरों के संयोग से छेड़ा करते थे । बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने इन सभी का सेवन किया है ॥ ४९ ॥ यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलि-कण उनके परम सुन्दर चरणकमलों से चिह्नित है । इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं — दिनभर यही तो करती रहती हैं तब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दन को हमारे नेत्रों के सामने लाकर रख देते हैं । उद्धवजी ! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ॥ ५० ॥ उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी ! आह ! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वश में नहीं हैं; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ? ॥ ५१ ॥ हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम्हीं हमारे जीवन के स्वामी हो, सर्वस्व हो । प्यारे ! तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो । हम गोपियों के एकमात्र तुम्ही सच्चे स्वामी हो । श्यामसुन्दर ! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे सङ्कट काटे हैं । गोविन्द ! तुम गौओं से बहुत प्रेम करते हो । क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं — दुःख के अपार सागर में डूब रहा है । तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ॥ ५२ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्रिय परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह की व्यथा शान्त हो गयी थी । वे इन्द्रियातीत भगवान् श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं । अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धवजी का सत्कार करने लगीं ॥ ५३ ॥ उद्धवजी गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये कई महीनों तक वहीं रहे । वे भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रजवासियों को आनन्दित करते रहते ॥ ५४ ॥ नन्दबाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान् श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ॥ ५५ ॥ भगवान् के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदी तट पर जाते, कभी वनों में विहरते और कभी गिरिराज की घाटियों में विचरते । कभी रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियों को भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी लीला के स्मरण में तन्मय कर देते ॥ ५६ ॥ उद्धवजी ने व्रज में रहकर गोपियों की इस प्रकार की प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम-चेष्टाएँ देखीं । उनकी इस प्रकार श्रीकृष्ण में तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्द से भर गये । अब वे गोपियों को नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे — ॥ ५७ ॥ ‘इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है । क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महाभाव में स्थित हो गयी हैं । प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से भीत मुमुक्षुजनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों — मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है । हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी । सत्य है, जिन्हें भगवान् श्रीकृष्णा की लीला-कथा के रस का चसका लग गया है, उन्हें कुलीनता की, द्विजाति समुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ-यागों में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान् की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महा-कल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ ? ॥ ५८ ॥ कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिने और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीकृष्ण में यह अनन्य परम प्रेम ! अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान् के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति से ही पीनेवाले को अमर बना देता है ॥ ५९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजाङ्गनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये । इन्हें भगवान् ने जिस कृपा-प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान् की परमप्रेमवती नित्यसङ्गिनी वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मीजी को भी नहीं प्राप्त हुआ । कमलकी-सी सुगन्ध और कान्त्ति से युक्त देवाङ्गनाओं को भी नहीं मिला । फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करे ? ॥ ६० ॥ मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन-धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि–जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजाङ्गनाओं की चरण-धूलि निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी । इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा । धन्य हैं ये गोपियाँ । देखो तो सहीं, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान् की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है — औरों की तो बात ही क्या —भगवद्वाणी उनकी निःश्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान् के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ॥ ६१ ॥ स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शङ्कर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्द को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिङ्गन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की ॥ ६२ ॥ नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपाङ्गनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ — उसे सिर पर चढ़ाता हूँ । अहा ! इन गोपियों ने भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ॥ ६३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की । ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ से यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए ॥ ६४ ॥ जब उनका रथ व्रज से बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंट की सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखों में आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेम से कहा —॥ ६५ ॥ ‘उद्धवजी ! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक-एक वृत्ति, एक-एक सङ्कल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे । उन्हीं की सेवा के लिये उठे और उन्हीं में लगी भी रहे । हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवामें लगा रहे ॥ ६६ ॥ उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है । हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें — वहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे ॥ ६७ ॥ प्रिय परीक्षित् ! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया । अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये ॥ ६८ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया । इसके बाद नन्दबाबा ने भेंट की जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ॥ ६९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related