April 26, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ४९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उनचासवाँ अध्याय अक्रूरजी का हस्तिनापुर जाना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये । वहाँ की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमरकीर्ति की छाप लग रही है । वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रों से मिले ॥ १-२ ॥ जब गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियों से भली-भाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियों की कुशल-क्षेम पूछी । उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल-मङ्गल के सम्बन्ध में पूछताछ की ॥ ३ ॥ परीक्षित् ! अक्रूरजी यह जानने के लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे । सच पूछो तो, धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था । वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे ॥ ४ ॥ अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्र-कौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देखकर उनसे जलते रहते हैं । जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं । अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं ॥ ५-६ ॥ जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आये, तब वह अपने भाई के पास जा बैठीं । अक्रूजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गयी और नेत्रों में आँसू भर आये । उन्होंने कहा — ॥ ७ ॥ ‘प्यारे भाई ! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं ? ॥ ८ ॥ मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं । क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं ? ॥ ९ ॥ मैं शत्रुओं के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ । मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेड़ियों के बीच में पड़ गयी हो । मेरे बच्चे बिना बाप के हो गये हैं । क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालक को सान्त्वना देंगे ? ॥ १० ॥ (श्रीकृष्ण को अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगी —) सच्चिदानन्द-स्वरूप श्रीकृष्ण ! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्व के जीवनदाता हो । गोविन्द ! मैं अपने बच्चों के साथ दुःख-पर-दुःख भोग रही हूँ । तुम्हारी शरण में आयी हूँ । मेरी रक्षा करो । मेरे बच्चों को बचाओ ॥ ११ ॥ मेरे श्रीकृष्ण ! यह संसार मृत्युमय है। और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं । मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसार से डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है ॥ १२ ॥ श्रीकृष्ण ! तुम माया के लेश से रहित परम शुद्ध हो । तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो । समस्त साधनों, योगों और उपायों के स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो । श्रीकृष्ण ! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ । तुम मेरी रक्षा करो’ ॥ १३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्त में जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यन्त दुःखित हो गयी और फफक-फफककर रोने लगीं ॥ १४ ॥ अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दुःख को समान दृष्टि से देखते थे । दोनों यशस्वी महात्माओं ने कुन्ती को उसके पुत्रों के जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओं की याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्म का नाश करने के लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी ॥ १५ ॥ अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आये । अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते । अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैषिता से भरा सन्देश कह सुनाया ॥ १६ ॥ अकूरजी ने कहा — महाराज धृतराष्ट्रजी ! आप कुरुवंशियों की उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये । आपको यह काम विशेषरूप से इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर अब आप राज्यसिंहासन के अधिकारी हुए हैं ॥ १७ ॥ आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिये । अपने सद्व्यवहार से प्रजा को प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिये । ऐसा करने से ही आपको लोक में यश और परलोक में सद्गति प्राप्त होगी ॥ १८ ॥ यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मरने के बाद आपको नरक में जाना पड़ेगा । इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिये ॥ १९ ॥ आप जानते ही हैं कि इस संसार में कभी कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता । जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही । राजन् ! यह बात अपने शरीर के लिये भी सोलहों आने सत्य है । फिर स्त्री, पुत्र, धन, आदि को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके वियष में तो कहना ही क्या है ॥ २० ॥ जीव अकेला ही पैदा होता हैं और अकेला ही मरकर जाता है । अपनी करनी-धरनी का, पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भुगतता है ॥ २१ ॥ जिन स्त्री-पुत्रों को हम अपना समझते हैं, वे तो हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है — इस प्रकार की बातें बनाकर मूर्ख प्राणी के अधर्म से इकट्ठे किये हुए धन को लूट लेते हैं, जैसे जल में रहनेवाले जन्तुओं के सर्वस्व जल को उन्हीं के सम्बन्धी चाट जाते हैं ॥ २२ ॥ यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीव को असन्तुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं ॥ २३ ॥ जो अपने धर्म से विमुख है — सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता । जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोष को अनुभव न होगा और वह अपने पापों की गठरी सिर पर लादकर स्वयं घोर नरक में जायगा ॥ २४ ॥ इसलिये महाराज ! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिन की चाँदनी है, सपने का खिलवाड़ हैं, जादू का तमाशा है और है मनोराज्यमात्र ! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये । आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम-शान्त हो जाइये ॥ २५ ॥ राजा धृतराष्ट्र ने कहा — दानपते अक्रूरजी ! आप मेरे कल्याण की, भले की बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवाले को अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूँ ॥ २६ ॥ फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी ! मेरे चञ्चल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है, क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है । जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती हैं, वहीं दशा आपके उपदेशों की है ॥ २७ ॥ अक्रूरजी ! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं । ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधान में उलट-फेर कर सके । उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा ॥ २८ ॥ भगवान् की माया का मार्ग अचिन्त्य है । उसी माया के द्वारा इस संसार की सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफल का विभाजन कर देते हैं । इस संसारचक्र की बेरोक-टोक चाल में उनकी अचिन्त्य लीला-शक्ति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभु को नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — इस प्रकार अक्रूजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये ॥ ३० ॥ परीक्षित् ! उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के सामने धृतराष्ट्र का वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवों के साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजने का वास्तव में उद्देश्य भी यही था ॥ ३१ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् दशमः स्कन्धः पुर्वार्द्धम् शुभं भूयात् ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related