श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ५१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इक्यावनवाँ अध्याय
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्रिय परीक्षित् ! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चन्द्रोदय हो रहा हो । उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्णरेखा के रूप में श्रीवत्स-चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही थी । चार भुजाएँ थीं, जो लंबी-लंबी और कुछ मोटी-मोटी थीं । हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे । मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था । कपोल की छटा निराली ही थी । मन्द-मन्द मुसकान देखनेवालों का मन चुराये लेती थी । कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे । उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है; क्योंकि नारदजी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे — वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमलके-से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं । इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता । इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये में भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लड़ूँगा ॥ १-५ ॥

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगि-दुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा ॥ ६ ॥ रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यहीं समझता था कि ‘अब पकड़ा, तब पकड़ा ।’ इस प्रकार भगवान् उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में ले गये ॥ ७ ॥ कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई ! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है । परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान् को पाने में समर्थ न हो सका ॥ ८ ॥ उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान् उस पर्वत की गुफा में घुस गये । उनके पीछे कालयवन भी घुसा । वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा ॥ ९ ॥ उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया. और अब इस तरह-मानो इसे कुछ पता ही न हो — साधुबाबा बनकर सो रहा है । यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी ॥ १० ॥ वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था । पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं । इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया ॥ ११ ॥ परीक्षित् ! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था । उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर राख का देर हो गया ॥ १२ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! जिसके दृष्टिपातमात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था ? किस वंश का था ? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था ? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफा में जाकर क्यों सो रहा था ? ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे । वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्राम-विजयी और महापुरुष थे ॥ १४ ॥ एक बार इन्द्रादि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे । उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की ॥ १५ ॥ जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामिकार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा — ‘राजन् ! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है । अब आप विश्राम कीजिये ॥ १६ ॥ वीरशिरोमणे ! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्यलोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया ॥ १७ ॥ अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है । सब-के-सब काल के गाल में चले गये ॥ १८ ॥ काल समस्त बलवानों से भी बलवान् हैं । वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है । जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है ॥ १९ ॥ राजन् ! आपका कल्याण हो । आपको जो इच्छा हो हमसे माँग लीजिये । हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं । क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान् विष्णु में ही है ॥ २० ॥

परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा, तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफा में जा सोये ॥ २१ ॥ उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन् ! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा, तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा’ ॥ २२ ॥

परीक्षित् ! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्द  को अपना दर्शन दिया । भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था । रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभमणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे । चार भुजाएँ थीं । वैजयन्ती माला अलग हीं घुटनों तक लटक रही थी । मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था । कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे । होठों पर प्रेमभरी मुसकराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी । अत्यन्त दर्शनीय तरुण अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल ! राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान् और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान् की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये । भगवान् अपने तेज से दुर्द्धर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शङ्कित होकर पूछा — ॥ २३-२७ ॥

राजा मुचुकुन्द ने कहा — ‘आप कौन हैं ? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं ? और इस पर्वत की गुफा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था ? ॥ २८ ॥ क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान् तेज अथवा भगवान् अग्निदेव तो नहीं हैं ? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं ? ॥ २९ ॥ मैं तो ऐसा समझता है कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्कर — इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान् नारायण ही है, क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँघेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अङ्गकान्ति से इस गुफा का अँधेरा भगा रहे हैं ॥ ३० ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदय से उसे सुनने के इच्छुक हैं ॥ ३१ ॥ और पुरुषोत्तम ! यदि आप हमारे बारे में पूछे तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम है मुचुकुन्द । और प्रभु ! मैं युवनाश्वनन्दन महाराज मान्धाता का पुत्र हूँ ॥ ३२ ॥ बहुत दिनों तक जागते रहने के कारण मैं थक गया था । निद्रा ने मेरी समस्त इन्द्रियों की शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसी से में इस निर्जन स्थान में निर्द्वन्द्व सो रहा था । अभी-अभी किसी ने मुझे जगा दिया ॥ ३३ ॥ अवश्य उसके पापों ने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया हैं । इसके बाद शत्रुओं के नाश करनेवाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया ॥ ३४ ॥

महाभाग ! आप समस्त प्राणियों के माननीय हैं । आपके परम दिव्य और असह्य तेज से मेरी शक्ति खो गयी है । मैं आपको बहुत देर तक देख भी नहीं सकता ॥ ३५ ॥ जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्ण ने हँसते हुए मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा — ॥ ३६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा —
प्रिय मुचकुन्द ! मेरे हजारों जन्म, कर्म और नाम हैं । वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उनकी गिनती करके नहीं बतला सकता ॥ ३७ ॥ यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता ॥ ३८ ॥ राजन् ! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते ॥ ३९ ॥ प्रिय मुचुकुन्द ! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो । पहले ब्रह्माजी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने के लिये प्रार्थना की थी ॥ ४० ॥ उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेवजी के यहाँ अवतार ग्रहण किया है । अब मैं वसुदेवजी का पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं ॥ ४१ ॥ अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधु-द्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ । राजन् ! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया ॥ ४२ ॥ वही मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफा में आया हूँ । तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल ॥ ४३ ॥ इसलिये राजर्षे ! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो । मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा । जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान् अवतीर्ण होनेवाले हैं । वे जान गये कि ये स्वयं भगवान् नारायण हैं । आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान् के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की ॥ ४५ ॥

मुचुकुन्द ने कहा — ‘प्रभो ! जगत् के सभी प्राणी आपकी माया से अत्यन्त मोहित हो रहे हैं । वे आपसे विमुख होकर अनर्थ में ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते । वे सुख के लिये घर गृहस्थी के उन झंझटों में फँस जाते हैं, जो सारे दुःखों के मूल स्रोत हैं । इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं ॥ ४६ ॥ इस पापरूप संसार से सर्वथा रहित प्रभो ! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्य का जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है । मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भञ्जन के लिये कोई भी असुविधा नहीं है । अपने परम सौभाग्य और भगवान् की अहैतुक कृपा से उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसार में ही लगा देते हैं और तुच्छ विषयसुख के लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थी के अँधेरे कुएँ में पड़े रहते हैं — भगवान् के चरणकमलों की उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशु के समान हैं, जो तुच्छ तृण के लोभ से अँधेरे कुएँ में गिर जाता है ॥ ४७ ॥ भगवन् ! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था । इस मरनेवाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फंसा हुआ था । उन वस्तुओं की चिन्त्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी । इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिल्कुल निष्फल–व्यर्थ चला गया ॥ ४८ ॥

जो शरीर प्रत्यक्ष ही पड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’ ! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं । रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरङ्गिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता ॥ ४९ ॥ मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है । संसार में बाँध रखनेवाले विषयों के लिये उसकी लालसा दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है । परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहनेवाले आप एकाएक उस प्रमादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं ॥ ५० ॥

जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है ॥ ५१ ॥ प्रभो ! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़नेवाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वहीं पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिये, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु हैं, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है ॥ ५२ ॥ बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की इच्छा से ही दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट् होऊँ ।’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भली-भाँति स्थित हो शुभकर्म करते हैं । इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता ॥ ५३ ॥

अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहनेवाले भगवन् ! जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्कर में भटक रहा है । जब उस चक्कर से छूटने का समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता हैं । यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत् के एकमात्र स्वामी आपमें जीव की बुद्धि अत्यन्त दृढ़ता से लग जाती है ॥ ५४ ॥ भगवन् ! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के–अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया । साधु-स्वभाव के चक्रवर्ती राजा भी जब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम से आपसे प्रार्थना किया करते हैं ॥ ५५ ॥ अन्तर्यामी प्रभो ! आपसे क्या छिपा है ? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह नहीं है । अथवा जो उसके अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसके लिये प्रार्थना करते रहते हैं । भगवन् ! भला, बतलाइये तो सही — मोक्ष देनेवाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बाँधनेवाले सांसारिक विषयों का वर माँगे ॥ ५६ ॥

इसलिये प्रभो ! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सम्बन्ध रखनेवाली समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल माया के लेशमात्र सम्बन्ध से रहित, गुणातीत, एक-अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ५७ ॥ भगवन् ! मैं अनादिकाल से अपने कर्मफल को भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी । मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही जा रही थी । कभी किसी प्रकार एक क्षण के लिये भी मुझे शान्ति न मिली । शरणदाता ! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ । सारे जगत् के एकमात्र स्वामी ! परमात्मन् ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये ॥ ५८ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा —
‘सार्वभौम महाराज ! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटि का है । यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देने का प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओं के अधीन न हुई ॥ ५९ ॥ मैंने तुम्हें जो वर देने का प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानी की परीक्षा के लिये । मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती ॥ ६० ॥ जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदि के द्वारा अपने मन को वश में करने का कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन् ! उनका मन फिर से विषयों के लिये मचल पड़ता है ॥ ६१ ॥ तुम अपने मन और सारे मनोभावों को मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वच्छन्दरूप से पृथ्वी पर विचरण करो । मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी ॥ ६२ ॥ तुमने क्षत्रिय-धर्म का आचरण करते समय शिकार आदि के अवसरों पर बहुत से पशुओं का वध किया है । अब एकाग्रचित्त से मेरी उपासना करते हुए तपस्या के द्वारा उस पाप को धो डालो ॥ ६३ ॥ राजन् ! अगले जन्म में तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियों के सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्मा को प्राप्त करोगे’ ॥ ६४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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