April 27, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ५२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बावनवाँ अध्याय द्वारकागमन, श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास रुक्मिणीजी का सन्देश लेकर ब्राह्मण का आना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्यारे परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्द पर अनुग्रह किया । अब उन्होंने भगवान् की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफा से बाहर निकले ॥ १ ॥ उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष-वनस्पति पहले की अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकार के हो गये हैं । इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशा की ओर चल दिये ॥ २ ॥ महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्ति से युक्त एवं संशय-सन्देह से मुक्त थे । वे अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्ण में लगाकर गन्धमादन पर्वत पर जा पहुँचे ॥ ३ ॥ भगवान् नर-नारायण के नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रम में जाकर बड़े शान्तभाव से गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करने लगे ॥ ४ ॥ इधर भगवान् श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आये । अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था । अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारका को ले चले ॥ ५ ॥ जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! शत्रु-सेना का प्रबल वेग देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले ॥ ७ ॥ उनके मन में तनिक भी भय न था । फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों — इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोड़कर अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सुकोमल चरणों से ही–पैदल भागते चले गये ॥ ८ ॥ जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेना के साथ उनका पीछा करने लगा । उसे भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था ॥ ९ ॥ बहुत दूर तक दौड़ने के कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये । अब वे बहुत ऊँचे ‘प्रवर्षण’ पर्वत पर चढ़ गये । उस पर्वत का ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे ॥ १० ॥ परीक्षित् ! जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गये और बहुत ढूँढ़ने पर भी पता न चला, तब उसने ईंधन से भरे हुए प्रवर्षण पर्वत के चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ॥ ११ ॥ जब भगवान् ने देखा कि पर्वत के छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लाँघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वत से एकदम नीचे धरती पर कूद आये ॥ १२ ॥ राजन् ! उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँ से चलकर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आये ॥ १३ ॥ जरासन्ध ने झूठ-मूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेश को चला गया ॥ १४ ॥ यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्ध में) कह चुका है कि आनर्तदेश के राजा श्रीमान् रैवतजी ने अपनी रेवती नाम की कन्या ब्रह्माजी की प्रेरणा से बलरामजी के साथ ब्याह दी ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियों को बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ ने सुधा का हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को हर लाये और उनसे विवाह कर लिया । रुक्मिणीजी राजा भीष्मक की कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजी का अवतार थीं ॥ १६-१७ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! हमने सुना है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने भीष्मकनन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणीदेवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षस-विधि से उनके साथ विवाह किया था ॥ १८ ॥ महाराज ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियों से जीतकर जिस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया ? ॥ १९ ॥ ब्रह्मर्षे ! भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना हैं ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत् का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं । उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता हैं । भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ हैं, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ॥ २० ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे । उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ॥ २१ ॥ सबसे बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे — जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहू, रुक्मकेश और रुक्ममाली । इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ॥ २२ ॥ जब उसने भगवान् श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी — जो उसके महल में आनेवाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य शीलस्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है । इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी हैं ।’ अतः भगवान् ने रुक्मिणीजी से विवाह करने का निश्चय किया ॥ २४ ॥ रुक्मिणीजी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो । परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा ॥ २५ ॥ जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं । उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा ॥ २६ ॥ जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरी में पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गये । वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं ॥ २७ ॥ ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान् श्रीकृष्ण उन ब्राह्मण देवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग उनकी (भगवान् की) किया करते हैं ॥ २८ ॥ आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतों के परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछने लगे — ॥ २९ ॥ ‘ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्व-पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती ॥ ३० ॥ ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हों, तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ॥ ३१ ॥ यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसी को सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा । परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है ॥ ३२ ॥ जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहङ्काररहित और शान्त हैं — उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न ? जिसके राज्य में प्रजा को अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती हैं, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ॥ ३४ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँ से, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये । हम आपको क्या सेवा करें ?’॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी । इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे ॥ ३६ ॥ रुक्मिणीजी ने कहा है — त्रिभुवनसुन्दर ! आपके गुणों को, जो सुननेवालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अङ्ग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्रवाले जीवों के नेत्रों के लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष — चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ सब कुछ है, श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है ॥ ३७ ॥ प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टि से देखें: कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम — सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान है । मनुष्य-लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है । अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइये-ऐसी कौन-सी कुलवती, महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी ? ॥ ३८ ॥ इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया हैं । मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ । आप अन्तर्यामी हैं । मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं । आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी रूप में स्वीकार कीजिये । कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ । अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ॥ ३९ ॥ मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान् परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों, तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ॥ ४० ॥ प्रभो ! आप अजित हैं । जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो, उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्तरूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासन्ध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ॥ ४१ ॥ यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुर में-भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ? ‘ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ । हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है जिसमें विवाही जानेवाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजादेवी मन्दिर में जाना पड़ता हैं ॥ ४२ ॥ कमलनयन ! उमापति भगवान् शङ्कर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं । यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी । चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़े, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ॥ ४३ ॥ ब्राह्मणदेवता ने कहा — यदुवंशशिरोमणे ! यही रुक्मिणी के अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ । इसके सम्बन्ध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ॥ ४४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related