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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ५६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छप्पनवाँ अध्याय
स्यमन्तक-मणि की कथा, जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! सत्राजित् (सो. वृष्णि.) एक सुविख्यात यादव राजा, जो निम्न राजा का पुत्र था [भा॰पु॰ ९।२४।१३] । ब्रह्मांड एवं विष्णु में इसे विघ्न राजा का पुत्र कहा गया है [विष्णु. ५.१३.१०];[ ब्रह्मांड. ३.७१.२१] । इसे शक्तिसेन नामांतर भी प्राप्त था [मत्स्य. ४५.३];[ पद्म. सृ. १३] । इसके जुड़वे भाई का नाम प्रसेन था [भा. ९.२४.१३] । सत्यभामा के पिता, एवं स्यमंतक मणि के स्वामी के नाते यादव वंश के इतिहास में इसका नाम अत्यधिक प्रसिद्ध था । पूर्वजन्म – पूर्वजन्म में यह मायापुरी में रहनेवाला देवशर्मन् नामक ब्राह्मण था, एवं इसकी कन्या का नाम गुणवती था, जो इस जन्म में इसकी सत्यभामा नामक कन्या बनी थी । ने श्रीकृष्ण को झूठा कलङ्क लगाया था । फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्ण को सौंप दी ॥ १ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! सत्राजित् ने भगवान् श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमन्तकमणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ? ॥ २ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा —
परीक्षित् ! सत्राजित् भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था । वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे । सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तकमणि दी थी ॥ ३ ॥ सत्राजित् उस मणि को गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो । परीक्षित् ! जब सत्राजित् द्वारका में आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके ॥ ४ ॥ दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गयीं । लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं । उन लोगों ने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी । उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ॥ ५ ॥ लोगों ने कहा — ‘शङ्ख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है ॥ ६ ॥ जगदीश्वर ! देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्ड-रश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ॥ ७ ॥ प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं । आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे । उन्होंने कहा — ‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं । यह तो सत्राजित् है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा हैं ॥ ९ ॥ इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घर में चला आया । घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मङ्गल उत्सव मनाया जा रहा था । उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तकमणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया ॥ १० ॥ परीक्षित् ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार भार का परिमाण इस प्रकार है — “चतुर्भिव्रीहिभिर्गुजं गुंजान्पंच पणं पणान् । अष्टौ धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुरः पलम् । तुलां पलशतं प्राहुर्भारं स्याद्विशतिस्तुलाः ॥” ‘चार व्रीहि (धान) की एक गुंजा, पाँच गुंजा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पल की एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’  सोना दिया करती थी । और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था ॥ ११ ॥

एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसङ्गवश कहा — ‘सत्राजित् ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो ।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान् की आज्ञा का उल्लङ्घन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ॥ १२ ॥

एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया ॥ १३ ॥ वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया । वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला ॥ १४ ॥ उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी । अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित् को बड़ा दुःख हुआ ॥ १५ ॥ वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव हैं श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था ।’ सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपस में कानाफूसी करने लगे ॥ १६ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलङ्क का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरुष को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढ़ने के लिये वन में गये ॥ १७ ॥ वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है । जब वे लोग सिंह के पैरों का चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला हैं ॥ १८ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयङ्कर गुफा में प्रवेश किया ॥ १९ ॥ भगवान् ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्त्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है । वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए ॥ २० ॥ उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भॉति चिल्ला उठी । उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे । उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला । उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे ॥ २२ ॥ जिस प्रकार माँस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपस में घमासान युद्ध करने लगे । पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे । अन्त में उनमें बाहु-युद्ध होने लगा ॥ २३ ॥

परीक्षित् ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों से आपस में वे अट्ठाईस दिन तक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ॥ २४ ॥ अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण के घूँसों की चोट से जाम्बवान् के शरीर की एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी । उत्साह जाता रहा । शरीर पसीने से लथपथ हो गया । तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित–चकित होकर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा — ॥ २५ ॥ ‘प्रभो ! मैं जान गया । आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं । आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ॥ २६ ॥ आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनानेवाले हैं । बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं । काल के जितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं ॥ २७ ॥ प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था । उस समय समुद्र के अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था । तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लङ्का का विध्वंस किया । आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे । (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं)’ ॥ २८ ॥

परीक्षित् ! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान् को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान् जी से कहा ॥ २९-३० ॥ ‘ऋक्षराज ! हम मणि के लिये ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं । इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ ॥ ३१ ॥ भगवान् के ऐसा कहने पर जाम्बवान् ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया ॥ ३२ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की । परन्तु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफा में से नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुखी होकर द्वारका को लौट गये ॥ ३३ ॥ वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा में से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ॥ ३४ ॥ सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिये महामाया दुर्गादेवी की शरण में गये, उनकी उपासना करने लगे ॥ ३५ ॥ उनकी उपासना से दुर्गादेवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया । उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफल-मनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ॥ ३६ ॥ सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ॥ ३७ ॥

तदनन्तर भगवान् ने सत्राजित् को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित् को सौप दी ॥ ३८ ॥ सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया । मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया । अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ॥ ३९ ॥ उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता । बलवान् के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था । अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान् श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ॥ ४० ॥ मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं । सचमुच मैं अदूरदशी, क्षुद्र हूँ । धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा ॥ ४१ ॥ अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ । यह उपाय बहुत अच्छा है । इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं हैं ॥ ४२ ॥

सत्राजित् ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं ॥ ४३ ॥ सत्यभामा शीलस्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुण से सम्पन्न थीं । बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था । परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ॥ ४४ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने सत्राजित् से कहा — ‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे । आप सूर्य भगवान् के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे । हम तो केवल उसके फल के, अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं । वहीं आप हमें दे दिया करें ॥ ४५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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