Print Friendly, PDF & Email

श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ५७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सत्तावनवाँ अध्याय
स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अकूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करने के लिये वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये ॥ १ ॥ वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे — ‘हाय-हाय ! यह तो बड़े ही दुःख की बात हुई ॥ २ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर औरकृतवर्मा[कृतवर्मा यदुवंश के अंतर्गत भोजवंशीय हृदिक का पुत्र और वृष्णिवंश के सात सेनानायकों में एक। महाभारत युद्ध में इसने एक अक्षौहिणी सेना के साथ दुर्योधन की सहायता की थी। यह कौरव पक्ष का अतिरथी वीर था (महाभारत, उद्योगपर्व, 130-10-11)। महाभारत के युद्ध में इसने अपने पराक्रम का अनेक बार प्रदर्शन किया; अनेक बार पांडव सेना को युद्धविमुख किया तथा भीमसेन, युधिष्ठिर, धृष्टद्युम्न, उत्तमौजा आदि वीरों को पराजित किया। द्वैपायन सरोवर पर जाकर इसी ने दुर्योधन को युद्ध के लिए उत्साहित किया था। निशाकाल के सौप्तिक युद्ध में इसने अश्वत्थामा का साथ दिया तथा शिविर से भागे हुए योद्धाओं का वध किया (सौप्तिक पर्व 5-106-107) और पांडवों के शिविर में आग लगाई। मौसल युद्ध में सात्यकि ने इसका वध किया। महाभारत के अनुसार मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग जाने पर इसका प्रवेश मरुद्गणों में हो गया।] को अवसर मिल गया । उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा — ‘तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? ॥ ३ ॥ सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है । अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?’ ॥ ४ ॥ शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी । अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित् को मार डाला ॥ ५ ॥ इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने-चिल्लाने लगी; परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया ॥ ६ ॥

सत्यभामाजी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी ! हाय पिताजी ! मैं मारी गयी’ — इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं । बीच-बीच में वे बेहोश हो जाती और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं ॥ ७ ॥ इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं । उन्होंने बड़े दुःख से भगवान् श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया — यद्यपि इन बातों को भगवान् श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे ॥ ८ ॥ परीक्षित् ! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो ! हम लोगों पर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी !’ ॥ ९ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा को मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे ॥ १० ॥

जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने लिये उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी । तब कृतवर्मा ने कहा — ॥ ११ ॥ ‘भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं । मैं उनका सामना नहीं कर सकता । भला, ऐसा कौन हैं, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? ॥ १२ ॥ तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया । जरासन्ध — जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी में लौट जाना पड़ा था’ ॥ १३ ॥ जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिये अक्रूरजी से प्रार्थना की । उन्होंने कहा — ‘भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान् का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने । जो भगवान् खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व-विधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्ष को अवस्था में — जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाये रक्खा; मैं तो उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ । उनके कर्म अद्भुत हैं । वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं । मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ ॥ १४-१७ ॥ जब इस प्रकार अक्रूरजी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा ॥ १८ ॥

परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे । अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वा का पीछा किया ॥ १९ ॥ मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा । वह अत्यन्त भयभीत हो गया था । भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ॥ २० ॥ शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान् ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमन्तकमणि को ढूँढा ॥ २१ ॥ परन्तु जब मणि मिली नहीं तब भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलरामजी के पास आकर कहा — ‘हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा । क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो हैं ही नहीं ॥ २२ ॥ बलरामजी ने कहा — ‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि को किसी-न-किसी के पास रख दिया है । अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ ॥ २३ ॥ मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं ।’ परीक्षित् ! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरी में चले गये ॥ २४ ॥ जब मिथिलानरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया । उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की ॥ २५ ॥ इसके बाद भगवान् बलरामजी कई वर्षों तक मिथिलापुरी में ही रहे । महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रक्खा । इसके बाद समय पर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने बलरामजी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की ॥ २६ ॥

अपनी प्रिया सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ॥ २७ ॥ इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओं के साथ अपने श्वशुर सत्राजित् की सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है ॥ २८ ॥

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित् के वध के लिये उत्तेजित किया था । इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए ॥ २९ ॥ परीक्षित् ! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रुर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा । दैविक और भौतिक निमित्तों से बार-बार वहाँ के नागरिकों को शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा । परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कहीं हुई बातों को भूल जाते हैं । भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान् श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ॥ ३०-३१ ॥ उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा — ‘एक बार काशी-नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था । तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी । तब उस प्रदेश में वर्षा हुई । अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है । इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती हैं । तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते । परीक्षित् ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान् ने सोचा कि इस उपद्रव का यही कारण नहीं है यह जानकर भी भगवान् ने दूत भेजकर अक्रूरजी को ढूँढ़वाया और आने पर उनसे बातचीत की ॥ ३२-३४ ॥

भगवान् ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया । परीक्षित् ! भगवान् सबके चित्त का एक-एक सङ्कल्प देखते रहते हैं । इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा — ॥ ३५ ॥ ‘चाचाजी ! आप दान-धर्म के पालक हैं । हमें यह बात पहले से हीं मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ॥ ३६ ॥ आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है । इसलिये उनकी लड़की के लड़के उनके नाती ही उन्हें तिलाञ्जलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ॥ ३७ ॥ इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे । क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिये उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है । परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी हैं कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते ॥ ३८ ॥ इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्रबलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदय में शान्ति का सञ्चार कीजिये । हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोने की वेदियाँ बनती हैं ॥ ३९ ॥

परीक्षित् ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्ण को दे दी ॥ ४० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयों को दिखाकर अपना कलङ्क दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूरजी को लौटा दिया ॥ ४१ ॥

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करनेवाला तथा परम मङ्गलमय है । जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ॥ ४२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.