April 28, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ५९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उनसठवाँ अध्याय भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ भगवान् का विवाह राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने भौमासुर को, जिसने उन स्त्रियों को बंदीगृह में डाल रक्खा था, क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान् श्रीकृष्ण का वह विचित्र चरित्र सुनाइये ॥ १ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था । इस पर सबके राजा इन्द्र द्वारका में आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को सुनायी । अब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार हुए और भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये ॥ २ ॥ प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था । पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रों का घेरा लगाया हुआ था । फिर जल से भरी खाई थी, उसके बाद आग या बिजली की चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रक्खा गया था । इससे भी भीतर मुर दैत्य ने नगर के चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे ॥ ३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी गदा की चोट से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रों की मोरचे-बंदी को बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया । चक्र के द्वारा अग्नि, जल और वायु की चहारदीवारियों को तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्य के फंदों को तलवार से काट-कूटकर अलग रख दिया ॥ ४ ॥ जो बड़े-बड़े यन्त्र-मशीनें यहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीरपुरुषों के हृदय को शङ्खनाद से विदीर्ण कर दिया और नगर के परकोटे को गदाधर भगवान् ने अपनी भारी गदा से ध्वंस कर डाला ॥ ५ ॥ भगवान् के पाञ्चजन्य शङ्ख की ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कड़क के समान महाभयङ्कर थी । उसे सुनकर मुर दैत्य की नींद टूटी और वह बाहर निकल आया । उसके पाँच सिर थे और अब तक वह जल के भीतर सो रहा था ॥ ६ ॥ वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि के समान प्रचण्ड तेजस्वी था । वह इतना भयङ्कर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था । उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान् की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुड़जी पर टूट पड़े । उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँच मुखों से त्रिलोकी को निगल जायगा ॥ ७ ॥ उसने अपने त्रिशूल को बड़े वेग से घुमाकर गरुड़ज़ी पर चलाया और फिर अपने पाँच मुखों से घोर सिंहनाद करने लगा । उसके सिंहनाद का महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओं में फैलकर सारे ब्रह्माण्ड में भर गया ॥ ८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मुर दैत्य का त्रिशूल गरुड़ की ओर बड़े वेग से आ रहा है । तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्ती से उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया । इसके साथ ही मुर दैत्य के मुखों में भी भगवान् ने बहुत-से बाण मारे । इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान् पर अपनी गदा चलायी ॥ ९ ॥ परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी गदा के प्रहार से मुर दैत्य की गदा को अपने पास पहुँचने के पहले ही चूर-चूर कर दिया । अब वह अस्त्रहीन हो जाने के कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेल में ही चक्र से उसके पाँचों सिर उतार लिये ॥ १० ॥ सिर कटते ही मुर दैत्य के प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जल में गिर पड़ा, जैसे इन्द्र के वज्र से शिखर कट जाने पर कोई पर्वत समुद्र में गिर पड़ा हो । मुर दैत्य के सात पुत्र थे — ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण । ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेने के लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्ण पर चढ़ आये ॥ ११-१२ ॥ वे वहाँ आकर बड़े क्रोध से भगवान् श्रीकृष्ण पर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रों की वर्षा करने लगे । परीक्षित् ! भगवान् की शक्ति अमोघ और अनन्त है । उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये ॥ १३ ॥ भगवान् के शस्त्र-प्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्यों के सिर, जाँघ, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभी को भगवान् ने यमराज के घर पहुँचा दिया । जब पृथ्वी के पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र और बाणों से हमारी सेना और सेनापतियों का संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ । वह समुद्र तट पर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियों की सेना लेकर नगर से बाहर निकला । उसने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नी के साथ आकाश में गरुड़ पर स्थित हैं, जैसे सूर्य के ऊपर बिजली के साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो । भौमासुर ने स्वयं भगवान् के ऊपर शतघ्नी नाम की शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उन पर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोडे ॥ १४-१५ ॥ अब भगवान् श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे । इससे उसी समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघे, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! भौमासुर के सैनिकों ने भगवान् पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमें से प्रत्येक को भगवान् ने तीन-तीन तीखे बाणों से काट गिराया ॥ १७ ॥ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़जी पर सवार थे और गरुड़जी अपने पंखों से हाथियों को मार रहे थे । उनकी चोंच, पंख और पंजों की मार से हाथियों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमि से भागकर नगर में घुस गये । अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा । जब उसने देखा कि गरुड़जी की मार से पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रहीं हैं, तब उसने उन पर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्र को भी विफल कर दिया था । परन्तु उसकी चोट से पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसी ने मतवाले गजराज पर फूलों की माला से प्रहार किया हो ॥ १८-२० ॥ अब भौमासुर ने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये एक त्रिशूल उठाया । परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान् श्रीकृष्ण ने छुरे के समान तीखी धारवाले चक्र से हाथी पर बैठे हुए भौमासुर का सिर काट डाला ॥ २१ ॥ उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीट के सहित पृथ्वी पर गिर पड़ा । उसे देखकर भौमासुर के सगे-सम्बन्धी ‘हाय-हाय’ पुकार उठे, ऋषि लोग ‘साधु साधु’ कहने लगे और देवता लोग भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥ अब पृथ्वी भगवान् के पास आयी । उसने भगवान् श्रीकृष्ण के गले में वैजयन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माता के जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोने के एवं रत्नजटित थे, भगवान् को दे दिये तथा वरुण का छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी ॥ २३ ॥ राजन् ! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्ति-भाव भरे हृदय से उनकी स्तुति करने लगीं ॥ २४ ॥ पृथ्वीदेवी ने कहा — शङ्ख चक्र गदाधारी देवदेवेश्वर ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ । परमात्मन् ! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं । आपको मैं नमस्कार करती हूँ ॥ २५ ॥ प्रभो ! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ हैं । आप कमल की माला पहनते हैं । आपके नेत्र कमल से खिले हुए और शान्तिदायक हैं । आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले हैं । आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ २६ ॥ आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं । आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं । मैं आपको नमस्कार करती हूँ । आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं । आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरुप हैं । मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ २७ ॥ आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत् के जन्मदाता आप ही हैं । आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रह्म हैं । जगत् का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं — सब आपके ही स्वरूप है । परमात्मन् ! आपके चरणों में बार-बार नमस्कार ॥ २८ ॥ प्रभो ! जब आप जगत् की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुण को स्वीकार करते हैं । परन्तु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते । जगत्पते ! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं तथा उन तीनों से परे भी हैं ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहङ्कार और महत्तत्त्व — कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूप में भ्रम के कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ॥ ३० ॥ शरणागत-भयभञ्जन प्रभो ! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है । मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ । प्रभो ! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिर पर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापों से नष्ट करनेवाला है ॥ ३१ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वहाँ जाकर भगवान् ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ॥ ३३ ॥ जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान् को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया ॥ ३४ ॥ उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें ।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना हृदय भगवान् के प्रति निछावर कर दिया ॥ ३५ ॥ तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी ॥ ३६ ॥ ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान् ने वहाँ से द्वारका भेजे ॥ ३७ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये । वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामाजी और भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान् ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये ॥ ३८ ॥ वहाँ से लौटते समय सत्यभामाजी की प्रेरणा से भगवान् श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़ पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका में ले आये ॥ ३९ ॥ भगवान् ने उसे सत्यभामा के महल के बगीचे में लगा दिया । इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी । कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और मकरन्द के लोभी भौरे स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे ॥ ४० ॥ परीक्षित् ! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली । सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है । धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को ॥ ४१ ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया । सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान् के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ॥ ४२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् की पत्नियों के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थी, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है । उन महलों में रहकर मति-गति के परे की लीला करनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्न रहते हुए लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान् के वास्तविक स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते । उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था । अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ानेवाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान् की सेवा करती रहती थीं ॥ ४४ ॥ उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान् पधारते, तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लाती, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करती, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारती, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान् की सेवा करतीं ॥ ४५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे एकोनषष्टित्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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