April 30, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ६७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सड़सठवाँ अध्याय द्विविद का उद्धार राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवान् बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं । उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणी के विषय नहीं हैं । उनकी एक-एक लीला लोक-मर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है । उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! द्विविद नाम का एक वानर था । वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था ॥ २ ॥ जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिये राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया । वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा ॥ ३ ॥ कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ों को उखाड़कर उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देश में ही करता था । क्योंकि उसके मित्र को मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण उसी देश में निवास करते थे ॥ ४ ॥ द्विविद वानर में दस हजार हाथियों का बल था । कभी-कभी वह दुष्ट समुद्र में खड़ा हो जाता और हाथों से इतना जल उछालता कि समुद्रतट के देश डूब जाते ॥ ५ ॥ वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के आश्रम की सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियों को तोड़-मरोड़कर चौपट कर देता और उनके यज्ञ-सम्बन्धी अग्नि-कुण्डों में मल-मूत्र डालकर अग्नियों को दूषित कर देता ॥ ६ ॥ जैसे भृङ्गी नाम का कीड़ा दूसरे कीड़ों को ले जाकर अपने बिल में बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषों को ले जाकर पहाड़ों की घाटियों तथा गुफाओं में डाल देता । फिर बाहर से बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता ॥ ७ ॥ इस प्रकार वह देशवासियों का तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियों को भी दूषित कर देता था । एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वत पर गया ॥ ८ ॥ वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियो के झुंड में विराजमान हैं । उनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्षःस्थल पर कमलों की माला लटक रही है ॥ ९ ॥ वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्माद से विह्वल हो रहे थे । उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत गजराज हो ॥ १० ॥ वह दुष्ट वानर वृक्षों की शाखाओं पर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता । कभी स्त्रियों के सामने आकर किलकारी भी मारने लगता ॥ ११ ॥ युवती स्त्रियाँ स्वभाव से ही चञ्चल और हास-परिहास में रुचि रखनेवाली होती हैं । बलरामजी की स्त्रियाँ उस वानर की ढिठाई देखकर हँसने लगीं ॥ १२ ॥ अब वह वानर भगवान् बलरामजी के सामने ही उन स्त्रियों की अवहेलना करने लगा । वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुंह बनाता, घुड़कता ॥ १३ ॥ वीर शिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये । उन्होंने इस पर पत्थर का एक टुकड़ा फेंका । परन्तु द्विविद ने उससे अपने को बचा लिया और झपटकर मधु-कलश उठा लिया तथा बलरामजी की अवहेलना करने लगा । उस धूर्त ने मधुकलश को तो फोड़ ही डाला, स्त्रियों के वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजी को क्रोधित करने लगा ॥ १४-१५ ॥ परीक्षित् ! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया । द्विविद भी बड़ा बलवान् था । उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेग से दौड़कर बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा । भगवान् बलराम पर्वत की तरह अविचल खड़े रहे । उन्होंने अपने हाथ से उस वृक्ष को सिर पर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उस पर प्रहार किया । मूसल लगने से द्विविद का मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी । उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वत से गेरू का सोता बह रहा हो । परन्तु द्विविद ने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की । उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झुड़कर बिना पत्ते का कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोर का प्रहार किया । बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये । इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोध से दूसरा वृक्ष चलाया, परन्तु भगवान् बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६-२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा । एक वृक्ष के टूट जाने पर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करने की चेष्टा करता । इस तरह सब ओर से वृक्ष उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वन को ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न रहे, तब द्विविद का क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढ़कर बलरामजी के ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानों की वर्षा करने लगा । परन्तु भगवान् बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेल में ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्त में कपिराज द्विविद अपनी ताड़ के समान लंबी बाँहों से घूँसा बाँधकर बलरामजी की ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छाती पर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया । इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित् ! आँधी आने पर जैसे जल में डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरने से बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियों के साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाश में देवता लोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो नमः’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलरामजी पर फूल की वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अतः भगवान् बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये । उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान् बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ॥ २८ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सप्तषष्टित्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related