January 26, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वितीय स्कन्ध – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नवाँ अध्याय ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! जैसे स्वप्न में देखे जानेवाले पदार्थों के साथ उसे देखनेवाले का कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभव-स्वरूप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ १ ॥ विविध रूपवाली माया के कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है, और जब उसके गुणों में रम जाता है तब यह में हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है ॥ २ ॥ किन्तु जब यह गुणों को क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया — इन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरूप में मोहरहित होकर रमण करने लगता है — आत्माराम हो जाता है, तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीन-गुणातीत हो जाता हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्त्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हैं) ॥ ४ ॥ तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे । परन्तु जिस ज्ञानदृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापार के लिये वाञ्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ॥ ५ ॥ एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यञ्जन के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को -‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना । परीक्षित् ! महात्मालोग इस तप को ही त्यागियों का धन मानते हैं ॥ ६ ॥ यह सुनकर ब्रह्माजी ने वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा । वे अपने कमल पर बैठ गये और ‘मुझे तप करने को प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है । ऐसा निश्चयकर और उसमें अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया ॥ ७ ॥ ब्रह्माजी तपस्वियों में सबसे बड़े तपस्वी हैं । उनका ज्ञान अमोघ है । उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके ॥ ८ ॥ उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दुसरा लोक नहीं है । उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं है । जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है । वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती हैं; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं । वहाँ भगवान् के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ॥ १० ॥ उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोमल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान हैं । अङ्ग-अङ्ग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है । वे कोमलता की मूर्ति हैं । सभी के चार-चार भुजाएँ हैं । वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं । उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान है । उनके कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभायमान हैं ॥ ११ ॥ जिस प्रकार आकाश बिजलीसहित बादलों से शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता हैं ॥ १२ ॥ उस वैकुण्ठलोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं । कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान् की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुणगान करने लगते हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं । सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं ॥ १४ ॥ उनका मुख-कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त है । आँखों में लाल-लाल डोरियां हैं । बड़ी मोहक और मधुर चितवन हैं । ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे । सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं । वक्षःस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ॥ १५ ॥ वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं । पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूत — ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं । समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य — इन छः नित्यसिद्ध स्वरूपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं । उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं । वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूप में ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं ॥ १६ ॥ उनका दर्शन करते ही ब्रह्माजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया । शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये । ब्रह्माजी ने भगवान् के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्तिमार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी के प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रह्मा को प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने ब्रह्माजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहा — ॥ १८ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — ब्रह्माजी ! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है । तुमने सृष्टिरचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भली-भाँति सन्तुष्ट कर दिया है । मन में कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ॥ १९ ॥ तुम्हारा कल्याण हो । तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लो । क्योंकि मैं मुंहमाँगी वस्तु देने में समर्थ हूँ । ब्रह्माजी ! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम-पर्यवसान मेरे दर्शन में ही हैं ॥ २० ॥ तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की हैं, इसीसे मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है ॥ २१ ॥ तुम उस समय सृष्टि रचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । इससे मैंने तुम्हें तपस्या करने की आज्ञा दी थी । क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ॥ २२ ॥ मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने लीन कर लेता हूँ । तपस्या मेरी एक दुर्लङ्घ्य शक्ति है ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी ने कहा — ‘भगवन् ! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षीरूप से विराजमान रहते हैं । आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ॥ २४ ॥ नाथ ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ ॥ २५ ॥ आप माया के स्वामी हैं, आपका सङ्कल्प कभी व्यर्थ नहीं होता । जैसे मकड़ी अपने मुंह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती हैं, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध-शक्ति-सम्पन्न जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं । इस प्रकार आप कैसे करते हैं, इस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान से बँध न जाऊँ ॥ २८ ॥ प्रभो ! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है । अतः जब मैं आपकी इस सेवा-सृष्टि-रचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ॥ २९ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३० ॥ मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण हैं, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं — मेरी कृपा से तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ॥ ३१ ॥ अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्यहम् ॥ ३२ ॥ ‘सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान । जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं हूँ; और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ ३२ ॥ ऋतेऽर्थ यत् प्रतीचेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥ ३३ ॥ वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिये ॥ ३३ ॥ यथा महान्ति भूतानि भूतेषुच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३४ ॥ जैसे प्राणियों के पंचभूतरचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३४ ॥ एतावदेव जिज्ञास्यंतत्त्व जिज्ञासुनाऽऽत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ३५ ॥ यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह नहीं — इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है — इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वे ही वास्तविक तत्व हैं । जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी ! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो । इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टि रचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा ॥ ३६ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — लोकपितामह ब्रह्माजी को इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान् ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूप को छिपा लिया ॥ ३७ ॥ जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजी ने देखा कि भगवान् ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूप को हमारे नेत्रों के सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अञ्जलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्प में जैसी सृष्टि थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की ॥ ३८ ॥ एक बार धर्मपति प्रजापति ब्रह्माजी ने सारी जनता का कल्याण हो, अपने इस स्वार्थ पूर्ति के लिये विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया ॥ ३९ ॥ उस समय उनके पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजी ने मायापति भगवान् की माया का तत्त्व जानने की इच्छा से बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवा से ब्रह्माजी को बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ॥ ४०-४१ ॥ परीक्षित् ! जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ॥ ४२ ॥ उनके प्रश्न से ब्रह्माजी और भी प्रसन्न हुए । फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया जिसका स्वयं भगवान् ने उन्हें उपदेश किया था ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वती के तटपर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ ४४ ॥ तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट् पुरुष से इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई, तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर में उसी भागवतपुराण के रूप में देता हूँ ॥ ४५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related