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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तिहत्तरवाँ अध्याय
जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई और भगवान् का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जरासन्ध ने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओं को जीतकर पहाड़ों की घाटी में एक किले के भीतर कैद कर रखा था । भगवान् श्रीकृष्ण के छोड़ देने पर जब वे वहाँ से निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ॥ १ ॥ वे भूख से दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे । जेल में बंद रहने के कारण उनके शरीर का एक-एक अङ्ग ढीला पड़ गया था । वहाँ से निकलते ही उन नरपतियों ने देखा कि सामने भगवान् श्रीकृष्ण खड़े हैं । वर्षाकालीन मेघ के समान उनका साँवला-सलोना शरीर हैं और उस पर पीले रंग का रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ॥ २ ॥ चार भुजाएँ हैं, जिनमें गदा, शङ्ख, चक्र और कमल सुशोभित हैं । वक्षःस्थल पर सुनहली रेखा — श्रीवत्स का चिह्न है और कमल के भीतरी भाग के समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं । सुन्दर वदन प्रसन्नता का सदन है । कान में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं । सुन्दर मुकुट, मोतियों का हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर शोभा पा रहे हैं ॥ ३-४ ॥ गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही हैं और वनमाला लटक रही है । भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर उन राजाओं की ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रों से उन्हें पी रहे हैं । जीभ से चाट रहे हैं, नासिका से सूँघ रहे हैं और बाहुओं से आलिङ्गन कर रहे हैं । उनके सारे पाप तो भगवान् के दर्शन से ही धुल चुके थे । उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से उन राजाओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैद में रहने का क्लेश बिल्कुल जाता रहा । वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणी से भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे ॥ ५ ॥

राजाओं ने कहा — शरणागतों के सारे दुःख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं । आपने जरासन्ध के कारागार से तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्र से भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसार में दुःख का कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरण में आये हैं । प्रभो ! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम मगधराज जरासन्ध का कोई दोष नहीं देखते । भगवन् ! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मी से च्युत कर दिये गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुख की — कल्याण की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । वह आपकी माया से मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियों को ही अचल मान बैठता हैं ॥ १० ॥ जैसे मूर्ख लोग मृगतृष्णा के जल को ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील माया को सत्य वस्तु मान लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! पहले हम लोग धन-सम्पत्ति के नशे में चूर होकर अंधे हो रहे थे । इस पृथ्वी को जीत लेने के लिये एक दूसरे की होड़ करते थे और अपनी ही प्रजा का नाश करते रहते थे । सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरता से भरा हुआ था और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूप से हमारे सामने खड़े हैं, इस बात की भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! काल की गति बड़ी गहन हैं । वह इतना बलवान् हैं कि किसी के टाले टलता नहीं । क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो हैं । अब उसने हमलोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है । आपकी अहेतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया । अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ॥ १३ ॥ विभो ! यह शरीर दिनों-दिन क्षीण होता जा रहा है । रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है । अब हमें इस शरीर से भोगे जानेवाले राज्य की अभिलाषा नहीं है । क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है । यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मरने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है । क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मति बनी रहे । चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े ॥ १५ ॥ प्रणाम करनेवालों के क्लेश का नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागत-रक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा ॥ १७ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — नरपतियो ! तुम लोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझमें तुमलोगों की निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी । यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ ॥ १८ ॥ नरपतियो ! तुमलोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है । तुमलोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिल्कुल ठीक हैं । क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छृङ्खल और मतवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥ हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये ॥ २० ॥ तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है । अतः उनमें आसक्ति मत करो । बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो ॥ २१ ॥ तुमलोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख दुःख, लाभ-हानि — जो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ॥ २२ ॥ देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन रहो, अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो । अपना मन भली-भाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त हो जाओगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भुवनेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये ॥ २४ ॥ परीक्षित् ! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ॥ २५ ॥ जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान् ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार राजोचित भोग दिलवाये ॥ २६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया । अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे ॥ २७ ॥ फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देश को भेज दिया ॥ २८ ॥ इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान् कष्ट से मुक्त किया । अब वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान् के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ॥ ३० ॥

परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले । उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शङ्ख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ ॥ ३१-३३ ॥ इन्द्रप्रस्थ निवासियों का मन उस शङ्ख-ध्वनि को सुनकर खिल उठा । उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ करने का सङ्कल्प एक प्रकार से पूरा हो गया ॥ ३३ ॥ भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था ॥ ३४ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूंदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ॥ ३५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे त्रिसप्ततित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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