May 1, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पचहत्तरवाँ अध्याय राजसूय यज्ञ की पूर्ति और दुर्योधन का अपमान राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ-महोत्सव को देखकर, जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए । परन्तु दुर्योधन को बड़ा दुःख, बड़ी पीड़ा हुई, यह बात मैंने आपके मुख से सुनी है । भगवन् ! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ॥ १-२ ॥ श्रीशुकदेवजी महाराज ने कहा — परीक्षित् ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे । उनके प्रेमबन्धन से बँधकर सभी बन्धु-बान्धवों ने राजसूय यज्ञ में विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ॥ ३ ॥ भीमसेन भोजनालय की देख-रेख करते थे । दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे । सहदेव अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे ॥ ४ ॥ अर्जुन गुरूजनों की सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे । देवी द्रौपदी भोजन परसने का काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीक के पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञ में विभिन्न कर्मों में नियुक्त थे । वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिर का प्रिय और हित हो ॥ ६-७ ॥ परीक्षित् ! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषों को तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवों का सुमधुर वाणी, विविध प्रकार की पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदि से भलीभांति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान् के चरणों में समा गया, तव धर्मराज युधिष्ठिर गङ्गाजी में यज्ञान्त-स्नान करने गये ॥ ८ ॥ उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरह के बाजे बजने लगे ॥ ९ ॥ नर्तकियाँ आनन्द से झूम-झूमकर नाचने लगीं । झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बांसुरी तथा झाँझ-मॅजीरे बजने लगे । इनकी तुमुल ध्वनि सारे आकाश में गूँज गयी ॥ १० ॥ सोने के हार पहने हुए यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकये और कोसल देश के नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओं से युक्त और खूब सजे-धजे गजराज, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महाराज युधिष्ठिर को आगे करके पृथ्वी को कंपाते हुए चल रहे थे ॥ ११-१२ ॥ यज्ञ के सदस्य, ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रों का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते हुए चले । देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाश से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ इन्द्रप्रस्थ नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पों के हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणों से सज-धजकर एक-दूसरे पर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगों देते, एक-दूसरे के शरीर में लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे ॥ १४ ॥ वाराङ्गनाएँ पुरुष को तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देती ओर पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओं से सराबोर कर देते ॥ १५ ॥ उस समय इस उत्सव को देखने के लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानों पर चढ़कर आकाश में बहुत-सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकों के द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थ की बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर-सुन्दर पालकियों पर सवार होकर आयी थीं । पाण्डवों के ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियों के ऊपर तरह-तरह के रंग आदि डाल रहे थे । इससे रानियों के मुख लजीली मुसकराट से खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी ॥ १६ ॥ उन लोगों के रंग आदि डालने से रानियों के वस्त्र भीग गये थे । इससे उनके शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग — वक्षःस्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे । वे भी पिचकारी और पात्रों में रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखा पर उड़ेल रहीं थीं । प्रेमभरी उत्सुकता के कारण उनकी चोटियों और जूड़ों के बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुथे हुए फूल गिरते जा रहे थे । परीक्षित् ! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्तःकरणवाले पुरुषों का चित्त चञ्चल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ॥ १७ ॥ चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियों के साथ सुन्दर घोड़ों से युक्त एवं सोने के हारों से सुसज्जित रथ पर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानों स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज [प्रयाज संज्ञा पुं॰ [सं॰] दर्शपौर्णमास यज्ञ के अंतर्गत एक अंग यज्ञ ।] आदि क्रियाओं के साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो ॥ १८ ॥ ऋत्विजों ने पत्नी-संयाज (एक प्रकार का यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नान सम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदी के साथ सम्राट् युधिष्ठिर को आचमन करवाया और इसके बाद गङ्गास्नान ॥ १९ ॥ उस समय मनुष्यों की दुन्दुभियों के साथ ही देवताओं की दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं । बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ २० ॥ महाराज युधिष्ठिर के स्नान कर लेने के बाद सभी वर्णों एवं आश्रमों के लोगों ने गङ्गाजी में स्नान किया; क्योंकि इस स्नान से बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्टिर ने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकार के आभूषणों से अपने को सजा लिया । फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदि को वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की ॥ २२ ॥ महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सबमें भगवान् के ही दर्शन होते । इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगों की बार-बार पूजा करते ॥ २३ ॥ उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पों के हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियों के बहुमूल्य हार पहनकर देवताओं के समान शोभायमान हो रहे थे । स्त्रियों के मुखों की भी दोनों कानों के कर्णफूल और घुँघराली अलकों से बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभाग में सोने की करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं ॥ २४ ॥ परीक्षित् ! राजसूय यज्ञ में जितने लोग आये थे — परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियों के साथ लोकपाल — इन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिर ने की । इसके बाद वे लोग धर्मराज से अनुमति लेकर अपने-अपने निवास-स्थान को चले गये ॥ २५-२६ ॥ परीक्षित् ! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ की प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे ॥ २७ ॥ इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से अपने हितैषी सुहृद् सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान् श्रीकृष्ण को भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उनके बिछोह की कल्पना से ही बड़ा दुःख होता था ॥ २८ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने यदुवंशी वीर साम्ब आदि को द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये उन्हें आनन्द देने के लिये वहीं रह गये ॥ २९ ॥ इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान् समुद्र को, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ॥ ३० ॥ एक दिन की बात है, भगवान् के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिर के अन्तःपुर की सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञ द्वारा प्राप्त महत्त्व को देखकर दुर्योधन का मन डाह से जलने लगा ॥ ३१ ॥ परीक्षित् ! पाण्डवों के लिये मय दानव ने जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति और सुरपतियों की विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थान पर शोभायमान था । उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियों की सेवा करती थीं । उस राजभवन में उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण की सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं । नितम्ब के भारी भार के कारण जब वे उस राजभवन में धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबों की झनकार चारों ओर फैल जाती थी । उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर की लालिमा से मोतियों के सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे । कुण्डलों की और घुँघराली अलकों की चञ्चलता से उनके मुख की शोभा और भी बढ़ जाती थी । यह सब देखकर दुर्योधन के हृदय में बड़ी जलन होती । परीक्षित् ! सच पूछो तो दुर्योधन का चित्त द्रौपदी में आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ॥ ३२-३३ ॥ एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनों के तारे परम हितैषी भगवान् श्रीकृष्ण के साथ मयदानव की बनायी सभा में स्वर्ण-सिंहासन पर देवराज इन्द्र के समान विराजमान थे । उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजी के ऐश्वर्य के समान थी । वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दुःशासन आदि भाइयों के साथ वहाँ आया । उसके सिर पर मुकुट, गले में माला और हाथ में तलवार थी । परीक्षित् ! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकों को झिड़क रहा था ॥ ३६ ॥ उस सभा में मयदानव ने ऐसी माया फैला रक्खी थी कि दुर्योधन ने उससे मोहित हो स्थल को जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जल को स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ॥ ३७ ॥ उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे । यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित् ! उन्हें इशारे से श्रीकृष्ण का अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ॥ ३८ ॥ इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोध से जलने लगा । अब वह अपना मुंह लटकाकर चुपचाप सभाभवन से निकलकर हस्तिनापुर चला गया । इस घटना को देखकर सत्पुरुषों में हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिर का मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया । परीक्षित् ! यह सब होने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण चुप थे । उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वी का भार उतर जाय; और सच पूछो, तो उन्हीं की दृष्टि से दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय-यज्ञ में दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ? जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ४० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पञ्चसप्ततित्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related