May 2, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सतहत्तरवाँ अध्याय शाल्व-उद्धार श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अब प्रद्युम्नजी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथि से कहा कि ‘मुझे वीर द्युमान् के पास फिर से ले चलो’ ॥ १ ॥ उस समय द्युमान् यादवसेना को तहस-नहस कर रहा था । प्रद्युम्नजी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करने से रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ॥ २ ॥ चार बाणों से उसके चार घोड़े और एक-एक बाण से सारथि, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ॥ ३ ॥ इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्व की सेना का संहार करने लगे । सौभ विमान पर चढ़े हुए सैनिकों की गरदने कट जातीं और वे समुद्र में गिर पड़ते ॥ ४ ॥ इस प्रकार यदुवंशी और शाल्व के सैनिक एक-दूसरे पर प्रहार करते रहे । बड़ा ही घमासान और भयङ्कर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनों तक चलता रहा ॥ ५ ॥ उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के बुलाने से इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे । राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपाल की भी मृत्यु हो गयी थी ॥ ६ ॥ वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बड़े भयङ्कर अपशकुन हो रहे हैं । तब उन्होंने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवों से अनुमति लेकर द्वारका के लिये प्रस्थान किया ॥ ७ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजी के साथ यहाँ चला आया । अब शिशुपाल के पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारका पर आक्रमण कर रहे होंगे’ ॥ ८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने द्वारका में पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवों पर बड़ी विपत्ति आयी है । तब उन्होंने बलरामजी को नगर की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्व को देखकर अपने सारथि दारुक से कहा — ॥ ९॥ ‘दारुक ! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्व के पास ले चलो । देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी हैं, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’ ॥ १० ॥ भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथ पर चढ़ गया और उसे शाल्व की ओर ले चला । भगवान् के रथ की ध्वजा गरुड़चिह्न से चिह्नित थी । उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान् को पहचान लिया ॥ ११ ॥ परीक्षित् ! अब तक शाल्व की सारी सेना प्रायः नष्ट हो चुकी थी । भगवान् श्रीकृष्ण को देखते ही उसने उनके सारथि पर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी । वह शक्ति बड़ा भयङ्कर शब्द करती हुई आकाश में बड़े वेग से चल रही थी और बहुत बड़े लूक के समान जान पड़ती थी । उसके प्रकाश से दिशाएँ चमक उठी थीं । उसे सारथि की ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ १२-१३ ॥ इसके बाद उन्होंने शाल्व को सोलह बाण मारे और उसके विमान को भी, जो आकाश में घूम रहा था, असंख्य बाणों से चलनी कर दिया — ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणों से आकाश को भर देता है ॥ १४ ॥ शाल्व ने भगवान् श्रीकृष्ण की बायीं भुजा में, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान् के हाथ से छूटकर गिर पड़ा । यह एक अद्भुत घटना घट गयी ॥ १५ ॥ जो लोग आकाश या पृथ्वी से यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ पुकार उठे । तब शाल्व ने गरजकर भगवान् श्रीकृष्ण से यों कहा — ॥ १६ ॥ मूढ़ ! तूने हम लोगों के देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा भरी सभा में, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था, तूने उसे मार डाला ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तू अपने को अजेय मानता है । यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणों से वहाँ पहुँचा दूंगा, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता ॥ १८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — ‘रे मन्द ! तू वृथा ही बहक रहा है । तुझे पता नहीं कि तेरे सिर पर मौत सवार हैं । शूरवीर व्यर्थ की बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’ ॥ १९ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयङ्कर गदा से शाल्व के जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया । इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा ॥ २० ॥ इधर जव गदा भगवान् के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया । इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान् के पास पहुंचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और बह रोता हुआ बोला — ‘मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है ॥ २१ ॥ उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! शाल्व तुम्हारे पिता को इसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशु को बाँधकर ले जाय !’ ॥ २२ ॥ यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये । उनके मुँह पर कुछ उदासी छा गयी । वे साधारण पुरुष के समान अत्यन्त करुणा और स्नेह से कहने लगे — ॥ २३ ॥ ‘अहो ! मेरे भाई बलरामजी कों तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता । वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं । शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है । फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् हैं’ ॥ २४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजी के समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्ण से कहने लगा — ॥ २५ ॥ ‘मूर्ख ! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप हैं, जिसके लिये तू जी रहा है । तेरे देखते-देखते में इसका काम तमाम करता हूँ । कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’ ॥ २६ ॥ मायावी शाल्व ने इस प्रकार भगवान् को फटकारकर मायारचित वसुदेव का सिर तलवार से काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमान पर जा बैठा ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं । वे यह घटना देखकर दो घड़ी के लिये अपने स्वजन वसुदेवजी के प्रति अत्यन्त प्रेम होने के कारण साधारण पुरुषों के समान शोक में डूब गये । परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्व की फैलायी हुई आसुरी माया ही हैं, जो उसे मय दानव ने बतलायी थी ॥ २८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में सचेत होकर देखा — न वहाँ दूत है और न पिता का वह शरीर; जैसे स्वप्न में एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो ! उधर देखा तो शाल्व विमान पर चढ़कर आकाश में विचर रहा है । तब वे उसका वध करने के लिये उद्यत हो गये ॥ ३९ ॥ प्रिय परीक्षित ! इस प्रकार की बात पुर्वापर का विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं । अवश्य ही वे इस बात को भूल जाते हैं कि श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा कहना उन्हीं के वचनों के विपरीत हैं ॥ ३० ॥ कहाँ अज्ञानियों में रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण — जिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है । (भला, उनमें वैसे भावों की सम्भावना ही कहाँ है ?) ॥ ३१ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्या का भली-भाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदि में आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञान को मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं । उन संतों के परम गतिस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में भला, मोह कैसे हो सकता हैं ? ॥ ३२ ॥ अब शाल्व भगवान् श्रीकृष्ण पर बड़े उत्साह और वेग से शस्त्रों की वर्षा करने लगा था । अमोघशक्ति भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अपने बाणों से शाल्व को घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिर की मणि को छिन्न-भिन्न कर दिया । साथ ही गदा की चोट से उसके विमान को भी जर्जर कर दिया ॥ ३३ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के हाथों से चलायी हुई गदा से वह विमान चूर-चूर होकर समुद्र में गिर पड़ा । गिरने के पहले ही शाल्व हाथ में गदा लेकर धरती पर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेग से भगवान् श्रीकृष्ण की ओर झपटा ॥ ३४ ॥ शाल्व को आक्रमण करते देख उन्होंने भाले से गदा के साथ उसका हाथ काट गिराया । फिर उसे मार डालने के लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया । उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्य के साथ उदयाचल शोभायमान हो ॥ ३५ ॥ भगवान श्रीकृष्ण ने उस चक्र से परम मायावी शाल्व का कुण्डल-किरीट-सहित सिर धड़ से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर का सिर काट डाला था । उस समय शाल्व सैनिक अत्यन्त दुःख से ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे ॥ ३६ ॥ परीक्षित् ! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदा के प्रहार से चूर-चूर हो गया, तब देवता लोग आकाश में दुन्दुभियाँ बजाने लगे । ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदि का बदला लेने के लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ॥ ३७ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सप्तसप्ततित्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related