श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ८५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पचासीवाँ अध्याय
श्रीभगवान् के द्वारा वसुदेवजी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकीजी के छः पुत्रों को लौटा लाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इसके बाद एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन प्रणाम करने के लिये माता-पिता के पास गये । प्रणाम कर लेने पर वसुदेवजी बड़े प्रेम से दोनों भाइयों का अभिनन्दन करके कहने लगे ॥ १ ॥ वसुदेवजी ने बड़े-बड़े ऋषियों के मुँह से भगवान् की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे । इससे उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान् हैं । इसलिये उन्होंने अपने पुत्रों को प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा — ॥ २ ॥ ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगीश्वर सङ्कर्षण ! तुम दोनों सनातन हो । मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत् के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३ ॥ इस जगत् के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो । इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है । यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है, होता है — वह सब तुम्हीं हो । इस जगत् में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुषरुप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्ही हो ॥ ४ ॥

इन्द्रियातीत ! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारों से रहित परमात्मन् ! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूप से प्रवेश भी किया है । तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूप में इसका पालन-पोषण कर रहे हो ॥ ५ ॥ क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदि में जो जगत् की वस्तुओं की सृष्टि करने की सामर्थ्य हैं, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है । क्योंकि तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र है । अतः उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं । शक्ति तो तुम्हारी ही है ॥ ६ ॥ प्रभो ! चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य की प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि की स्फुरणरूप से सता, पर्वतों की स्थिरता, पृथ्वी की साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुण — ये सब वास्तव में तुम्ही हो ॥ ७ ॥ परमेश्वर ! जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने की जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं । जल और उसका रस भी तुम्ही हो । प्रभो ! इन्द्रियशक्ति, अन्तःकरण की शक्ति, शरीर की शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना — ये सब वायु की शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ॥ ८ ॥

दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो । आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोट-शब्द तन्मात्रा या परा वाणी, नाद-पश्यन्ती, ओंकार-मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्ही हो ॥ ९ ॥ इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो । बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव की विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ॥ १० ॥ भूतों में उनका कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहङ्कार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवताओं में उनका कारण सात्विक अहङ्कार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी तुम्ही हो ॥ ११ ॥ भगवन् ! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में कारण (मृत्तिका) रूप ही हैं — उसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूप से अविनाशी तत्त्व हो । वास्तव में वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ॥ १२ ॥

प्रभो ! सत्व, रज, तम ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम) — महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुममें योगमाया के द्वारा कल्पित हैं ॥ १३ ॥ इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं है । जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारों में अनुगत जान पड़ते हो । कल्पना की निवृत्ति हो जाने पर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ॥ १४ ॥ यह जगत् सत्व, रज, तम — इन तीनों गुणों का प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं । इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्मा का सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फँसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते रहते हैं ॥ १५ ॥ परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि की सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ; किन्तु तुम्हारी माया के वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ॥ १६ ॥

प्रभो ! यह शरीर में हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवक स्वामी हो । पृथ्वी के भार-भूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है । यह बात तुमने मुझसे कहीं भी थी ॥ १८ ॥ इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलों की शरण में हूँ, क्योंकि वे ही शरणागतों के संसार-भय को मिटानेवाले हैं । अब इन्द्रियों की लोलुपता से भर पाया ! इसके कारण मैंने मृत्यु के पास इस शरीर में आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्र-बुद्धि ॥ १९ ॥ प्रभो ! तुमने प्रसव-गृह में ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादा की रक्षा करने के लिये प्रत्येक युग में तुम दोनों के द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ ।’ भगवन् ! तुम आकाश के समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो । वास्तव में तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो । तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमाया का रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्ति का ही गान करते रहते हैं ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! वसुदेवजी के ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे । उन्होंने विनय से झुककर मधुर वाणी से कहा ॥ २१ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — पिताजी ! हम तो आपके पुत्र ही हैं । हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया है । हम आपकी एक-एक बात युक्ति-युक्त मानते हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत् सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ पिताजी ! आत्मा तो एक ही है । परन्तु वह अपने में ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये हुए पञ्चभूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता हैं ॥ २४ ॥ जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी — ये पञ्चमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदि में प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तव में सत्तारूप से वे एक ही रहते हैं, वैसे ही आत्मा में भी उपाधियों के भेद से ही नानात्व की प्रतीति होती है । इसलिये जो मैं हूँ, वहीं सब हैं — इस दृष्टि से आपका कहना ठीक ही है ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर वसुदेवजी ने नानात्व-बुद्धि छोड़ दी; वे आनन्द में मग्न होकर वाणी से मौन और मन से निस्सङ्कल्प हो गये ॥ २६ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थी । वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थी कि श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया ॥ २७ ॥ अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गयीं, जिन्हें कंस ने मार डाला था । उनके स्मरण से देवकीजी का हृदय आतुर हो गया, नेत्रों से आँसू बहने लगे । उन्होंने बड़े ही करुणस्वर से श्रीकृष्ण और बलरामजी को सम्बोधित करके कहा ॥ २८ ॥

देवकीजी ने कहा — लोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणी के परे है । श्रीकृष्ण ! तुम योगेश्वरों के भी ईश्वर हो । मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियों के भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ॥ २९ ॥ यह भी मुझे निश्चत रूप से मालूम है कि जिन लोगों ने कालक्रम से अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लङ्घन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिये हीं तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो ॥ ३० ॥ विश्वात्मन् ! तुम्हारे पुरुषरूप अंश से उत्पन्न हुई माया से गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्र से जगत् की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है । आज मैं सर्वान्तःकरण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे । उनको गुरुदक्षिणा देने के लिये उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को यमपुरी से वापस ला दिया ॥ ३२ ॥ तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो । इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो । मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ॥ ३३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — प्रिय परीक्षित् ! माता देवकीजी की यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ने योगमाया का आश्रय लेकर सुतल लोक में प्रवेश किया ॥ ३४ ॥ जब दैत्यराज बलि ने देखा कि जगत् के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोक में पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शन के आनन्द में निमग्न हो गया । उन्होंने झटपट अपने कुटुम्ब के साथ आसन से उठकर भगवान् के चरणों में प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अत्यन्त आनन्द से भरकर दैत्यराज बलि ने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी को श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उस पर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिर पर धारण किया । परीक्षित् ! भगवान् के चरणों का जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ इसके बाद दैत्यराज बलि ने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृत के समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियों से उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदि को उनके चरणों में समर्पित कर दिया ॥ ३७ ॥

परीक्षित् ! दैत्यराज बलि बार-बार भगवान् के चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल और सिर पर रखने लगे, उनका हृदय प्रेम से विह्वल हो गया । नेत्रों से आनन्द के आँसू बहने लगे । रोम-रोम खिल उठा । अब वे गद्गद स्वर से भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

दैत्यराज बलि ने कहा — बलरामजी ! आप अनन्त हैं । आप इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं । सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सकल जगत् के निर्माता हैं । ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों के प्रवर्तक आप ही हैं । आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं । हम आप दोनों को बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवन् ! आप दोनों का दर्शन प्राणियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है । फिर भी आपकी कृपा से वह सुलभ हो जाता है । क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्यों को भी दर्शन दिया है ॥ ४० ॥ प्रभो ! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेम से भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते है; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है । इसलिये हमलोगों में से बहुतों ने दृढ़ वैरभाव से, कुछ ने भक्ति से और कुछ ने कामना से आपका स्मरण करके उस पद को प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ ४१-४३ ॥

योगेश्वरों के अधीश्वर ! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्रायः यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? ॥ ४४ ॥ इसलिये स्वामी ! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलों में लग जाय, जिसे किसी की अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थी के अँधेरे कुएँ से निकल जाऊँ । प्रभो ! इस प्रकार आपके उन चरणकमलों की, जो सारे जगत् के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ । यदि कभी किसी का सङ्ग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतों का ही ॥ ४५ ॥ प्रभो ! आप समस्त चराचर जगत् के नियन्त्ता और स्वामी हैं । आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइये, हमारे पापों का नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञा का पालन करता है, वह विधि-निषेध के बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — दैत्यराज ! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचि की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छः पुत्र उत्पन्न हुए थे । वे सभी देवता थे । वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्री से समागम करने के लिये उद्यत हैं, हँसने लगे ॥ ४७ ॥ इस परिहासरूप अपराध के कारण उन्हें ब्रह्माजी ने शाप दे दिया और वे असुर-योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए । अब योगमाया ने उन्हें वहाँ से लाकर देवकी के गर्भ में रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला । दैत्यराज ! माता देवकीजी अपने उन पुत्रों के लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ॥ ४८-४९ ॥ अतः हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिये इन्हें यहाँ से ले जायेंगे । इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जायेंगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जायेंगे ॥ ५० ॥ इनके छः नाम हैं — स्मर, उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग, क्षुद्रभृत् और घृणि । इन्हें मेरी कृपा से पुनः सद्गति प्राप्त होगी’ ॥ ५१ ॥

परीक्षित् ! इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये । दैत्यराज बलि ने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकों को लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकी को उनके पुत्र सौंप दिये ॥ ५२ ॥ उन बालकों को देखकर देवी देवकी के हृदय में वात्सल्य-स्नेह की बाढ़ आ गयी । उनके स्तनों से दूध बहने लगा । वे बार-बार उन्हें गोद में लेकर छाती से लगातीं और उनका सिर सूँघतीं ॥ ५३ ॥ पुत्रों के स्पर्श के आनन्द से सराबोर एवं आनन्दित देवकी ने उनको स्तनपान कराया । वे विष्णुभगवान् की उस माया से मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ॥ ५४ ॥ परीक्षित् ! देवकीजी के स्तनों का दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान् श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे ! उन बालकों ने वही अमृतमय दूध पिया । उस दूध के पीने से और भगवान् श्रीकृष्ण के अङ्ग का संस्पर्श होने से उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ॥ ५५ ॥ इसके बाद उन लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजी को नमस्कार किया । तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोक में चले गये ॥ ५६ ॥ परीक्षित् ! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये । उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्ण का ही कोई लीला-कौशल हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है । उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ॥ ५८ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! भगवान् श्रीकृष्ण की कीर्ति अमर हैं, अमृतमयी हैं । उनका चरित्र जगत् के समस्त पाप-तापों को मिटानेवाला तथा भक्तजनों के कर्ण-कुहरों में आनन्द-सुधा प्रवाहित करनेवाला है । इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी ने किया है । जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरों को सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान् में लग जाती है और वह उन्हीं के परम कल्याणस्वरूप धाम को प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पञ्चाशीतित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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