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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ८६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छियासीवाँ अध्याय
सुभद्राहरण और भगवान् का मिथिलापुरी में राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! मेरे दादा अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी की बहिन सुभद्राजी से, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया ? मैं यह जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्रा के लिये पृथ्वी पर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे । वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामा की पुत्री सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं । अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की लालसा जग आयी । वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुँचे ॥ २-३ ॥ अर्जुन सुभद्रा को प्राप्त करने के लिये वहाँ वर्षाकाल में चार महीने तक रहे । वहाँ पुरवासियों और बलरामजी ने उनका खूब सम्मान किया । उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ॥ ४ ॥

एक दिन बलरामजी ने आतिथ्य के लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये । त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुन को बलरामजी ने अत्यन्त श्रद्धा के साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया ॥ ५ ॥ अर्जुन ने भोजन के समय वहाँ विवाह योग्य परम सुन्दरी सुभद्रा को देखा । उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरों का मन हरनेवाला था । अर्जुन के नेत्र प्रेम से प्रफुल्लित हो गये । उनका मन उसे पाने की आकाङ्क्षा से क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे । उनके शरीर की गठन भाव-भङ्गी स्त्रियों का हृदय स्पर्श कर लेती थी । उन्हें देखकर सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया । वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवन से उनकी ओर देखने लगी । उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥ अब अर्जुन केवल उसी का चिन्तन करने लगे और इस बात का अवसर ढूँढने लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ । सुभद्रा को प्राप्त करने की उत्कट कामना से उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ८ ॥

एक बार सुभद्राजी देव-दर्शन के लिये रथ पर सवार होकर द्वारका-दुर्ग से बाहर निकलीं । उसी समय महारथी अर्जुन ने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्ण की अनुमति से सुभद्रा का हरण कर लिया ॥ ९ ॥ रथ पर सवार होकर वीर अर्जुन ने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकने के लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया । सुभद्रा के निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्रा को लेकर चल पड़े ॥ १० ॥ यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े । वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र । परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियों ने उनके पैर पकड़कर उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ॥ ११ ॥ इसके बाद बलरामजी ने प्रसन्न होकर वर-वधू के लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेज में भेजे ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! विदेह की राजधानी मिथिला में एक गृहस्थ ब्राह्मण थे । उनका नाम था श्रुतदेव । वे भगवान् श्रीकृष्ण के परम भक्त थे । वे एकमात्र भगवद्भक्ति से ही पूर्ण-मनोरथ, परम शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे ॥ १३ ॥ वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी किसी प्रकार का उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना निर्वाह कर लेते थे ॥ १४ ॥ प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाहभर के लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं । वे उतने से ही सन्तुष्ट भी थे और अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्मपालन में तत्पर रहते थे ॥ १५ ॥ प्रिय परीक्षित् ! उस देश के राजा भी, ब्राह्मण के समान ही भक्तिमान् थे । मैथिलवंश के उन प्रतिष्ठित नरपति का नाम था बहुलाश्व । उनमें अहङ्कार का लेश भी न था । श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे ॥ १६ ॥

एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मँगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया ॥ १७ ॥ भगवान् के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँ के नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती । पूजा करनेवालों को भगवान् ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहों के साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! उस यात्रा में आनर्त, धन्व, कुरु-जांगल, कङ्क, मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशों के नर-नारियों ने अपने नेत्ररूपी दोनों से भगवान् श्रीकृष्ण के उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवन से युक्त मुखारविन्द के मकरन्द-रस का पान किया ॥ २० ॥ त्रिलोकगुरु भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से उन लोगों की अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी । प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियों को अपनी दृष्टि से परम कल्याण और तत्त्वज्ञान का दान करते चल रहे थे । स्थान-स्थान पर मनुष्य और देवता भगवान् की उस कीर्ति का गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओं को उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करनेवाली है । इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देश में पहुँचे ॥ २१ ॥

परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियों के आनन्द की सीमा न रही । वे अपने हाथों में पूजा की विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये ॥ २२ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्द से खिल उठे । उन्होंने भगवान् को तथा उन मुनियों को, जिनका नाम केवल सुन रक्खा था, देखा न था — हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेव ने यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण हमलोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही पधारे हैं, उनके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया ॥ २४ ॥ बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनों ने ही एक साथ हाथ जोड़कर मुनि-मण्डली के सहित भगवान् श्रीकृष्ण को आतिथ्य ग्रहण करने के लिये निमन्त्रित किया ॥ ३५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों की प्रार्थना स्वीकार करके दोनों को ही प्रसन्न करने के लिये एक ही समय पृथक्-पृथक् रुप से दोनों के घर पधारे और यह बात एक दूसरे को मालूम न हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण मेरे घर के अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ॥ २६ ॥

विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे । उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान् श्रीकृष्ण और ऋषि-मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आराम से उन पर बैठ गये । उस समय बहुलाश्व की विचित्र दशा थी । प्रेम-भक्ति के उद्रेक से उनका हृदय भर आया था । नेत्रों में आँसू उमड़ रहे थे । उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियों के चरणों में नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्ब के साथ उनके चरणों का लोकपावन जल सिर पर धारण किया और फिर भगवान् एवं भगवत्स्वरूप ऋषियों को गन्ध, माला, वस्त्र, अलङ्कार, धूप, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ॥ २७-२९ ॥ जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकर बैठ गये और बड़े आनन्द से धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणी से भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥

राजा बहुलाश्व ने कहा — ‘प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है । हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं । इसी से आपने हमलोगों को दर्शन देकर कृतार्थ किया है ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलरामजी, अर्धाङ्गिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मा से भी बढ़कर प्रिय है । अपने उन वचनों को सत्य करने के लिये ही आपने हमलोगों को दर्शन दिया है ॥ ३२ ॥ भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेम-परवशता को जानकर भी आपके चरणकमलों का परित्याग कर सके ? प्रभो ! जिन्होंने जगत् की समस्त वस्तुओं का एवं शरीर आदि का भी मन से परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियों को आप अपने तक को भी दे डालते हैं ॥ ३३ ॥ आपने यदुवंश में अवतार लेकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े हुए मनुष्यों को उससे मुक्त करने के लिये जगत् में ऐसे विशुद्ध यश का विस्तार किया है, जो त्रिलोकी के पाप-ताप को शान्त करनेवाला है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्य की निधि हैं; सबके चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये आप सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म हैं । आपका ज्ञान अनन्त हैं । परम शान्ति का विस्तार करने के लिये आप ही नारायण ऋषि के रूप में तपस्या कर रहे हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥ एकरस अनन्त ! आप कुछ दिनों तक मुनिमण्डली के साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणों की धूल से इस निमि वंश को पवित्र कीजिये’ ॥ ३६ ॥

परीक्षित् ! सबके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्व की यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियों का कल्याण करते हुए कुछ दिनों तक वहीं रहे ॥ ३७ ॥

प्रिय परीक्षित् ! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डली के पधारने पर आनन्दमग्न हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियों को अपने घर आया देखकर आनन्द-विह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे ॥ ३८ ॥ श्रुतदेव ने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उन पर भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियों को बैठाया, स्वागत-भाषण आदि के द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान् और ऋषियों के चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियों को सींच दिया । इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे । वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे ॥ ४० ॥ तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खस से सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्न से सबकी आराधना की ॥ ४१ ॥ उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि मैं तो घर-गृहस्थी के अंधेरे कुएँ में गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ, मुझे भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियाँ का, जिनके चरणों की धूल ही समस्त तीर्थों को तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया ?’॥ ४२ ॥ जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आराम से बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुए । वे भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श करते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥

श्रुतदेव ने कहा — प्रभो ! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवों से परे पुरुषोत्तम है । मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है । आप तो तभी से सब लोगों से मिले हुए हैं, जब से आपने अपनी शक्तियों द्वारा इस जगत् की रचना करके आत्मसत्ता के रूप से इसमें प्रवेश किया हैं ॥ ४४ ॥ जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्था में अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत् की सृष्टि कर लेता हैं और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपों में अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपने में ही अपनी माया से जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपों से प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ जो लोग सर्वदा आपकी लीला-कथा का श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओं का अर्चन-वन्दन करते हैं और आपस में आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ४६ ॥ जिन लोगों का चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मों की वासना से बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदय में रहने पर भी आप उनसे बहुत दूर हैं । किन्तु जिन लोगों ने आपके गुणगान से अपने अन्तःकरण को सद्गुण-सम्पन्न बना लिया है, उनके लिये चित्त-वृत्तियों से अग्राह्य होने पर भी आप अत्यन्त निकट हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! जो लोग आत्मतत्त्व को जाननेवाले हैं, उनके आत्मा के रूप में ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदि को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्मा को प्राप्त होनेवाली मृत्यु के रूप में हैं । आप महत्त्व आदि कार्य-द्रव्य और प्रकृति रूप कारण के नियामक हैं — शासक हैं । आपको माया आपकी अपनी दृष्टि पर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरों की दृष्टि को ढक रखा है । आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ स्वयंप्रकाश प्रभो ! हम आपके सेवक हैं । ‘हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रों के द्वारा आपका दर्शन होने तक ही जीवों के क्लेश रहते हैं । आपके दर्शन में ही समस्त क्लेशों की परिसमाप्ति है ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! शरणागतभयहारी भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रुतदेव की प्रार्थना सुनकर अपने हाथ से उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा ॥ ५० ॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिय श्रुतदेव ! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही यहाँ पधारे हैं । ये अपने चरणकमलों की धूल से लोगों और लोकों को पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सबको पवित्र कर देते हैं । यहीं नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ श्रुतदेव ! जगत् में ब्राह्मण जन्म से ही सब प्राणियों से श्रेष्ठ हैं । यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना मेरी भक्ति से युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ॥ ५३ ॥ मुझे अपना यह चतुर्भुज रूप भी ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं हैं । क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ॥ ५४ ॥ दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्य-बुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मण का, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ॥ ५५ ॥ ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्धी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के-सब आत्मस्वरूप भगवान् के ही रूप हैं ॥ ५६ ॥ इसलिये श्रुतदेव ! तुम इन ब्रह्मर्षियों को मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धा से इनकी पूजा करो । यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से भी मेरी पूजा नहीं हो सकती ॥ ५७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान् श्रीकृष्ण और उन ब्रह्मर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये । राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की ॥ ५८ ॥ प्रिय परीक्षित् ! जैसे भक्त भगवान् की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान् भी भक्तों की भक्ति करते हैं । वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ॥ ५९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे षडशीतित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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