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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ८७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सत्तासीवाँ अध्याय
वेदस्तुति

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! ब्रह्म कार्य और कारण से सर्वथा परे है । सत्व, रज और तम — ये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं । मन और वाणी से सङ्केत रूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर समस्त श्रुतियों का विषय गुण ही है । (वे जिस विषय का वर्णन करती हैं उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढि का ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो उनकी पहुँच के परे है ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! (भगवान् सर्वशक्तिमान् और गुणों के निधान हैं । श्रुतियाँ स्पष्टतः सगुण का ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करने पर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता हैं । विचार करने के लिये ही) भगवान् ने जीवों के लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों की सृष्टि की है । इनके द्वारा वे स्वेच्छा से अर्थ, काम, धर्म अथवा मोक्ष का अर्जन कर सकते हैं । (प्राणों के द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा महावाक्य आदि का श्रवण, मन के द्वारा मनन और बुद्धि के द्वारा निश्चय करने पर श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है । इसलिये श्रुतियाँ सगुण का प्रतिपादन करने पर भी वस्तुतः निर्गुणपरक हैं) ॥ २ ॥ ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद् का यही स्वरूप हैं । इसे पूर्वजों के भी पूर्वज सनकादि ऋषियों ने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है । जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धन के कारण समस्त उपाधियों — अनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम-कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ इस विषय में मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ । उस गाथा के साथ स्वयं भगवान् नारायण का सम्बन्ध है । वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है ॥ ४ ॥

एक समय की बात है, भगवान् के प्यारे भक्त देवर्षि नारदजी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए सनातन-ऋषि भगवान् नारायण का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम गये ॥ ५ ॥ भगवान् नारायण मनुष्यों के अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम निःश्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति) के लिये इस भारतवर्ष में कल्प के प्रारम्भ से ही धर्म, ज्ञान और संयम के साथ महान् तपस्या कर रहे हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित् एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे । उस समय नारदजी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ ७ ॥ भगवान् नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारदजी को इनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोक निवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गयी थी ॥ ८ ॥

भगवान् नारायण ने कहा — नारदजी ! प्राचीन काल की बात है । एक बार जनलोक में वहाँ रहनेवाले ब्रह्मा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था ॥ ९ ॥ उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध-मूर्ति का दर्शन करने के लिये श्वेतद्वीप चले गये थे । उस समय वहाँ उस ब्रह्म के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषय में श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूप से लक्षित कराती हुई उसमें सो जाती हैं । उस ब्रह्मसत्र में यही प्रश्न उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ १० ॥ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार — ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं । उन लोगों की दृष्टि में शत्रु, मित्र और उदासीन एक-से हैं । फिर भी उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के इच्छुक बनकर बैठ गये ॥ ११ ॥

सनन्दनजी ने कहा — जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर सोते हुए सम्राट् को जगाने के लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट् के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत् को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों सहित सोये रहते हैं, तब प्रलय के अन्त में श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ॥ १२-१३ ॥

श्रुतियाँ कहती हैं — अजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता । आपकी जय हो, जय हो । प्रभो ! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियों को फँसानेवाली माया का नाश कर दीजिये । प्रभो ! इस गुणमयी माया ने दोष के लिये-जीवों के आनन्दादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बन्धन में डालने के लिये ही सत्त्वादि गुणों को ग्रहण किया है । जगत् में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं । इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती । (इस विषयमें यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही हम ही प्रमाण । यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किञ्चित् आपका वर्णन करने में समर्थ होती है ॥ १४ ॥

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियों के) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं । क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं । जैसे घट, शराव (मिट्टी प्याला—कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आपमें ही होती है । तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस-निविकार हैं । इसी से तो यह जगह आपमें उत्पन्न नहीं, प्रतीत हैं । इसलिये जैसे घट, शराव आदि का वर्णन भी मिट्टी का ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का वर्णन भी आपका ही वर्णन है । यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं । मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रक्खे ईंट, पत्थर या काठ पर होगा वह पृथ्वी पर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं । इसलिये हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है ॥ १५ ॥

भगवन् ! लोग सत्व, रज, तम — इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटी के स्वामी, उसको नचानेवाले हैं । इसीलिये विचारशील पुरुष आपकी लीला-कथा के अमृत-सागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं । क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के माया-मल को नष्ट करनेवाली जो है । पुरुषोत्तम ! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अन्तःकरण के राग-द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्न रहते हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप हैं, उन्होंने अपने पाप-तापों को सदा के लिये शान्त, भस्म कर दिया हैं इसके विषय में तो कहना ही क्या है ॥ १६ ॥

भगवन् ! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसमें है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना । महत्तत्त्व, अहङ्कार आदि ने आपके अनुग्रहसे-आपके उनमें प्रवेश करने पर ही इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय — इन पाँचों कोशों में पुरुषरूप से रहनेवाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं । आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अन्तिम अवधिरूप से आप विराजमान रहते हैं । इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होने पर भी आप असंग हीं हैं । क्योंकि वास्तव में जो कुछ वृत्तियों द्वारा अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणों से आप परे हैं । ‘नेति नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं । (इसलिये आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्य से वञ्चित है) ॥ १७ ॥

ऋषियों ने आपकी प्राप्ति के लिये अनेकों मार्ग माने हैं । उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक चक्र में अग्निरूप से आपकी उपासना करते हैं । अरुणवंश के ऋषि समस्त नाड़ियों के निकलने के स्थान हृदय में आपके परम सूक्ष्मस्वरूप दहर ब्रह्म की उपासना करते हैं । प्रभो ! हृदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध तक गयी हुई है । जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता ॥ १८ ॥

भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं । सदा-सर्वत्र सब रूपों में आप है ही, इसलिये कारणरूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों । साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूप से प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकड़ियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाण में या उत्तम-अधमरूप में प्रतीत होती हैं । इसलिये संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मों की दूकानदारी से, उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत् के झूठे रूपों में नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभाव से स्थित सत्यस्वरूप को साक्षात्कार करते हैं ॥ १९ ॥

प्रभो ! जीव जिन शरीरों में रहता है, वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य-कारणरूप आवरणों से वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरण की सत्ता ही नहीं हैं । तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते है कि समस्त शक्तियों को धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है । स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं । इसी से बुद्धिमान् पुरुष जीव के वास्तविक स्वरूप पर विचार करके परम विश्वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं । क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पणस्थान और मोक्षस्वरूप हैं ॥ २० ॥ भगवन् ! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है । जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं । कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते–स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है । वे आपके चरण-कमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं ॥ २१ ॥

प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता हैं, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है । आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिये तैयार भी रहते हैं । इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव शरीर को पाकर भी लोग सख्य-भाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं । भला, यह कितने कष्ट की बात है ! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है ॥ २२ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा हृदय में आपकी उपासना करते हैं । परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं । क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं । कहाँ तक कहें, भगवन् ! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्दरस पान करती रहती हैं । क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं । आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है ॥ २३ ॥

भगवन् ! आप अनादि और अनन्त हैं । जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है । स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं । जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके । क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत् । इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते । उस समय कुछ भी नहीं रहता । यहाँ तक कि शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं । (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।) ॥ २४ ॥ प्रभो ! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है । दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप व्यवहार को सत्य मानते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रम-मूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं । पुरुष त्रिगुणमय है —इस प्रकार का भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं । इसलिये ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है ॥ २५ ॥

यह त्रिगुणात्मक जगत् मन की कल्पनामात्र है । केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत् से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है । इस प्रकार वास्तव में असत् होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है । इसलिये भोक्ता, भोम्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं । सोने से बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उनको इस रूप में जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता हैं कि यह भी सोना है । इसी प्रकार यह जगत् आत्मा में ही कल्पित, आत्मा से ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं ॥ २६ ॥ भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं । इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते है — जगत् के बन्धन से छुड़ा देते हैं । ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है ॥ २७ ॥

प्रभो ! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणों से — चिन्तन, कर्म आदि के साधनों से सर्वथा रहित हैं । फिर भी आप समस्त अन्तःकरण और बाह्य करणों की शक्तियों से सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं । आप स्वतःसिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करने के लिये आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है । जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट् को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं । वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं ॥ २८ ॥ नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षणमात्र से — सङ्कल्पमात्र से माया के साथ क्रीडा करते हैं, तब आपका सङ्केत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म — संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है । प्रभो ! आप परम दयालु हैं । आकाश के समान सबमें सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया । वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं हैं । आपमें कार्य-कारणरूप प्रपञ्च का अभाव होने से बाह्य दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते है; परन्तु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं ॥ २९ ॥

भगवन् ! आप नित्य एकरस हैं । यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायेंगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक — यह बात बन हीं नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते । उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हो । इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है । इसलिये आप उनमें कारणरूप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं । वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित है । परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है । क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं । और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिये उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है । अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे है ॥ ३० ॥ स्वामिन् ! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं । अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप — जो आप हैं — कभी वृत्तियों के अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता । तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती है । प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक में दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं । अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधि-रहित आपमें समा जाते हैं । (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है । उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्वव्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है) ॥ ३१ ॥

भगवन् ! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं । परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ानेवाले हैं । यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा — इन तीन भागों वाला काल-चक्र आपका भ्रू-विलास-मात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते । जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्युरूप संसार का भय कैसे हो सकता है ? ॥ ३२ ॥ अजन्मा प्रभो ! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छृङ्खल एवं अत्यन्त चञ्चल मन-तुरंग को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते । उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता हैं । उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करनेवाले व्यापारियों की होती है । (तात्पर्य यह कि जो मन को वश में करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधार-गुरु की अनिवार्य आवश्यकता हैं) ॥ ३३ ॥

भगवन् ! आप अखण्ड आनन्दस्वरूप और शरणागतों के आत्मा हैं । आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है ? जो लोग इस सत्य सिद्धान्त को न जानकर स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से होनेवाले सुखों में ही रम रहे हैं, उन्हें संसार में भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके । क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जानेवाली हैं । और तो क्या, वे स्वरूप से ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं ॥ ३४ ॥ भगवन् ! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम पवित्र और सबको पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं । क्योंकि उनके हृदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिये नष्ट कर देनेवाला है । भगवन् ! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं । जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं — आपमें मन लगा देते हैं — वे उन देह-गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीव के विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणों का नाश करनेवाले हैं । वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं ॥ ३५ ॥

भगवन् ! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत् भी सत् ही है — यह बात युक्तिसङ्गत नहीं है । क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्योतक है । यदि केवल भेद का निषेध करने के लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होने पर भी वे एक दूसरे से भिन्न हैं । इस प्रकार कार्य-कारण की एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती । यदि कारण-शब्द से निमित-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय — जैसे कुण्डल का सोना — तों भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती है । जैसे रस्सी में साँप । यहाँ उपादान-कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है । यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होनेवाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या का-भ्रम का मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत् की उत्पत्ति हुई है । इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होनेवाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तु में अविद्या के संयोग से प्रतीत होनेवाला नाम-रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है । यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिये ही जगत् की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है । यह भ्रम व्यावहारिक जगत् में माने हुए काल की दृष्टि से अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्व भ्रम से प्रेरित होकर अन्धपरम्परा से इसे मानते चले आ रहे हैं । ऐसी स्थिति में कर्मफल को सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगों को भ्रम में डालती हैं, जो कर्म में जड हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफल की नित्यता बतलाने में नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मों में लगाने में है ॥ ३६ ॥

भगवन् ! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है । इससे हम श्रुतियाँ इस जगत् का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र और सोने में कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं । वैसे ही परमात्मा में वर्णित जगत् नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है । इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं ॥ ३७ ॥ भगवन् ! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है । अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है । परन्तु प्रभो ! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है वैसे ही आप माया-अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं । इससे आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं । अणिमा आदि अष्ट-सिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है । इससे आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है ॥ ३८ ॥

भगवन् ! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने हृदय की विषय-वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकों के लिये आप हृदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गले में मणि पहने हुए हो, परन्तु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढ़ता फिरे इधर-उधर । जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं, विषयों से विरक्त नहीं होते, उन्हें जीक्नभर और जीवन के बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है । क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं, एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लङ्घन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है ॥ ३९ ॥

भगवन् ! आपके वास्तविक स्वरूप को जाननेवाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप-कर्मों के फल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है । उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं । क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिये हैं । उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता । जिसे आपके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ हैं, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणों का गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय में बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुणगणक निवासस्थान प्रभो ! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दुःखों और विधि-निषेधों से अतीत हो जाता है । क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं । (परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों को छोड़कर और सभी शास्त्र बन्धन में हैं तथा वे उसका उल्लङ्घन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं) ॥ ४० ॥

भगवन् ! स्वर्गादि लोकों के अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह — आपका पार न पा सके; और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते । क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे ? प्रभो ! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आपमें काल के वेग से अपने से उत्तरोत्तर दस-गुने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं । तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले । हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, अपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती है ॥ ४१ ॥

भगवान् नारायण ने कहा — देवर्षे ! इस प्रकार सनकादि ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म की एकता बतलानेवाला उपदेश सुनकर आत्मस्वरूप को जाना और नित्य सिद्ध होने पर भी इस उपदेश से कृतकृत्य-से होकर उन लोगों ने सनन्दन की पूजा की ॥ ४२ ॥ नारद ! सनकादि ऋषि सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे, अतएव वे सबके पूर्वज हैं । उन आकाशगामी महात्माओं ने इस प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदों का रस निचोड़ लिया है, यह सबका सार-सर्वस्व हैं ॥ ४३ ॥ देवर्षे ! तुम भी उन्हीं के समान ब्रह्मा के मानस-पुत्र हो — उनकी ज्ञान-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो । तुम भी श्रद्धा के साथ इस ब्रह्मात्म-विद्या को धारण करो और स्वच्छन्द भाव से पृथ्वी में विचरण करो । यह विद्या मनुष्यों की समस्त वासनाओं को भस्म कर देनेवाली हैं ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और नैष्टिक ब्रह्मचारी हैं । वे जो कुछ सुनते हैं, उन्हें उसकी धारणा हो जाती है । भगवान् नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया, तब उन्होंने बड़ी श्रद्धा से उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा ॥ ४५ ॥

देवर्षि नारद ने कहा — भगवन् ! आप सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं । आपकी कीर्ति परम पवित्र है । आप समस्त प्राणियों के परम कल्याण-मोक्ष के लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४६ ॥

परीक्षित् ! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान् नारायण को और उनके शिष्यों को नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायन के आश्रम पर गये ॥ ४७ ॥ भगवान् वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया । वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान् नारायण के मुँह से सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजी को सुना दिया ॥ ४८ ॥ राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणी से अगोचर और समस्त प्राकृत गुण से रहित परब्रह्म परमात्मा का वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है ? यही तो तुम्हारा प्रश्न था ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! भगवान् ही इस विश्व का सङ्कल्प करते हैं तथा उसके आदि, मध्य और अन्त में स्थित रहते हैं । वे प्रकृति और जीव दोनों के स्वामी हैं । उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीव के साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरों का निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं । जैसे गाढ़ निद्रा — सुषुप्ति में मग्न पुरुष अपने शरीर का अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान् को पाकर यह जीव माया से मुक्त हो जाता है । भगवान् ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत् के कारण माया अथवा प्रकृति का रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है । वे ही वास्तव में अभय-स्थान हैं । उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ॥ ५० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सप्ताशीतित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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