श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ८९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नवासीवाँ अध्याय
भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा भगवान् का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! एक बार सरस्वती नदी के पावन तट पर यज्ञ प्रारम्भ करने के लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे । उन लोगों में इस विषय पर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णु में सबसे बड़ा कौन हैं ? ॥ १ ॥ परीक्षित् ! उन लोगों ने यह बात जानने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रह्मा के पुत्र भृगुजी को उनके पास भेजा । महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजी की सभा में गये ॥ २ ॥ उन्होंने ब्रह्माजी के धैर्य आदि की परीक्षा करने के लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की । इस पर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेज से दहक रहे हैं । उन्हें क्रोध आ गया ॥ ३ ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजी ने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मन में उठे हुए क्रोध को भीतर-ही-भीतर विवेक-बुद्धि से दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई —अरणि मन्थन से उत्पन्न अग्नि को जल से बुझा दे ॥ ४ ॥

वहाँ से महर्षि भृगु कैलास में गये । देवाधिदेव भगवान् शङ्कर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से खड़े होकर उनका आलिङ्गन करने के लिये भुजाएँ फैला दीं ॥ ५ ॥ परन्तु महर्षि भृगु ने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा — ‘तुम लोक और वेद की मर्यादा का उल्लङ्घन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता ।’ भृगुजी की यह बात सुनकर भगवान् शङ्कर क्रोध के मारे तिलमिला उठे । उनकी आँखें चढ़ गयी । उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगु को मारना चाहा ॥ ६ ॥ परन्तु उसी समय भगवती सती ने उनके चरणों पर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया । अब महर्षि भृगुजी भगवान् विष्णु के निवासस्थान वैकुण्ठ में गये ॥ ७ ॥ उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी की गोद में अपना सिर रखकर लेटे हुए थे । भृगुजी ने जाकर उनके वक्षःस्थल पर एक लात कसकर जमा दी । भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजी के साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्या से नीचे उतरकर मुनि को सिर झुकाया, प्रणाम किया । भगवान् ने कहा — ‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है, आप भले पधारे । इस आसन पर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये । प्रभो ! मुझे आपके शुभागमन का पता न था । इससे मैं आपकी अगवानी न कर सका । मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ८-९ ॥ महामुने ! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं ।’ यों कहकर भृगुजी के चरणों को भगवान् अपने हाथों से सहलाने लगे ॥ १० ॥ और बोले — ‘महर्षे ! आपके चरणों का जल तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाला है । आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालों को पवित्र कीजिये ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरे सारे पाप धुल गये । आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय हो गया । अब आपके चरणों से चिह्नित मेरे वक्षःस्थल पर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’ ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं —
जब भगवान् ने अत्यन्त गम्भीर वाणी से इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये । भक्ति के उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखों में आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! भृगुजी वहाँ से लौटकर ब्रह्मवादी मुनियों के सत्सङ्ग में आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान् के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ॥ १४ ॥ भृगुजी का अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया । तबसे वे भगवान् विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभय के उद्गमस्थान हैं ॥ १५ ॥ भगवान् विष्णु से ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकार के ऐश्वर्य और चित्त को शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियों के वे ही एकमात्र परम गति हैं । ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ॥ १७ ॥ उनकी प्रिय मूर्ति हैं सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण । निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं ॥ १८ ॥ भगवान् की गुणमयी माया ने राक्षस, असुर और देवता — उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं । इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्ति का साधन है । वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थस्वरूप हैं ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! सरस्वतीतट के ऋषियों ने अपने लिये नहीं, मनुष्यों का संशय मिटाने के लिये ही ऐसी युक्ति रची थी । पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! भगवान् पुरुषोत्तम की यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म-मृत्युरूप संसार के भय को मिटानेवाली है । यह व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी के मुखारविन्द से निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है । इस संसार के लंबे पथ का जो बटोही अपने कानों के दोनों से इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत् में इधर-उधर भटकने से होती है, दूर हो जाती है ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में किसी ब्राह्मणी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वी को स्पर्श होते हीं मर गया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण अपने बालक का मृत शरीर लेकर राजमहल के द्वार पर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुखी मन से विलाप करता हुआ यह कहने लगा — ॥ २३ ॥ ‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजा के कर्मदोष से ही मेरे बालक की मृत्यु हुई है ॥ २४ ॥ जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती हैं और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ॥ २५ ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के भी पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राह्मण लड़के की लाश राजमहल के दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया ॥ २६ ॥ नवे बालक के मरने पर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान् श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे । उन्होंने ब्राह्मण की बात सुनकर उससे कहा — ॥ २७ ॥ ‘ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारका में कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालन का परित्याग करके किसी यज्ञ में बैठे हुए हैं !॥ २८ ॥ जिनके राज्य में धन, स्त्री अथवा पुत्रों से वियुक्त होकर ब्राह्मण दुखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रिय के वेष में पेट पालनेवाले नट हैं । उनका जीवन व्यर्थ है ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रों की मृत्यु से दीन हो रहे हैं । मैं आपकी सन्तान की रक्षा करूँगा । यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका, तो आग में कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा’ ॥ ३० ॥

ब्राह्मण ने कहा — अर्जुन ! यहाँ बलरामजी, भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकों की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, इन जगदीश्वरों के लिये भी यह काम कठिन हो रहा है, तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है । हम तुम्हारी इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते ॥ ३१-३२ ॥

अर्जुन ने कहा — ब्रह्मन् ! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ । मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुष का तिरस्कार मत कीजिये । आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रम से भगवान् शङ्कर को सन्तुष्ट कर चुका हूँ । भगवन् ! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्ध में साक्षात् मृत्यु को भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित् ! जब अर्जुन ने उस ब्राह्मण को इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगों से उनके बल-पौरुष का बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नता से अपने घर लौट गया ॥ ३५ ॥ प्रसव का समय निकट आने पर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुन के पास आया और कहने लगा — ‘इस बार तुम मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लो’ ॥ ३६ ॥ यह सुनकर अर्जुन ने शुद्ध जल से आचमन किया, तथा भगवान् शङ्कर को नमस्कार किया । फिर दिव्य अस्त्र का स्मरण किया और गाण्डीव धनुष पर डोरी चढाकर उसे हाथ में ले लिया ॥ ३७ ॥ अर्जुन ने बाणों को अनेक प्रकार के अस्त्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके प्रसवगृह को चारों ओर से घेर दिया । इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृह के ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणों का एक पिंजड़ा-सा बना दिया ॥ ३८ ॥ इसके बाद ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था । परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाश में अन्तर्धान हो गया ॥ ३९ ॥ अब वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्ण के सामने ही अर्जुन की निन्दा करने लगा । वह बोला — ‘मेरी मुर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसक की डींग-भरी बातों पर विश्वास कर लिया ॥ ४० ॥ भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान् श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करने में और कौन समर्थ है ? ॥ ४१ ॥ मिथ्यावादी अर्जुन को धिक्कार हैं ! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुन के धनुष को धिकार है !! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो ! यह मूढ़तावश उस बालक को लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्ध ने हमसे अलग कर दिया है ॥ ४२ ॥

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबल से तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ भगवान् यमराज निवास करते हैं ॥ ४३ ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला । फिर वे शस्त्र लेकर क्रमशः इन्द्र, अग्नि, निऋति, सोम, वायु और वरुण आदि की पुरियों में, अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्ग से ऊपर के महर्लोकादि में एवं अन्यान्य स्थानों में गये ॥ ४४ ॥ परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मण का बालक न मिला । उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी । अब उन्होंने अग्नि में प्रवेश करने का विचार किया । परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा — ॥ ४५ ॥ ‘भाई अर्जुन ! तुम अपने-आप अपना तिरस्कार मत करो । मैं तुम्हें ब्राह्मण के सब बालक अभी दिखाये देता हूँ । आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगों की निर्मल कीर्ति की स्थापना करेंगे ॥ ४६ ॥

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुन के साथ अपने दिव्य रथ पर सवार हुए और पश्चिम दिशा को प्रस्थान किया ॥ ४७ ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतों वाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे । उन्हें कुछ सूझता ही न था ॥ ४९ ॥ योगेश्वरों के भी परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने घोड़ों की यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी चक्र को आगे चलने की आज्ञा दी ॥ ५० ॥ सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेज से स्वयं भगवान् के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकार को चीरता हुआ मन के समान तीव्र गति से आगे-आगे चला । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान् राम का बाण धनुष से छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो ॥ ५१ ॥ इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकार की अन्तिम सीमा पर पहुँचा । उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी । उसे देखकर अर्जुन की आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ॥ ५२ ॥

इसके बाद भगवान् के रथ ने दिव्य जलराशि में प्रवेश किया । बड़ी तेज आँधी चलने के कारण उस जल में बड़ी-बड़ी तरङ्गे उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं । वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था । उसमें मणियों के सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ॥ ५३ ॥ उसी महल में भगवान् शेषजी विराजमान थे । उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था । उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फण पर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रहीं थीं । प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयङ्कर थे । उनका सम्पूर्ण शरीर कैलास के समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंग की थी ॥ ५४ ॥ परीक्षित् ! अर्जुन ने देखा कि शेषभगवान् की सुखमयी शय्या पर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान् विराजमान हैं । उनके शरीर की कान्ति वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल हैं । अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं । मुख पर प्रसन्नता खेल रही हैं और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं ॥ ५५ ॥ बहुमूल्य मणियों से जटित मुकुट और कुण्डलों की कान्ति से सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं । लंबी-लंबी सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गले में कौस्तुभ मणि है; वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है और घुटनों तक वनमाला लटक रही है ॥ ५६ ॥ अर्जुन ने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा — ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालों के अधीश्वर भगवान् की सेवा कर रही हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान् को प्रणाम किया । अर्जुन उनके दर्शन से कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्ण के बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये । अब ब्रह्मादि लोकपालों स्वामी भूमा पुरुष ने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणी से कहा — ॥ ५८ ॥

‘श्रीकृष्ण ! और अर्जुन ! मैंने तुम दोनों को देखने के लिये ही ब्राह्मण के बालक अपने पास मंगा लिये थे । तुम दोनों ने धर्म की रक्षा के लिये मेरी कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वी के भाररूप दैत्यों का संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ ५९ ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो । यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत् की स्थिति और लोकसंग्रह के लिये धर्म का आचरण करो ॥ ६० ॥

जब भगवान् भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगों ने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्द के साथ ब्राह्मण-बालक को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारका में लौट आये । ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे । उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी । उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उनके पिता को सौंप दिया ॥ ६१-६२ ॥ भगवान् विष्णु के उस परमधाम को देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा न रही । उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष हैं, वह सब भगवान् श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है ॥ ६३ ॥

परीक्षित ! भगवान् ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरता से परिपूर्ण लीलाएँ कीं । लोकदृष्टि में साधारण लोगों के समान सांसारिक विषयों का भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओं के समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ॥ ६४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने आदर्श महापुरुषों का-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही जैसे इन्द्र प्रजा के लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ ६५ ॥ उन्होंने बहुत-से अधम राजाओं को स्वयं मार डाला और बहुतों को अर्जुन आदि के द्वारा मरवा डाला । इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वी में धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ॥ ६६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे एकोननवतित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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