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श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ९०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नब्बेवाँ अध्याय
भगवान् श्रीकृष्ण के लीला-विहार का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! द्वारकानगरी की छटा अलौकिक थी । उसकी सड़कें मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथों की भीड़ से सदा सर्वदा भरी रहती थी । जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं । पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं । उनपर बैठकर भौरे गुनगुना रहे हैं और तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे हैं । वह नगरी सब प्रकार की सम्पत्तियों से भरपूर थी । जगत् के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करने में अपना सौभाग्य मानते थे । वहाँ की स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषा से विभूषित थीं और उनके अङ्ग-अङ्ग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी । वे जब अपने महलों में गेंद आदि के खेल खेलती और उनका कोई अङ्ग कभी दीख़ जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है । लक्ष्मीपति भगवान् की यही अपनी नगरी द्वारका थी । इसमें वे निवास करते थे । भगवान् श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राणवल्लभ थे । उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न थे । जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ॥ १-५ ॥

सभी पत्नियों के महलों में सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे । उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के पराग से मँहकता रहता था । उनमें झुंड-के-झुड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे । भगवान् श्रीकृष्ण उन जलाशयों में तथा कभी-कभी नदियों के जल में भी प्रवेश कर अपनी पत्नियों के साथ जल-विहार करते थे । भगवान् के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लेती, आलिङ्गन करती, तब भगवान् के श्रीअङ्गों में उनके वक्षःस्थल की केसर लग जाती थी ॥ ६-७ ॥ उस समय गन्धर्व उनके यश का गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्द से मृदङ्ग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ॥ ८ ॥

भगवान की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियों से उन्हें भिगो देती थीं । वे भी उनको तर कर देते । इस प्रकार भगवान् अपनी पत्नियों के साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियों के साथ विहार कर रहे हों ॥ ९ ॥ उस समय भगवान् की पत्नियों के वक्षःस्थल और जंघा आदि अङ्ग वस्त्रों के भीग जाने के कारण उनमें से झलकने लगते । उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जुड़ों में से गुँथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेने के लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहाने अपने प्रियतम का आलिङ्गन कर लेतीं । उनके स्पर्श से पत्नियों के हृदय में प्रेम-भाव की अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता । ऐसे अवसरों पर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती ॥ १० ॥ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण की वनमाला उन रानियों के वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर के रंग से रंग जाती । विहार में अत्यन्त मग्न हो जाने के कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भाव से लहराने लगती । वे अपनी रानियों को बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं । भगवान् श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीडा कर रहा हो ॥ ११ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करने के बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियों को दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते । उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिङ्गन आदि से रानियों की चित्तवृत्ति उन्हीं की ओर खिंची रहती । उन्हें और किसी बात का स्मरण ही न होता ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! रानियों के जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ही थे । वे कमलनयन श्यामसुन्दर के चिन्तन में ही इतनी मग्न हो जाती कि कई देर तक तो चुप हो रहती और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं । कभी-कभी तो भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरह का अनुभव करने लगतीं । और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं । मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ॥ १४ ॥

रानियाँ कहती — अरी कुररी ! अब तो बड़ी रात हो गयी है । संसार में सब ओर सन्नाटा छा गया है । देख, इस समय स्वयं भगवान अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती ? तू इस तरह रात-रात भर जगकर विलाप क्यों कर रही है ? सखी ! कहीं कमलनयन भगवान् के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवन से तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है ? ॥ १५ ॥

अरी चकवी ! तूने रात के समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं ? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है ? हाय-हाय ! तब तो तू बड़ी दुःखिनी है । परन्तु हो-न-हो तेरे हृदय में भी हमारे ही समान भगवान् की दासी होने का भाव जग गया है । क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई पुष्पों की माला अपनी चोटियों में धारण करना चाहती है ? ॥ १६ ॥

अहो समुद्र ! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो । तुम्हें नींद नहीं आती क्या ? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहने का रोग लग गया है । परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं । क्या इसी से तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधि के शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है ? ॥ १७ ॥

चन्द्रदेव ! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है । इसी से तुम इतने क्षीण हो रहे हो ! अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणों से अँधेरा भी नहीं हटा सकते ! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्याम-सुन्दर की मीठी-मीठी रहस्य की बातें भूल जाने के कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है ? क्या उसी की चिन्ता से तुम मौन हो रहे हो ? ॥ १८ ॥

मलयानिल ! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदय में काम को सञ्चार कर रहा है ? अरे तू नहीं जानता क्या ? भगवान् की तिरछी चितवन से हमारा हृदय तो पहले से ही घायल हो गया है ॥ १९ ॥

श्रीमन् मेघ ! तुम्हारे शरीर का सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है । अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान् के परम प्यारे हो । तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाश में बँधकर उनका ध्यान कर रहे हों ! देखो-देखो ! तुम्हारा हृदय चिन्ता से भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो ! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसू की धारा बहा रहे हो । श्यामघन ! सचमुच घनश्याम से नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ॥ २० ॥

री कोयल ! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राण-प्यारे के समान ही मधुर स्वर से तू बोलती है । सचमुच तेरी बोली में सुधा घोली हुई है, जो प्यारे के विरह से मरे हुए प्रेमियों को जिलानेवाली है । तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करे ? ॥ २१ ॥

प्रिय पर्वत ! तुम तो बड़े उदार विचार के हो । तुमने ही पृथ्वी को भी धारण कर रखा है । न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो । जान पड़ता हैं कि किसी बड़ी बात की चिन्ता में मग्न हो रहे हो । ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं । तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनों के समान बहुत-से शिखरों पर मैं भी भगवान् श्यामसुन्दर के चरणकमल धारण करूँ ॥ २२ ॥

समुद्रपत्नी नदियो ! यह ग्रीष्म ऋतु है । तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं । अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलों का सौन्दर्य नहीं दीखता । तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो । जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघों के द्वारा अपने प्रियतम समुद्र का जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो ॥ २३ ॥

हंस ! आओ, आओ ! भले आये, स्वागत है । आसन पर बैठो; लो, दूध पियो । प्रिय हंस ! श्यामसुन्दर की कोई बात तो सुनाओ । हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो । किसी के वश में न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न ? अरे भाई ! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर हैं, क्षणभङ्गुर है । एक बात तो बतलाओं, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो । क्या अब उन्हें यह बात याद है ? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं । जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें ? क्षुद्र के दूत ! हम उनके पास नहीं जातीं । क्या कहा ? वे हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा ! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मी को साथ न ले आना । तब क्या वे लक्ष्मी को छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहते ? यह कैसी बात है ? क्या स्त्रियों में लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान् से अनन्य प्रेम है ? क्या हमसे कोई एक भी वैसी नहीं है ? ॥ २४ ॥

परीक्षित् ! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण में ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं । इसी से उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ २५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ अनेकों प्रकार से अनेकों गीतों द्वारा गान की गयी हैं । वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुनने मात्र से स्त्रियों का मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है । फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रों से देखती थीं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ २६ ॥ जिन बड़भागिनी स्त्रियों ने जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर परम प्रेम से उनके चरणकमलों को सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरह से उनकी सेवा की, उनकी तपस्या का वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है ॥ २७ ॥

परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं । उन्होंने वेदोक्त धर्म का बार-बार आचरण करके लोगों को यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम–साधन का स्थान है ॥ २८ ॥ इसीलिये वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्म का आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे । परीक्षित् ! मैं तुमसे कह ही चुका हैं कि उनकी रानियों की संख्या थी सोलह हजार एक सौ आठ ॥ २९ ॥ उन श्रेष्ठ स्त्रियों में से रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रों का तो मैं पहले ही क्रम से वर्णन कर चुका हूँ ॥ ३० ॥ उनके अतिरिक्त भगवान् श्रीकृष्ण की और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येक के दस-दस पुत्र उत्पन्न किये । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं ॥ ३१ ॥

भगवान् के परम पराक्रमी पुत्रों में अठारह तो महारथीं थे, जिनका यश सारे जगत् में फैला हुआ था । उनके नाम मुझसे सुनो ॥ ३२ ॥ प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध ॥ ३३-३४ ॥ राजेन्द्र ! भगवान् श्रीकृष्ण के इन पुत्रों में भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नजी थे । वे सभी गुणों में अपने पिता के समान ही थे ॥ ३५ ॥ महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मी की कन्या से अपना विवाह किया था । उसी के गर्भ से अनिरुद्धजी का जन्म हुआ । उनमें दस हजार हाथियों का बल था ॥ ३६ ॥ रुक्मी के दौहित्र अनिरुद्धजी ने अपने नाना की पोती से विवाह किया । उसके गर्भ से वज्र का जन्म हुआ । ब्राह्मणों के शाप से पैदा हुए मूसल के द्वारा यदुवंश का नाश हो जाने पर एकमात्र वे ही बच रहे थे ॥ ३७ ॥ वज्र के पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहु के सुबाहु, सुबाहु के शान्तसेन और शान्तसेन के शतसेन ॥ ३८ ॥ परीक्षित् ! इस वंश में कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तानवाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो । वे सभी ब्राह्मणों के भक्त थे ॥ ३९ ॥

परीक्षित् ! यदुवंश में ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षों में पूरी नहीं हो सकती ॥ ४० ॥ मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंश के बालक को शिक्षा देने के लिये तीन करोड़ अट्टासी लाख आचार्य थे ॥ ४१ ॥ ऐसी स्थिति में महात्मा यदुवंशियों की संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है ! स्वयं महाराज उग्रसेन के साथ एक नील (१०००००००००००००) के लगभग सैनिक रहते थे ॥ ४२ ॥

परीक्षित् ! प्राचीन काल में देवासुरसंग्राम के समय बहुत-से भयङ्कर असुर मारे गये थे । वे ही मनुष्यों में उत्पन्न हुए और बड़े घमंड से जनता को सताने लगे ॥ ४३ ॥ उनका दमन करने के लिये भगवान् की आज्ञा से देवताओं ने ही यदुवंश में अवतार लिया था । परीक्षित् ! उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थी ॥ ४४ ॥ वे सब भगवान् श्रीकृष्ण को ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे । जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकार से उन्नति हुई ॥ ४५ ॥ यदुवंशियों के चित्त इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण में लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने-धोने आदि कामों में अपने शरीर की भी सुधि न रहती थी । वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है । उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्र की भाँत अपने-आप होती रहती थीं ॥ ४६ ॥

परीक्षित् ! भगवान् की चरणधोवन गङ्गाजी अवश्य ही समस्त तीर्थों में महान् एवं पवित्र हैं । परन्तु जब स्वयं परमतीर्थस्वरूप भगवान् ने ही यदुवंश में अवतार ग्रहण किया, तब तो गङ्गाजल की महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थ की अपेक्षा कम हो गयी । भगवान् के स्वरूप की यह कितनी बड़ी महिमा हैं कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूप को प्राप्त हुए । जिस लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान् की सेवामें नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं । भगवान् का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करने से ही सारे अमङ्गलों को नष्ट कर देता है । ऋषियो के वंशजों में जितने भी धर्म प्रचलित हैं, सबके संस्थापक भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं । वे अपने हाथ में कालस्वरूप चक्र लिये रहते हैं । परीक्षित् ! ऐसी स्थिति में वे पृथ्वी का भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है ॥ ४७ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त जीवों के आश्रयस्थान है । यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहने के लिये उन्होंने देवकीजी के गर्भ से जन्म लिया है । यदुवंशी वीर पार्षदों के रूप में उनकी सेवा करते रहते हैं । उन्होंने अपने भुजबल से अधर्म का अन्त कर दिया है । परीक्षित् ! भगवान् स्वभाव से ही चराचर जगत् का दुःख मिटाते रहते हैं । उनका मन्द-मन्द मुसकान से युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजवासियों और पुरस्त्रियों के हृदय में प्रेम-भाव का सञ्चार करता रहता है । वास्तव में सारे जगत् पर वही विजयी हैं । उन्हीं की जय हो ! जय हो ॥ ४८ ॥

परीक्षित् ! प्रकृति से अतीत परमात्मा ने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादा की रक्षा के लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रों का अभिनय किया । उनका एक-एक कर्म स्मरण करनेवालों के कर्मबन्धन को काट डालनेवाला है । जो यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलो की सेवा का अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओं का ही श्रवण करना चाहिये ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान् श्रीकृष्ण की मनोहारिणी लीला कथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान् के परमधाम में पहुँचा देती हैं । यद्यपि काल की गति के परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान् के धाम में काल की दाल नहीं गलती । वह वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता । उसी धाम की प्राप्ति के लिये अनेक सम्राटों ने अपना राजपाट छोड़कर तपस्या करने के उद्देश्य से जंगल की यात्रा की है । इसलिये मनुष्य को उनकी लीला-कथा का ही श्रवण करना चाहिये ॥ ५० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नवतित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् दशमः स्कन्धः शुभं भूयात् ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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