April 13, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ग्यारहवाँ अध्याय भगवान् श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीराम ने गुरु वसिष्ठजी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञों के द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्मा का यजन किया ॥ १ ॥ उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी ॥ २ ॥ उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थीं, वह उन्होंने आचार्य को दे दी । उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है ॥ ३ ॥ इस प्रकार सारे भूमण्डल का दान करके उन्होंने अपने शरीर के वस्त्र और अलङ्कार ही अपने पास रक्खे । इसी प्रकार महारानी सीताजी के पास भी केवल माङ्गलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे ॥ ४ ॥ जब आचार्य आदि ब्राह्मणों ने देखा कि भगवान् श्रीराम तो ब्राह्मणों को ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान् को लौटा दी और कहा ॥ ५ ॥ ‘प्रभो ! आप सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं । आप तो हमारे हृदय के भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं । ऐसी स्थिति में भला, आपने हमें क्या नहीं दे रक्खा है ॥ ६ ॥ आपका ज्ञान अनन्त हैं । पवित्र कीर्तिवाले पुरुषों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं । उन महात्माओं को, जो किसी को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रक्खे हैं । ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं । भगवन् ! आपके इस रामरूप को हम नमस्कार करते हैं ॥ ७ ॥ परीक्षित् ! एक बार अपनी प्रजा की स्थिति जानने के लिये भगवान् श्रीरामजी रात के समय छिपकर बिना किसी को बतलाये घूम रहे थे । उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी । वह अपनी पत्नी से कह रहा था ॥ ८ ॥ ‘अरी ! तू दुष्ट और कुलटा है । तू पराये घर में रह आयी है । स्त्री-लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’ ॥ ९ ॥ सचमुच सब लोगो को प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है, क्योंकि मुख की तो कमी नहीं है । जब भगवान् श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत-से हो गये । उन्होंने श्रीसीताजी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकिमुनि के आश्रम में रहने लगीं ॥ १० ॥ सीताजी उस समय गर्भवती थी । समय आने पर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये । उनके नाम हुए — कुश और लव । वाल्मीकि मुनि ने उनके जातकर्मादि संस्कार किये ॥ ११ ॥ लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए — अङ्गद और चित्रकेतु । परीक्षित् ! इसी प्रकार भरतजी के भी दो ही पुत्र थे — तक्ष और पुष्कल ॥ १२ ॥ तथा शत्रुघ्न के भी दो पुत्र हुए — सुबाहु और श्रुतसेन । भरतजी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया ॥ १३ ॥ उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान् श्रीराम की सेवामें निवेदन किया । शत्रुघ्नजी ने मधुवन में मधु के पुत्र लवण नामक राक्षस को मारकर वहाँ मथुरा नाम की पुरी बसायी ॥ १४ ॥ भगवान् श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीताजी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकिजी के हाथों में सौंप दिया और भगवान् श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोक में चली गयीं ॥ १५ ॥ यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीराम ने अपने शोकावेश को बुद्धि के द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होने पर भी वे उसे रोक न सके; क्योंकि उन्हें जानकीजी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःख का कारण है । यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही हैं, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ॥ १७ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीराम ने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्ष तक अखण्डरूप से अग्निहोत्र किया ॥ १८ ॥ तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तों के हृदय में अपने उन चरणकमलों को स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाम में चले गये ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! भगवान् के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है । उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से ही यह लीला-विग्रह धारण किया था । ऐसी स्थिति में रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीराम के लिये यह कोई बड़े गौरव की बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों को मार डाला या समुद्र पर पुल बाँध दिया । भला, उन्हें शत्रुओं को मारने के लिये बंदरों की सहायता की भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ २० ॥ भगवान् श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देनेवाला है । वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है । आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं । स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं । मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २१ ॥ जिन्होंने भगवान् श्रीराम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया — वे सब-के-सब तथा कोसलदेश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योगसाधना के द्वारा जाते हैं ॥ २२ ॥ जो पुरुष अपने कानों से भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनता है — उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है । परीक्षित् ! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवान् श्रीराम स्वयं अपने भाइयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे ? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान् श्रीराम के प्रति कैसा बर्ताव करते थे ? ॥ २४ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — त्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरों के साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे ॥ २५ ॥ उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते । ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान् श्रीराम को देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है ॥ २६ ॥ उसके महल, फाटक, सभाभवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रक्खे हुऐ थे और स्थान-स्थान पर पताकाएँ फहरा रही थीं ॥ २७ ॥ वह डंठल समेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी । दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओं से तथा माङ्गलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी ॥ २८ ॥ नगरवासी अपने हाथों में तरह-तरह की भेंट लेकर भगवान् के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि ‘देव ! पहले आपने ही वराहरूप से पृथ्वी का उद्धार किया था । अब आप ही इसका पालन कीजिये ॥ २९ ॥ परीक्षित् ! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनों के बाद भगवान् श्रीरामजी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते । वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से कमलनयन भगवान् को देखते हुए उन पर पुष्पों की वर्षा करते ॥ ३० ॥ इस प्रकार प्रजा का निरीक्षण करके भगवान् फिर अपने महलों में आ जाते । उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओं के द्वारा सेवित थे । उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकार के खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे । वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियों से सुसज्जित थे ॥ ३१ ॥ महलों के द्वार तथा देहलियाँ मूँगे की बनी हुई थीं । उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्यमणि के थे । मरकतमणि के बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिकमणि की दीवारें चमकती रहती थीं ॥ ३२ ॥ रंग-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियों की चमक, शुद्ध चेतन के समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग-सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलों के गहनों से वे महल खूब सजाये हुए थे । आभूषणों को भी भूषित करनेवाले देवताओं के समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवामें लगे रहते थे ॥ ३३-३४ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीरामजी आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषों के शिरोमणि थे । उसी महल में वे अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीताजी के साथ विहार करते थे ॥ ३५ ॥ सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान् श्रीराम बहुत वर्षों तक धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए समयानुसार भोगों का उपभोग करते रहे ॥ ३६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related