श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय १४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौदहवाँ अध्याय
चन्द्रवंश का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अब मैं तुम्हें क्न्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ । इस वंश में पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है ॥ १ ॥ सहस्रों सिरवाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई । ब्रह्माजी के पुत्र हुए अत्रि । वे अपने गुणों के कारण ब्रह्माजी के समान ही थे ॥ २ ॥ उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ । ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया ॥ ३ ॥ उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया । इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया ॥ ४ ॥ देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया । ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया ॥ ५ ॥

शुक्राचार्यजी ने बृहस्पतिजी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेवजी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अङ्गिराजी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया ॥ ६ ॥ देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पतिजी का ही पक्ष लिया । इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ॥ ७ ॥ तदनन्तर अङ्गिरा ऋषि ने ब्रह्माजी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना क । इसपर ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पतिजी के हवाले कर दिया । जब बृहस्पतिजी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा — ॥ ८ ॥ ‘दुष्टे ! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है । इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दें । डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं । क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है । देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’ ॥ ९ ॥ अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई । उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया । उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय ॥ १० ॥

अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है । ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का हैं ।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ॥ ११ ॥ बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा — ‘दुष्टे ! तू बतलाती क्यों नहीं ? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दें’ ॥ १२ ॥ उसी समय ब्रह्माजी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा । तब तारा ने धीरे से कहा कि चन्द्रमा का ।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया ॥ १३ ॥

परीक्षित् ! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रक्खा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी । ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ । इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ । एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे । उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवाङ्गना पुरूरवा के पास चली आयी ॥ १५-१६ ॥ यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेव के समान सुन्दर है — यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ १७ ॥ देवाङ्गना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे । उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया । उन्होंने बड़ी मीठी वाणी से कहा — ॥ १८ ॥

राजा पुरूरवा ने कहा — सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है । बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे ॥ १९ ॥

उर्वशी ने कहा —
‘राजन् ! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान् स्वरूप हैं । भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है ॥ २० ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है । अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी । परन्तु मेरे प्रेमी महाराज ! मेरी एक शर्त हैं । मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ । आप इनकी रक्षा करना ॥ २१ ॥ वीरशिरोमणे ! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी ।’ परम मनस्वी पुरूरवा ने ‘ठीक हैं’ —ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ॥ २२ ॥ और फिर उर्वशी से कहा — ‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत हैं । तुम्हारा भाव अलौकिक है । यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करनेवाला है । और देवि ! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो । फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा ?” ॥ २३ ॥

परीक्षित् ! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी । वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ॥ २४ ॥ देवी उर्वशी के शरीर से कमलकेसर की-सी सुगन्ध निकला करती थी । उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया । वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ॥ २५ ॥ इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा — ‘उर्वशी के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है ॥ २६ ॥ वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने ॥ २७ ॥ उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें सुनी, तब वह कह उठी कि “अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी । यह नपुंसक अपने को बड़ा वीर मानता है । यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका ॥ २८ ॥ इसीपर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं । मैं तो मर गयी । देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता हैं और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है ॥ २९ ॥

परीक्षित् ! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया । राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े ॥ ३० ॥ गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे । जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया । (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी) ॥ ३१ ॥

परीक्षित् ! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा, तो वे अनमने हो गये । उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था । वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे ॥ ३२ ॥ एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा — ॥ ३३॥ ‘प्रिये ! तनिक ठहर जाओ । एक बार मेरी बात मान लो । निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ । क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ ३४ ॥ देवि ! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है । अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायेंगे’ ॥ ३५ ॥

उर्वशी ने कहा —
राजन् ! तुम पुरुष हो । इस प्रकार मत मरो । देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायें ! स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती । स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिल्कुल एक-जैसा होता हैं ॥ ३६ ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं । क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है । तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं ॥ ३५ ॥ इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं । भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ ३८ ॥ तो फिर तुम धीरज धरो । तुम राजराजेश्वर हो । घबराओ मत । प्रति एक वर्ष के बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे । तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ ३९ ॥

राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये । एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये । तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी ॥ ४० ॥ उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसके साथ रहे । प्रातःकाल जब विदा होने लगे, तब विरह के दुःख से वे अत्यन्त दीन हो गये । उर्वशी ने उनसे कहा — ॥ ४१ ॥ ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं । तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की । परीक्षित् ! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी । राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन से दूसरे वन में घूमते रहे ॥ ४२ ॥

जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे । इस प्रकार जब त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए ॥ ४३ ॥ फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी । अब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं । फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणि को उर्वशी, ऊपरी अरणि को पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रों से मन्थन किया ॥ ४४-४५ ॥ तीनों मन्थन से ‘जातवेदा’ नाम का अग्नि प्रकट हुआ । राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि — इन तीनों भागों में विभक्त करके पुत्ररुप से स्वीकार कर लिया ॥ ४६ ॥ फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरि का यजन किया ॥ ४७ ॥

परीक्षित् ! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था । सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे । देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था । अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयीं और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ । राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्वलोक की प्राप्ति की ॥ ४९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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