श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय २४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौबीसवाँ अध्याय
विदर्भ के वंश का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! राजा विदर्भ को भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए — कुश, क्रथ और रोमपाद । रोमपाद विदर्भवंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए ॥ १ ॥ रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि । राजन् ! इस चेदि के वंश में ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए ॥ २ ॥ क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम् ॥ ३ ॥ व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ हुआ ॥ ४ ॥ दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए ॥ ५ ॥ अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ । परीक्षित् ! सात्वत के सात पुत्र हुए — भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज । भजमान की दो पत्नियाँ थीं । एक से तीन पुत्र हुए निम्लोचि, किङ्किण और धृष्टि । दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए — शताजित्, सहस्राजित् और अयुताजित् ॥ ६-८ ॥

देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु । देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है — ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं ॥ ९ ॥ बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है । इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं । सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था । उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए ॥ १०-११ ॥

परीक्षित् ! वृष्णि के दो पुत्र हुए — सुमित्र और युधाजित् । युधाजित् के शिनि और अनमित्र — ये दो पुत्र थे । अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ ॥ १२ ॥ सत्राजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे । अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि । शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ ॥ १३ । इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए । सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ । अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था । वृष्णि के दो पुत्र हुए —श्वफल्क और चित्ररथ । श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनीं । उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए — आसङ्ग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रांपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु । इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा । अकूर के दो पुत्र थे — देववान् और उपदेव । श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए — जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं ॥ १४-१८ ॥

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए — कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि । उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ । तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी । अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई । आहुक के दो पुत्र हुए देवक और उग्रसेन । देवक के चार पुत्र हुए ॥ १९-२१ ॥ देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन । इनकी सात बहिनें भी थीं — धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी । वसुदेवजी ने इन सबके साथ विवाह किया था ॥ २२-२३ ॥ उग्रसेन के नौ लड़के थे — कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कङ्क, शङ्कु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ॥ २४ ॥ उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं — कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका । इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजी के छोटे भाइयों से हुआ था ॥ २५ ॥

चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान्, भजमान् से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए ॥ २६ ॥ हृदीक से तीन पुत्र हुए — देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा । देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा ॥ २७ ॥ उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये — वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक । ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे । वसुदेवजी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे । अतः वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये । वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए । वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं — पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी । वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे — कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी । इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ॥ २८-३१ ॥

पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली । एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया ॥ ३२ ॥ उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे । उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया । उसने कहा — ‘भगवन् ! मुझे क्षमा कीजिये । मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था । अब आप पधार सकते हैं ॥ ३३ ॥ सूर्यदेव ने कहा — ‘देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता । इसलिये हे सुन्दरी ! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ । हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूंगा’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर भगवान् सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये । उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ । वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था ॥ ३५ ॥ पृथा लोकनिन्दा से डर गयी । इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया । परीक्षित् ! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे ॥ ३६ ॥

परीक्षित् ! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करूष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था । उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ । यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था ॥ ३७ ॥ केकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था । उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए ॥ ३८ ॥ राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था । उसके दो पुत्र हुए — विन्द और अनुविन्द । वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए । चेदिराज़ दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया ॥ ३९ ॥ उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ । वसुदेवजी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए — चित्रकेतु और बृहद्बल ॥ ४० ॥ देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान् नाम के दो पुत्र हुए । आनक की पत्नी कङ्का के गर्भ से भी दो पुत्र हुए — सत्यजित् और पुरुजित् ॥ ४१ ॥ सृञ्जय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये । इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ४२ ॥

मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए । वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ ४३ ॥ शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये । कङ्क की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए — ऋतधाम और जय ॥ ४४ ॥

आनकदुन्दुभि वसुदेवजी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं ॥ ४५ ॥ रोहिणी के गर्भ से वसुदेवजी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ॥ ४६ ॥ पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए — भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि ॥ ४७ ॥ नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था । उसका नाम था केशी ॥ ४८ ॥ उसने रोचना से हस्त और हेमाङ्गद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित् ! वसुदेवजी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए ॥ ५० ॥

उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए ॥ ५१ ॥ देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये । परम उदार वसुदेवजी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सात के नाम हैं — कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, सम्मर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ॥ ५२-५४ ॥ उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे । परीक्षित् ! तुम्हारी परम् सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजी की ही कन्या थीं ॥ ५५ ॥

जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ॥ ५६ ॥ परीक्षित् ! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तव में असङ्ग आत्मा ही हैं । इसलिए उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है ॥ ५७ ॥ उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है । और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करानेवाला है ॥ ५८. ॥ जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुए । उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते — शरीर से करने की बात तो अलग रही ॥ ५९-६० ॥

पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होनेवाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे ॥ ६१ ॥ उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ हैं । संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है । एक बार भी यदि कान की अञ्जलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ॥ ६२ ॥ परीक्षित् ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान् की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ॥ ६३ ॥ उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्गसुन्दर था । उन्होंने उस मनोरम विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपर्ण वचन. और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था ॥ ६४ ॥

भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी । मकराकृत कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे । उनकी आभा से कपोल का सौन्दर्य और भी खिल उठता था । जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहनेवाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती । सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते । वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिरानेवाले निमि पर खीझते भी ॥ ६५ ॥

लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेवजी के घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं; वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये । वहाँ अपना प्रयोजन — जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था — पूरा करके मथुरा लौट आये । व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया । बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये । साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ॥ ६६ ॥ कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हल्का कर दिया तथा युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया । फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धाम को सिधार गये ॥ ६७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् नवमः स्कन्धः शुभं भूयात् ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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