April 10, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तीसरा अध्याय महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदों का निष्ठावान् विद्वान् था । उसने अङ्गिरा गोत्र के ऋषियों के यज्ञ में दूसरे दिन का कर्म बतलाया था ॥ १ ॥ उसकी एक कमललोचना कन्या थी । उसका नाम था सुकन्या । एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्या के साथ वन में घूमते-घूमते च्यवन ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचे ॥ २ ॥ सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन में घूम-घूमकर वृक्षों का सौन्दर्य देख रही थी । उसने एक स्थान पर देखा कि बाँबी (दीमकों की एकत्रित की हुई। मिट्टी) के छेद में से जुगनू की तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ॥ ३ ॥ दैव की कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्या ने बालसुलभ चपलता से एक काँटे के द्वारा इन ज्योतियों को बेध दिया । इससे उनमें से बहुत-सा खून बह चला ॥ ४ ॥ उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया । राजर्षि शर्याति को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकों से कहा — ॥ ५॥ ‘अरे तुमलोगों ने कहीं महर्षि च्यवनजी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया ? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगों में से किसी-न-किसी ने उनके आश्रम में कोई अनर्थ किया है ॥ ६ ॥ तब सुकन्या ने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि ‘पिताजी ! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है । मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया हैं ॥ ७ ॥ अपनी कन्या की यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये । उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बॉबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को प्रसन्न किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर च्यवन मुनि का अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस सङ्कट से छुटकर बड़ी सावधानी से उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये ॥ १ ॥ इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनि को अपने पति के रूप में प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी । वह उनकी मनोवृत्ति को जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी ॥ १० ॥ कुछ समय बीत जाने पर उनके आश्रम पर दोनों अश्विनीकुमार आये । च्यवन मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा अवस्था प्रदान कीजिये । मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं । मैं जानता हूँ कि आप लोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूंगा ‘॥ ११-१२ ॥ वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने महर्षि च्यवन का अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक हैं । और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धों के द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये ॥ १३ ॥ च्यवन मुनि के शरीर को बुढ़ापे ने घेर रक्खा था । सब ओर नसें दीख रहीं थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जाने के कारण वे देखने में बहुत भद्दे लगते थे । अश्विनीकुमारों ने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्ड में प्रवेश किया ॥ १४ ॥ उसी समय कुण्ड से तीन पुरुष बाहर निकले । वे तीनों ही कमलों की माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे । वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियों को प्रिय लगनेवाले थे ॥ १५ ॥ परम साध्वी सुन्दरी सुकन्या ने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृति के तथा सूर्य के समान तेजस्वी हैं, तब अपने पति को न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारों की शरण ली ॥ १६ ॥ उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए । उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये ॥ १७ ॥ कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये । वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ॥ १८ ॥ सुकन्या ने उनके चरणों की वन्दना की । शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले ॥ १९ ॥ दुष्टे ! यह तूने क्या किया ? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनि को धोखा दे दिया ? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है ॥ २० ॥ तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था । यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलङ्क लगानेवाला है । अरे राम-राम ! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों के वंश को घोर नरक में ले जा रही हैं ॥ २१ ॥ राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर पवित्र मुसकानवाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा — ‘पिताजी ! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’ ॥ २२ ॥ इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए । उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले लगा लिया ॥ २३ ॥ महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया ॥ २४ ॥ इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं । इसलिये उनसे यह सहा न गया । उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिये वज्र उठाया । महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया ॥ २५ ॥ तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया । उन लोगों ने वैद्य होने के कारण पहले अश्विनीकुमारों को सोमपान से बहिष्कार कर रखा था ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! शर्याति के तीन पुत्र थे — उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण । आनर्त से रेवत हुए ॥ २७ ॥ महाराज ! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी । उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे ॥ २८ ॥ उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी । ककुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्माजी के पास गये । उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था । ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी । बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ॥ २९-३० ॥ उत्सव के अन्त में ब्रह्माजी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया । उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने हँसकर उनसे कहा — ॥ ३१ ॥ महाराज ! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये । अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ॥ ३२ ॥ इस बीच में सत्ताईस चतुर्युग का समय बीत चुका है । इसलिये तुम जाओ । इस समय भगवान् नारायण के अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वी पर विद्यमान हैं ॥ ३३ ॥ राजन् ! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो । जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियों के जीवनसर्वस्व भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं । राजा ककुद्मी ने ब्रह्माजी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये । उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ राजा ककुद्मी ने अपनी सर्वाङ्गसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान् नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये ॥ ३६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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