श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौथा अध्याय
नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग । जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी) ॥ १ ॥ उसने अपने भाइयों से पूछा — ‘भाइयो ! आपलोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है ?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं ।’ उसने अपने पिता से जाकर कहा — ‘पिताजी ! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है । पिता ने कहा — ‘बेटा ! तुम उनकी बात न मानो ॥ २ ॥ देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आङ्गिरस-गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं । परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र ! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं ॥ ३ ॥ तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे । इसलिये अब तुम उन्हीं के पास चले जाओ । उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया । उन आङ्गिरसगोत्रीं ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये ॥ ४-५ ॥ जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया । उसने कहा — ‘इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’ ॥ ६ ॥

नाभाग ने कहा — ‘ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है ।’ इस पर उस पुरुष ने कहा — ‘हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाय । तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा ॥ ७ ॥

पिता ने कहा — ‘एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषिलोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेव का हिस्सा है । इसलिये वह धन तो महादेवजी को ही मिलना चाहिये ॥ ८ ॥

नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्रभगवान् को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो ! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है । भगवन् ! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ ॥ ९ ॥

तब भगवान् रुद्र ने कहा — ‘तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा हैं । तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो । अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ ॥ १० ॥ यहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश हैं, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ, तुम इसे स्वीकार करो ।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥ जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है ॥ १२ ॥ नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष । वे भगवान् के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे । जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका ॥ १३ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ । ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया, जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका ॥ १४ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे । पृथ्वी के सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था । यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे । क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है । उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है ॥ १५-१६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था । उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं ॥ १७ ॥ उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरिमन्दिर के मार्जन-सेवन में और अपने कानों को भगवान् अच्युत की मङ्गलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था ॥ १८ ॥ उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अङ्ग-सङ्ग भगवद्भक्तों के शरीर-स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान् के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद संलग्न कर दिया था ॥ १९ ॥

अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते । राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोगसामग्री को भगवान् की सेवामें समर्पित कर दिया था । भोगने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान् के निज-जनों में ही निवास करता हैं ॥ २० ॥ इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे ॥ २१ ॥

उन्होंने ‘धन्व’ नाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वाङ्गपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थीं ॥ २३ ॥ उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज् बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे ॥ २३ ॥ उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती । इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते ॥ २४ ॥ वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करनेवाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे । इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ हैं । वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं ॥ २५ ॥

राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया ॥ २६ ॥ घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरङ्गिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि ये सब-के-सब असत्य हैं ॥ २५ ॥ उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करनेवाला है ॥ २८ ॥

राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्तिपरायण थीं । एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया ॥ २९ ॥ व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुनाजी में स्नान करके मधुवन में भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ ३० ॥ उन्होंने महाभिषेक की विधि से सस्य प्रकार की सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान् का अभिषेक किया और हृदय से तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्घ्य आदि के द्वारा उनकी पूजा की । यद्यपि महाभाग्यवान् ब्राह्मणों को इस पूजा की कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं — वे सिद्ध थे — तथापि राजा अम्बरीष ने भक्तिभाव से उनका पूजन किया । तत्पश्चात् पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगों के घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेज दीं । उन गौओं के सींग सुवर्ण से और खुर चाँदी से मढ़े हुए थे । सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे । वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्था की, देखने में सुन्दर, बछड़ेवाली और खूब दूध देनेवाली थीं । उनके साथ दुहने की उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भिजवा दी थीं ॥ ३१-३४ ॥

जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की । उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे ॥ ३५ ॥ राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूप में आये हुए दुर्वासाजी की पूजा की । उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजन के लिये प्रार्थना की ॥ ३६ ॥ दुर्वासाजी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे नदी तट पर चले गये । वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे ॥ ३७ ॥ इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी । धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-सङ्कट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परामर्श किया ॥ ३८ ॥

उन्होंने कहा — ‘ब्राह्मणदेवताओ ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना दोनों ही दोष हैं । इसलिये इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये ॥ ३९ ॥ तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा — ‘ब्राह्मणों ! श्रुतियों में ऐसा कहा गया हैं कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है । इसलिये इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ ॥ ४० ॥

ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान् का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और परीक्षित् ! वे केवल दुर्वासाजी के आने की बाट देखने लगे ॥ ४१ ॥ दुर्वासाजी आवश्यक कर्मों से निवृत्त होकर यमुनातट से लौट आये । जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है ॥ ४२ ॥ उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे । इसलिये यह जानकर कि राजा ने पारण कर लिया है, वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे । भौंहों के चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया । उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डॉटकर कहा ॥ ४३ ॥

‘अहो ! देखो तो सही, यह कितना क्रूर हैं ! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है । भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है । आज इसने धर्म का उल्लङ्घन करके बड़ा अन्याय किया है ॥ ४४ ॥ देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ । इसने अतिथि सत्कार करने के लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है । अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ ॥ ४५ ॥

यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे । उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिये एक कृत्या उत्पन्न की । वह प्रलय-काल की आग समान दहक रही थी ॥ ४६ ॥ वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी । उस समय उसके पैरों की धमक से पृथ्वी काँप रही थी । परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए । वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ॥ ४७ ॥ परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था । जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासाजी की कृत्या को जलाकर राख का ढेर कर दिया ॥ ४८ ॥ जब दुर्वासाजी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले ॥ ४९ ॥

जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान् का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा । जब दुर्वासाजी ने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वत की गुफा में प्रवेश करने के लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ॥ ५० ॥ दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होने असह्य तेज वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा ॥ ५१ ॥

जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये । अपने लिये प्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजी के पास गये और बोले — ब्रह्माजी ! आप स्वयम्भू हैं । भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये’ ॥ ५२ ॥

ब्रह्माजी ने कहा — ‘जब मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टि-लीला समेटने लगेंगे और इस जगत् को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभङ्गमात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ॥ ५३ ॥ मैं, शङ्करजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसार का हित करते हैं, (उनके भक्त के द्रोही को बचाने के लिये हम समर्थ नहीं हैं) ‘॥ ५४ ॥

जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान् के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शङ्कर की शरण में गये ॥ ५५ ॥

श्रीमहादेवजी ने कहा — ‘दुर्वासाजी ! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं — उन प्रभु के सम्बन्ध में हम कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रखते ॥ ५६ ॥ मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दुसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर — ये हम सभी भगवान् की माया को नहीं जान सकते; क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं ॥ ५७-५८ ॥ यह चक्र उन विश्वेश्वर का शस्त्र है । यह हमलोगों के लिये असह्म है । तुम उन्हीं की शरण में जाओ । वे भगवान् ही तुम्हारा मङ्गल करेंगे’ ॥ ५९ ॥

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा भगवान् के परमधाम वैकुण्ठ में गये । लक्ष्मीपति भगवान् लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करते हैं ॥ ६० ॥ दुर्वासाजी भगवान् के चक्र की आग से जल रहे थे । वे कॉपते हुए भगवान् के चरणों में गिर पड़े ।

उन्होंने कहा — ‘हे अच्युत ! हे अनन्त ! आप संतों के एकमात्र वाञ्छनीय हैं । प्रभो ! विश्व के जीवनदाता ! मैं अपराधी हूँ । आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ६१ ॥ आपका परम प्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है । प्रभो ! आप मुझे उससे बचाइये । आपके तो नाम का ही उच्चारण करने से नारकी जीव भी मुक्त हो जाता हैं ॥ ६२ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं हैं । मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रक्खा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ॥ ६३ ॥ ब्रह्मन् ! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ । इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोड़कर में न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धाङ्गिनी विनाशरहित लक्ष्मी को ॥ ६४ ॥ जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक — सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोडने का सङ्कल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ? ॥ ६५ ॥ जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखनेवाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं ॥ ६६ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपने को परिपूर्ण कृतकृत्य मानते हैं । मेरी सेवा के फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य-सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समय के फेर से नष्ट हो जानेवाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ ६७ ॥

दुर्वासाजी ! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ । वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ॥ ६८ ॥ दुर्वासाजी ! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ । जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पड़ना पड़ा है, आप उसके पास जाइये । निरपराध साधुओं के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करनेवाले का ही अमङ्गल होता है ॥ ६९ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परम कल्याण के साधन है । परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय, तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं ॥ ३० ॥ दुर्वासाजी ! आपका कल्याण हो । आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीष के पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये । तब आपको शान्ति मिलेगी ॥ ७१ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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