श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
छठा अध्याय
इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! अम्बरीष के तीन पुत्र थे — विरूप, केतुमान् और शम्भु । विरूप से पृषदश्च और उसका पुत्र रथीतर हुआ ॥ १ ॥ रथीतर सन्तानहीन था । वंश परम्परा की रक्षा के लिये उसने अङ्गिरा ऋषि से प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नी से ब्रह्मतेज से सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ यद्यपि ये सब रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वहीं होना चाहिये था जो रथीतर का था, फिर भी वे आङ्गिरस ही कहलाये । ये ही रथीतर-वेशियों के प्रवर (कुल में सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये । क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे — क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था ॥ ३ ॥

परीक्षित् ! एक बार मनुजी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे । उनमें सबसे बड़े तीन थे — विकुक्षि, निमि और दण्डक ॥ ४ ॥ परीक्षित् ! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्त के पूर्वभाग के और पचीस पश्चिमभाग के तथा उपर्युक्त तीन मध्यभाग के अधिपति हुए । शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तों के अधिपति हुए ॥ ५ ॥ एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्र को आज्ञा दी — विकुक्षे ! शीघ्र ही जाकर श्राद्ध के योग्य पवित्र पशुओं का मांस लाओ’ ॥ ६ ॥ वीर विकुक्षि ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वन की यात्रा की । वहाँ उसने श्राद्ध के योग्य बहुत-से पशुओं का शिकार किया । वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्ध के लिये मारे हुए पशु को स्वयं न खाना चाहिये । उसने एक खरगोश खा लिया ॥ ७ ॥ विकुक्षि ने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिता को दिया । इक्ष्वाकु ने अब अपने गुरु से उसे प्रोक्षण करने के लिये कहा, तब गुरुजी ने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्ध के अयोग्य है ॥ ८ ॥ परीक्षित् ! गुरूजी के कहने पर राजा इक्ष्वाकु को अपने पुत्र की करतूत का पता चल गया । उन्होंने शास्त्रीय विधि का उल्लङ्घन करनेवाले पुत्र को क्रोधवश अपने देश से निकाल दिया ॥ ९ ॥ तदनन्तर राज्ञा इक्ष्वाकु ने अपने गुरुदेव वसिष्ठ से ज्ञानविषयक चर्चा की । फिर योग के द्वारा शरीर का परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ १० ॥

पिता का देहान्त हो जाने पर विकुक्षि अपनी राजधानी में लौट आया और इस पृथ्वी का शासन करने लगा । उसने बड़े-बड़े यज्ञों से भगवान् की आराधना की और संसार में शशाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ११ ॥ विकुक्षि के पुत्र का नाम था पुरञ्जय । उसी को कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्ध’ कहते हैं । जिन कर्मों के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ॥ १२ ॥

सत्ययुग के अन्त में देवताओं का दानवों के साथ घोर संग्राम हुआ था । उसमें सब-के-सब देवता दैत्यों से हार गये । तब उन्होंने वीर पुरञ्जय को सहायता के लिये अपना मित्र बनाया ॥ १३ ॥ पुरञ्जय ने कहा कि यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें, तो मैं युद्ध कर सकता हूँ । पहले तो इन्द्र ने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओं के आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ॥ १४ ॥ सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णु ने अपनी शक्ति से पुरञ्जय को भर दिया । उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये । इसके बाद बैल पर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील)- के पास बैठ गये । जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे । देवताओं को साथ लेकर उन्होंने पश्चिम की ओर से दैत्यों का नगर घेर लिया ॥ १५-१६ ॥

वीर पुरञ्जय का दैत्यों के साथ अत्यन्त रोमाञ्चकारी घोर संग्राम हुआ । युद्ध में जो-जो दैत्य उनके सामने आये, पुरञ्जय ने बाण के द्वारा उन्हें यमराज के हवाले कर दिया ॥ १७ ॥ उनके बाणों की वर्षा क्या थी, प्रलयकाल की धधकती हुई आग थी । जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता । दैत्यों का साहस जाता रहा । वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरों में घुस गये ॥ १८ ॥ पुरञ्जय ने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य–सब कुछ जीतकर इन्द्र को दे दिया । इससे उन राजर्षि को पुर जीतने के कारण ‘पुरञ्जय’, इन्द्र को वाहन बनाने के कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैल के ककुद् पर बैठने के कारण ‘ककुत्स्थ’ कहा जाता है ॥ १९ ॥

पुरञ्जय का पुत्र था अनेना । उसका पुत्र पृथु हुआ । पृथु के विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्र के युवनाश्व ॥ २० ॥ युवनाश्च के पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शावस्तीपुरी बसायी । शाबस्त के बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए ॥ २१ ॥ ये बड़े बली थे । इन्होंने उतङ्क ऋषि को प्रसन्न करने के लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रों को साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्य का वध किया ॥ २२ ॥ इससे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’ । धुन्धु दैत्य के मुख की आग से उनके सब पुत्र जल गये । केवल तीन ही बच रहे थे ॥ २३ ॥ परीक्षित् ! बचे हुए पुत्रों के नाम थे — दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व । दृढाश्व से हर्यश्व और उससे निकुम्भ का जन्म हुआ ॥ २४ ॥

निकुम्भ के बर्हणाश्व, उसके कृशाश्व, कृशाश्व के सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ । युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुखी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वन में चला गया । वहाँ ऋषियों ने बड़ी कृपा करके युवनाश्व से पुत्रप्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रता के साथ इन्द्रदेवता का यज्ञ कराया ॥ २५-२६ ॥ एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि के समय बड़ी प्यास लगी । वह यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषि लोग तो सो रहे हैं । तब जल मिलने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! जब प्रातःकाल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलश में तो जल ही नहीं है, तब उन लोगों ने पूछा कि ‘यह किसका काम है ? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया ?’ ॥ २८ ॥

अन्त में जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान् की प्रेरणा से राजा युवनाश्व ने ही उस जल को पी लिया है, तो उन लोगों ने भगवान् के चरणों में नमस्कार किया और कहा — ‘धन्य हैं ! भगवान् का बल ही वास्तव में बल है’ ॥ २९ ॥ इसके बाद प्रसव का समय आने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख फोड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥ उसे रोते देख ऋषियों ने कहा — ‘यह बालक दूध के लिये बहुत हो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा ?’ तब इन्द्र ने कहा, ‘मेरा पियेगा ‘(मां धाता)’ ‘बेटा ! तू रो मत ।’ यह कहकर इन्द्र ने अपनी तर्जनी अंगुली उसके मुंह में डाल दी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण और देवताओं के प्रसाद से उस बालक के पिता युवनाश्व की भी मृत्यु नहीं हुई । वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥

परीक्षित् ! इन्द्र ने उस बालक का नाम रक्खा त्रसदस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे ॥ ३३ ॥ युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसदस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए । भगवान् के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वी शासन किया ॥ ३४ ॥ वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी-फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से उन यज्ञस्वरूप प्रभु की आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं ॥ ३५ ॥ भगवान् के अतिरिक्त और है ही क्या ? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज, धर्म, देश और काल — यह सब-का-सब भगवान् का ही स्वरूप तो है ॥ ३६ ॥ परीक्षित् ! जहाँ से सूर्य का उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्व के पुत्र मान्धाता के ही अधिकार में था ॥ ३७ ॥

राजा मान्धाता की पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी । उसके गर्भ से उनके तीन पुत्र हुए — पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द । इनकी पचास बहनें थीं । उन पचासों ने अकेले सौभरि ऋषि को पति के रूप में वरण किया ॥ ३८ ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजल में डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे । वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्रियों के साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ ३९ ॥ उसके इस सुख को देखकर ब्राह्मण सौभरि के मन में भी विवाह करने की इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाता के पास आकर उनकी पचास कन्याओं में से एक कन्या माँगी । राजा ने कहा — ‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवर में आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये ॥ ४० ॥ सौभरि ऋषि राजा मान्धाता का अभिप्राय समझ गये । उन्होंने सोचा कि ‘राजा ने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीर में झुर्रियां पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है । अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ॥ ४१ ॥ अच्छी बात है । मैं अपने को ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायेंगी ।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजी ने वैसा ही किया ॥ ४२ ॥

फिर क्या था, अन्तःपुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुंचा दिया । फिर तो उन पचास राजकन्याओं ने एक सौभरि को ही अपना पति चुन लिया ॥ ४३ ॥ उन कन्याओं का मन सौभरिजी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपस के प्रेमभाव को तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरी से कहने लगी कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं’ ॥ ४४ ॥ ऋग्वेदी सौभरि ने उन सभी का पाणिग्रहण कर लिया । वे अपनी अपार तपस्या के प्रभाव से बहुमूल्य सामग्रियों से सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जल से परिपूर्ण सरोवरों से युक्त एवं सौगन्धिक ‘पुष्पों के बगीचों से घिरे महलों में बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओं द्वारा अपनी पत्नियों के साथ विहार करने लगे । सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते । कहीं पक्षी चहकते रहते, तो कहीं भौरे गुंजार करते रहते और कहाँ-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावली का बखान करते रहते ॥ ४५-४६ ॥

सप्तद्वीपवती पृथ्वी के स्वामी मान्धाता सौभरिजी की इस गृहस्थी का सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये । उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्ति का स्वामी हूँ, जाता रहा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थी के सुख में रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियों से अनेकों विषयों का सेवन करते रहे । फिर भी जैसे घी की बूंदों से आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

ऋग्वेदाचार्य सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्त से बैठे हुए थे । उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराज के क्षणभर के सङ्ग से मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपा तक खो बैठा ॥ ४९ ॥ वे सोचने लगे ‘ओ, मैं तो बड़ा तपस्वी था । मैंने भलीभांति अपने व्रतों का अनुष्ठान भी किया था । मेरा यह अधःपतन तो देखो ! मैंने दीर्घकाल से अपने ब्रह्मतेज को अक्षुण्ण रक्खा था, परन्तु जल के भीतर विहार करती हुई एक मछली के संसर्ग से मेरा वह ब्रह्मतेज़ नष्ट हो गया ॥ ५० ॥ अतः जिसे मोक्ष की इच्छा है, उस पुरुष को चाहिये कि वह भोगी प्राणियों का सङ्ग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षण के लिये भी अपनी इन्द्रियों को बहिर्मुख न होने दे । अकेला ही रहे और एकान्त में अपने चित्त को सर्वशक्तिमान् भगवान् में ही लगा दे । यदि सङ्ग करने की आवश्यकता ही हो तो भगवान् के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओं का ही सङ्ग करे ॥ ५१ ॥ मैं पहले एकान्त में अकेला ही तपस्या में संलग्न था । फिर जल में मछली का सङ्ग होने से विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानों के रूप में पाँच हजार । विषयों में सत्यबुद्धि होने से माया के गुणों ने मेरी बुद्धि हर ली । अब तो लोक और परलोक के सम्बन्ध में मेरा मन इतनी लालसाओं से भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ॥ ५२ ॥

इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनों तक तो घर में ही रहे । फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वन में चले गये । अपने पति को ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियों ने भी उनके साथ ही वन की यात्रा की ॥ ५३ ॥ वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजी ने बड़ी घोर तपस्या की, शरीर को सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियों के साथ ही अपने-आपको परमात्मा में लीन कर दिया ॥ ५४ ॥ परीक्षित् ! उनकी पत्नियों ने जब अपने पति सौभरि मुनि की आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्नि में लीन हो जाती हैं — वैसे ही वे उनके प्रभाव से सती होकर उन्हीं में लीन हो गयीं, उन्हीं की गति को प्राप्त हुई ॥ ५५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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