श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सातवाँ अध्याय
राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्रकी कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे । उनके दादा युवनाश्व ने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्व का हारीत । मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए ॥ १ ॥ नागों ने अपनी बहन नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था । नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गयी ॥ २ ॥ वहाँ भगवान् की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करने योग्य गन्धर्वों को मार डाला । इस पर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्स को वर दिया कि जो इस प्रसङ्ग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से निर्भय हो जायगा ॥ ३ ॥ राजा पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु था । उसके पुत्र हुए अनरण्य । अनरण्य के हर्यश्व, उसके अरुण और अरुण के त्रिबन्धन हुए ॥ ४ ॥ त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए । यही सत्यव्रत त्रिशङ्कु के नाम से विख्यात हुए । यद्यपि त्रिशङ्कु अपने पिता और गुरु के शाप से चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्रजी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये । देवताओं ने उन्हें वहाँ से ढकेल दिया और वे नीचे को सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्रजी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया । वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं ॥ ५-६ ॥

त्रिशङ्कु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र । उनके लिए विश्वामित्र और वसिष्ठ एक दूसरे को शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षों तक लड़ते रहे ॥ ७ ॥ हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी । इससे वे बहुत उदास रहा करते थे । नारद के उपदेश से वे वरुणदेवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो ! मुझे पुत्र प्राप्त हो ॥ ८ ॥ महाराज ! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उससे आपका यजन करूंगा ।’ वरुण ने कहा — ‘ठीक है ।’ व वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ ॥ ९ ॥

पुत्र होते ही वरुण ने आकर कहा — ‘हरिश्चन्द्र ! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया । अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो ।’ हरिश्चन्द्र ने कहा — ‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायगा, तब यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ १० ॥ दस दिन बीतने पर वरुण ने आकर फिर कहा — ‘अब मेरा यज्ञ करो । हरिश्चन्द्र ने कहा — ‘जब आपके यज्ञपशु के मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ ११ ॥ दाँत उग आने पर वरुण ने कहा — ‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो । हरिश्चन्द्र ने कहा — ‘जब इसके दूध के दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा’ ॥ १२ ॥ दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा — ‘अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो ।’ हरिश्चन्द्र ने कहा — ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायगा’ ॥ १३ ॥ दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा — ‘अब मेरा यज्ञ करो ।’ हरिश्चन्द्र ने कहा — ‘वरुणजी महाराज ! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’ ॥ १४ ॥

परीक्षित् ! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे । इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था । वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसकी बाट देखते ॥ १५ ॥ जब रोहित को इस बात पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये हाथ में धनुष लेकर वन में चला गया ॥ १६ ॥ कुछ दिन के बाद उसे मालूम हुआ कि वरुणदेवता ने रुष्ट होकर मेरे पिताजी पर आक्रमण किया है जिसके कारण वे महोदर रोग से पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगर की ओर चल पड़ा । परन्तु इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया ॥ १७ ॥ उन्होंने कहा — ‘बेटा रोहित ! यज्ञपशु बनकर मरने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रों का सेवन करते हुए पृथ्वी में विचरना ही अच्छा है ।’ इन्द्र की बात मानकर वह एक वर्ष तक और वन में ही रहा ॥ १८ ॥ इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहित ने अपने पिता के पास जाने का विचार किया परन्तु बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारणकर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते ॥ १९ ॥

इस प्रकार छः वर्ष तक रोहित वन में ही रहा । सातवें वर्ष जब वह अपने नगर को लौटने लगा, तब उसने अजीगर्त से उनके मझले पुत्र शुनःशेप को मोल ले लिया और उसे यज्ञपशु बनाने के लिये अपने पिता को सौंपकर उनके चरणों में नमस्कार किया । तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्र ने महोदर रोग से छुटकर पुरुषमेध यज्ञ द्वारा वरुण आदि देवताओं का यजन किया । उस यज्ञ में विश्वामित्रजी होता हुए । परम संयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया । वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने । उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को एक सोने का रथ दिया था ॥ २०-२३ ॥

परीक्षित् ! आगे चलकर मैं शुनःशेप का माहात्म्य वर्णन करूंगा । हरिश्चन्द्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य मे दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उन्हें उस ज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता । उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मन को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में स्थिर करके, आकाश को अहङ्कार में लीन कर दिया । फिर अहङ्कार को महत्तत्त्व में लीन करके उसमें ज्ञान-कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया ॥ २४-२६ ॥ इसके बाद निर्वाण-सुख की अनुभूति से उस ज्ञान-कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का अनुमान हीं किया जा सकता है ॥ २७ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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