January 23, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय १४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौदहवाँ अध्याय अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना सूतजी कहते हैं — स्वजनों से मिलने और पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं — यह जानने के लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ १ ॥ कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँ से लौटकर नहीं आये । धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े भयङ्कर अपशकुन दीखने लगे ॥ २ ॥ उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है । जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उल्टी ही होती हैं । लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं । अपने जीवन-निर्वाह के लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥ सारा व्यवहार कपट से भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रता में भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नी में भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥ ४ ॥ कलिकाल के आ जाने से लोगों का स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्म से अभिभूत हो गया है और प्रकृति में भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥ ५ ॥ युधिष्ठिर ने कहा — भीमसेन ! अर्जुन को हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहां जाकर, पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं, इसका पता लगा आये और सम्बन्धियों से मिल भी आये ॥ ६ ॥ तब से सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं । मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आने का क्या कारण हैं ॥ ७ ॥ कहीं देवर्षि नारद के द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रह का संवरण करना चाहते हैं ? ॥ ८ ॥ उन्हीं भगवान् की कृपा से हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकों का अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥ भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही-आकाश में उल्कापातादि, पृथ्वी में भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं ! इनसे इस बात की सूचना मिलती हैं कि शीघ्र ही हमारी बुद्धि को मोह में डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रहीं है । हृदय जोर से धड़क रहा है । अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥ देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्य की ओर मुँह करके रो रही है । अरे ! उसके मुंह से तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥ भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं । मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥ यह मृत्यु का दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रात को अपने कर्ण-कठोर शब्दों से मेरे मन को कॅपाते हुए विश्व को सूना कर देना चाहते हैं ॥ १४ ॥ दिशाएँ धुंधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं । यह पृथ्वी पहाड़ों के साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर से गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥ १५ ॥ शरीर को छेदनेवाली एवं धूलिवर्षा से अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है । बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥ देखो ! सूर्य की प्रभा मन्द पड़ गयी हैं । आकाश में ग्रह परस्पर टकराया करते हैं । भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई हैं ॥ १७ ॥ नदी, नद, तालाब, और लोगों के मन क्षुब्ध हो रहे हैं । घी से आग नहीं जलती । यह भयङ्कर काल न जाने क्या करेगा ॥ १८ ॥ बछड़े दुध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देती, गोशाला में गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं । बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ १९ ॥ देवताओं की मूर्तियाँ रो-सी रहीं हैं, उनमें से पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं । भाई ! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं । पता नहीं ये हमारे किस दुःख की सूचना दे रहे हैं ॥ २० ॥ इन बड़े-बड़े उत्पातों को देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान् के उन चरणकमलों से, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र अंकुशादि – विलक्षण चिह्न और किसी में भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ॥ २१ ॥ शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयङ्कर उत्पातों को देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारका से लौटकर अर्जुन आये ॥ २२ ॥ युधिष्ठिर ने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे । मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रों से आँसू बह रहे हैं और शरीर में बिलकुल कान्ति नहीं है । उनको इस रूप में अपने चरणों में पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये । देवर्षि नारद की बातें याद करके उन्होंने सुहृदों के सामने ही अर्जुन से पूछा ॥ २३-२४ ॥ युधिष्ठिर ने कहा — ‘भाई ! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशल से तो हैं ? ॥ २५॥ हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६ ॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहने अपने पुत्रों और बहुओं के साथ आनन्द से तो हैं ?॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवक के साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवों के प्रभु बलरामजी तो आनन्द से हैं ? ॥ २८-२९ ॥ वृष्णिवंश के सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्न सुख से तो हैं ? युद्ध में बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्द से हैं न? ॥ ३० ॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रों के सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्ण के अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ ३१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के बाहुबल से सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल है न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ॥ ३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनों के साथ द्वारका की सुधर्मा-सभा में सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४ ॥ वे आदिपुरुष बलरामजी के साथ संसार के परम मङ्गल, परम कल्याण और उन्नति के लिये यदुवंशरूप क्षीरसागर में विराजमान हैं । उन्हीं के बाहुबल से सुरक्षित द्वारकापुरी में यदुवंशीलोग सारे संसार के द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्द से विष्णुभगवान् के पार्षदों के समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूप से उनके चरणकमलों की सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा युद्ध में इन्द्रादि देवताओं को भी हराकर इन्द्राणी के भोगयोग्य तथा उन्हीं को अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओं का उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्ण के बाहुदण्ड के प्रभाव से सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओं के बैठने योग्य सुधर्मा सभा को अपने चरणों से आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥ भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशल से हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनों तक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मान में तो किसी प्रकार की कमी नहीं हुई ? किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥ कहीं किसी ने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदि के द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशा से तुम्हारे पास आये हुए याचकों को उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओर से कुछ देने की प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥ तुम सदा शरणागतों की रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौं, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणी का, जो तुम्हारी शरण में आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्री से समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्री के साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्ग में अपने से छोटे अथवा बराबरीवालों से हार तो नहीं गये ? ॥ ४२ ॥ अथवा भोजन कराने योग्य बालक और बूढ़ों को छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३ ॥ हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहद् भगवान् श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गये हो । इसीसे अपने को शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो’ ॥ ४४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने युधिष्ठिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्याय ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related