January 23, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय १८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अठारहवाँ अध्याय राजा परीक्षित् को शृङ्गी ऋषि का शाप सूतजी कहते हैं — अद्भुत कर्मा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित् अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं ॥ १ ॥ जिस समय ब्राह्मण के शाप से उन्हें डसने के लिये तकक्ष आया, उस समय वे प्राणनाश के महान् भय से भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था ॥ २ ॥ उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातट पर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान् के स्वरूप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया ॥ ३ ॥ जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधन के द्वारा उनके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता ॥ ४ ॥ जबतक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित् सम्राट् रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ ५ ॥ वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ ६ ॥ भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्र से नहीं ॥ ७ ॥ यह भेड़िये के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीरवीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है । यह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ ८ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगों को मैंने भगवान् की कथा से युक्त राजा परीक्षित् का पवित्र चरित्र सुनाया । आपलोगों ने यही पूछा था ॥ ९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं । इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिये ॥ १० ॥ ऋषियों ने कहा — सौम्यस्वभाव सूतजी ! आप युग युग जीये; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हमलोगों को आप भगवान् श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्वल कीर्ति का श्रवण कराते हैं ॥ ११ ॥ यज्ञ करते-करते उसके धूएँ से हमलोगों का शरीर धूमिल हो गया है । फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है । इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-कमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ १२ ॥ भगवत्-प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्सङ्ग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है ॥ १३ ॥ ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन-सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से अतीत भगवान् के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणों का पार तो ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ॥ १४ ॥ विद्वान् ! आप भगवान् को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं । इसलिये आप सत्पुरूषों के एकमात्र आश्रय भगवान् के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ॥ १५ ॥ भगवान् के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित् ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरूप भगवान् के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित् के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण किया गया होगा । उसमें पद-पद पर भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा । भगवान् के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसङ्ग सुनने में बड़ा रस मिलता है ॥ १६-१७ ॥ सूतजी कहते हैं — अहो ! विलोम जातिउच्च वर्ण की माता और निम्न वर्ण के पिता से उत्पन्न संतान को ‘विलोमज’ कहते हैं । सूत जाति की उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राह्मणी माता और क्षत्रिय पिता के द्वारा होने से उसे शास्त्रों में विलोम जाति माना गया है। में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया । क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करनेमात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ १८ ॥ फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान् का नाम लेते हैं । भगवान् की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं । वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ १९ ॥ भगवान् के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है । उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओं को छोड़कर भगवान् के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ॥ २० ॥ ब्रह्माजी ने भगवान् के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वहीं उनके चरणनखों से निकलकर गङ्गाजी के रूप में प्रवाहित हुआ । यह जल महादेवजीसहित सारे जगत् को पवित्र करता है । ऐसी अवस्था त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ‘भगवान् शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ २१ ॥ जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिसमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता हैं ॥ २२ ॥ सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं ! आपलोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ । जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं ॥ २३ ॥ एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे । हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी ॥ २४ ॥ जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये । उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं ॥ २५ ॥ इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के निरुद्ध हो जाने से ये संसार से ऊपर उठ गये थे । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति — तीनों अवस्थाऑ से रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पद में वे स्थित थे ॥ २६ ॥ उनका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था । राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ॥ २७ ॥ जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमि पर भी बैठने को नहीं कहा — अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं – तब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये ॥ २८ ॥ शौनकजी ! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया । उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था ॥ २९ ॥ वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ॥ ३० ॥ उनके मन में यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्होंने अपनी सारी इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा हैं ॥ ३१ ॥ उन शमीक मुनि का पुत्र वड़ा तेजस्वी था । वह दूसरे ऋषिकुमारों के साथ पास ही खेल रहा था । जब उस बालक ने सुना कि राजा ने मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा —॥ ३२ ॥ ‘ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं ! ब्राह्मणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देनेवाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है । उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है ॥ ३४ ॥ अतएव उन्मार्गगामियों के शासक भगवान् श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालों को आज में दण्ड देता हूँ । मेरा तपोबल देखो’ ॥ ३५ ॥ अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमार ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्र का प्रयोग किया ॥ ३६ ॥ ‘कुलाङ्गार परीक्षित् ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ ॥ ३५ ॥ इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥ विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥ उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा — ‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ॥ ४० ॥ ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया । उनकी दृष्टि में परीक्षित् शाप के योग्य नहीं थे । उन्होंने कहा — ‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद हैं कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥ तेरी बुद्धि अभी कच्ची है । तुझे भगवत्स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये, क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥ जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान् पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥ राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा । क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ॥ ४४ ॥ उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचारयुक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं । उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान् के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं ॥ ४६ ॥ इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान् कृपा करके इसे क्षमा करे ॥ ४७ ॥ भगवान् के भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती हैं, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते ॥ ४८ ॥ महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । राजा परीक्षित् ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ॥ ४९ ॥ महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता हैं कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो गुणों से सर्वथा परे हैं ॥ ५० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related