श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नम :
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दूसरा अध्याय
भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य

श्रीव्यासजी कहते हैं — शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ । उन्होंने ऋषियोंके इस मङ्गलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥

सूतजी ने कहा — जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक वैदिक कमक अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे — ‘बेटा ! बेटा !’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया । ऐसे सबके हृदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥ यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है । यह भगवत्स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदों का सार है । संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है । वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है । में उनकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥ मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान् के अवतार नर-नारायण ऋषियों को, सरस्वती देवी को और श्रीव्यासदेवजी को नमस्कार करके तब संसार और अन्तःकरण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त करानेवाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिये ॥ ४ ॥

ऋषियों ! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भली-भाँति आत्मशुद्धि हो जाती हैं ॥ ५ ॥ मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो-भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से हृदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है ॥ ६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है ॥ ७ ॥ धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेपर भी यदि मनुष्य हृदय में भगवान् की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ॥ ८ ॥ धर्म का फल हैं मोक्ष । उसकी सार्थकता अर्थ-प्राप्ति में नहीं है । अर्थ केवल धर्म के लिये है । भोग-विलास उसका फल नहीं माना गया हैं ॥ ९ ॥ भोग-विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन हैं केवल जीवन-निर्वाह । जीवन का फल भी तत्त्व-जिज्ञासा हैं । बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है ॥ १० ॥ तत्त्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं । उसीको कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं ॥ ११ ॥ श्रद्धालु मुनिजन भागवत-श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्ति से अपने हृदय में उस परमतत्त्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं ॥ १२ ॥ शौनकादि ऋषियों ! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसमें है कि भगवान् प्रसन्न हों ॥ १३ ॥ इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ॥ १४ ॥ कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है । विचारवान् पुरुष भगवान् के चिन्तन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं । तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान् की लीलाकथा में प्रेम न करे ॥ १५ ॥

शौनकादि ऋषियो ! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत् सेवा, तदनन्तर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथा में रुचि होती हैं ॥ १६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करनेवाले हैं । वे अपनी कथा सुननेवालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं । क्योंकि वे संतों के नित्यसुहृद् हैं ॥ १७ ॥ जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥ तब रजोगुण और तमोगुण के भाव-काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है ॥ १९ ॥ इस प्रकार भगवान् की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्द से भर जाता हैं, तब भगवान् के तत्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है ॥ २ ॥ हृदय में आत्मस्वरूप भगवान् का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रन्थि टूट जाती हैं, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है ॥ २१ ॥ इसीसे बुद्धिमान् लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥

प्रकृति के तीन गुण हैं — सत्व, रज और तम । इनको स्वीकार करके इस संसारी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र — ये तीन नाम ग्रहण करते हैं । फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करनेवाले श्रीहरि से ही होता है ॥ २३ ॥ जैसे पृथ्वी के विकार लकड़ी की अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ और उससे भी श्रेष्ठ है अग्नि – क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादि के द्वारा अग्नि सद्गति देनेवाला है वैसे ही तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वह भगवान् का दर्शन करानेवाला है ॥ २४ ॥ प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिये विशुद्ध सत्वमय भगवान् विष्णु की ही आराधना किया करते थे । अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याणभाजन होते हैं ॥ २५ ॥ जो लोग इस संसारसागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निन्दा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूपवाले — तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान् और उनके अंश — कलास्वरूपों का ही भजन करते हैं ॥ २६ ॥ परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी हैं, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता हैं ॥ २७ ॥ वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है । यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं । योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही हैं ॥ २८ ॥ ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णा की ही प्राप्ति होती है । तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है । श्रीकृष्ण के लिये ही धर्म का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं ॥ २९ ॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी माया से, जो प्रपञ्च की दृष्टि से है और तत्त्व की दृष्टि से नहीं हैं-उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी ॥ ३० ॥ ये सत्त्व, रज और तम—तीनों गुण उसी माया के विलास हैं । इनके भीतर रहकर भगवान् इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं । वास्तव में तो वे परिपूर्ण विज्ञानानन्दघन हैं ॥ ३१ ॥ अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियो में प्रकट होती हैं तब अनेक-सी मालूम पड़ती है । वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परंतु प्राणियों की अनेकता से अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ॥ ३३ ॥ भगवान् ही सूक्ष्म भूत-तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणों के विकारभूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन-उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं ॥ ३३ ॥ वे ही सम्पूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुण के द्वारा जीवों का पालन-पोषण करते हैं ॥ ३४ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने द्वितीयोऽध्याय ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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