March 6, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय दूसरा अध्याय आग्नीध्र-चरित्र श्रीशुकदेवजी कहते हैं — पिता प्रियव्रत के इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए जम्बूद्वीप की प्रजा का धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे ॥ १ ॥ एक बार वे पितृलोक की कामना से सत्पुत्रप्राप्ति के लिये पूजा की सब सामग्री जुटाकर सुर-सुन्दरियों के क्रीडास्थल मन्दराचल की एक घाटी में गये और तपस्या में तत्पर होकर एकाग्रचित से प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्माजी की आराधना करने लगे ॥ २ ॥ आदिदेव भगवान् ब्रह्माजी ने उनकी अभिलाषा जान ली । अतः अपनी सभा की गायिका पूर्वचिति नाम की अप्सरा को उनके पास भेज दिया ॥ ३ ॥ आग्नीध्रजी के आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था । वह अप्सरा उसीमें विचरने लगी । उस उपवन में तरह-तरह के सघन तरुवरों की शाखाओं पर स्वर्णलताएँ फैली हुई थीं । उनपर वैठे हुए मयूरादि कई प्रकार के स्थलचारी पक्षियों के जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे । उनकी षड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँति से कूजने लगते थे । इससे वहाँ के कमलवन से सुशोभित निर्मल सरोवर गुंजने लगते थे ॥ ४ ॥ पूर्वचित्ति की विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पाद-विन्यास की शैली से पद-पद पर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी । उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्र ने समाधियोग द्वारा मुँदे हुए अपने कमल-कली के समान सुन्दर नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी । वह भ्रमरी के समान एक-एक फुल के पास जाकर उसे सूंघती थी तथा देवता और मनुष्यों के मन और नयनों को आह्लादित करनेवाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीडा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अङ्गावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेव के प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी । जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुख से अमृतमय मादक मधु झर रहा है । उसके नि:श्वास के गन्ध से मदान्ध होकर भौंरे उसके मुख-कमल को घेर लेते, तब वह उनसे बचने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुच-कलश, वेणी और करधनी हिलने से बड़े ही सुहावने लगते । यह सब देखने भगवान् कामदेव को आग्नीध्र के हृदय में प्रवेश करने का अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करने के लिये पागल की भाँति इस प्रकार कहने लगे — ॥ ५-६ ॥ ‘मुनिवर्य ! तुम कौन हो, इस पर्वत पर तुम क्या करना चाहते हो ? तुम परमपुरुष श्रीनारायण की कोई माया तो नहीं हो ? [ भौहों की ओर संकेत करके-] सखे ! तुमने ये बिना डोरी के दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं ? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है, अथवा इस ‘संसारारण्य में मुझ जैसे मतवाले मृगों का शिकार करना चाहते हो ! ॥ ७ ॥ [कटाक्षों को लक्ष्य करके — ] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं । अहो ! इनके कमलदल के पंख हैं, देखने में बड़े शान्त हैं और हैं भी पंखहीन । यहाँ वन में विचरते हुए तुम इन्हें किस पर छोड़ना चाहते हो ? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करनेवाला नहीं दिखायी देता । तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जडबुद्धियों के लिये कल्याणकारी हो ॥ ८ ॥ [भौंरों की ओर देखकर — ] भगवन् ! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगान करते हुए मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेद की शाखाओं का अनुसरण करते हैं उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटों से झड़े हुए पुष्पों का सेवन कर रहे हैं ॥ ९ ॥ [नूपुरों के शब्द की ओर संकेत करके — ] ब्रह्मन् ! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में जो तीतर बंद हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखने में नहीं आता । [करधनी सहित पीली साड़ी में अङ्ग की कान्ति की उत्प्रेक्षा कर — ] तुम्हारे नितम्बों पर यह कदम्ब कुसुमकी-सी आभा कहाँ से आ गयी ? इनके ऊपर तो अंगारों का मण्डल-सा भी दिखायी देता है । किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है ? ॥ १० ॥ [कुङ्कममण्डित कुचों की ओर लक्ष्य करके — ] द्विजवर ! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगों में क्या भरा हुआ हैं ? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इससे तो तुम्हारा मध्यभाग इतना कृश होने पर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो । यहाँ जाकर तो मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी हैं । और सुभग ! इन सींगो पर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा हैं ? इसकी गन्ध से तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है ॥ ११ ॥ मित्रवर ! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँ के निवासी अपने वक्षःस्थल पर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियों के चित्त को क्षुब्ध कर दिया है तथा मुख में विचित्र हाव-भाव, सरस-भाषण और अधरामृत-सी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं ॥ १२ ॥ ‘प्रियवर ! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खाने से तुम्हारे मुख़ से हवन-सामग्रीकी-सी सुगन्ध फैल रही हैं ? मालूम होता है, तुम कोई विष्णु भगवान् की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानों में कभी पलक न मारनेवाले मकर के आकार के दो कुण्डल हैं । तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवर के समान हैं । उसमें तुम्हारे चञ्चल नेत्र भय से काँपती हुई दो मछलियों के समान, दन्तपंक्ति हंसो के समान और घुँघराली अलकावली भौरों के समान शोभायमान हैं ॥ १३ ॥ तुम जब अपने करकमलों से थपकी मारकर इस गेंद को उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओं में जाती हुई मेरे नेत्रों को तो चंचल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मन में भी खलबली पैदा कर देती है । तुम्हारा बाँका जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते नहीं ? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट हैं जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्र को उड़ा देता है ॥ १४ ॥ तपोधन ! तपस्वियों के तप को भ्रष्ट करनेवाला यह अनूप रूप तुमने किस तप के प्रभाव पाया है ? मित्र ! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो । अथवा, कहीं विश्वविस्तार की इच्छा से ब्रह्माजी ने ही तो मुझपर कृपा नहीं की है ॥ १५ ॥ सचमुच, तुम ब्रह्माजी की ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता । तुममें तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते । सुन्दर सींगोंवाली ! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तो तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मङ्गलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें ॥ १६ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान् और स्त्रियों को प्रसन्न करने में बड़े कुशल थे । उन्होंने इसी प्रकार की रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातों से उस अप्सरा को प्रसन्न कर लिया ॥ १७ ॥ वीर-समाज में अग्रगण्य आग्नीध्र की बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारता से आकर्षित होकर वह इन जम्बूद्वीपाधिपति के साथ कई हजार वर्षों तक पृथ्वी और स्वर्ग के भोग भोगती रहीं ॥ १८ ॥ तदनन्तर नृपवर आग्नीध्र ने उसके गर्भ से नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नाम के नौ पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥ इस प्रकार नौ वर्ष में प्रतिवर्ष एक के क्रम से नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचित्ति उन्हें राजभवन में ही छोड़कर फिर ब्रह्माजी की सेवामें उपस्थित हो गयी ॥ २० ॥ ये आग्नीध्र के पुत्र माता के अनुग्रह से स्वभाव से ही सुडौल और सबल शरीरवाले थे । आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के विभाग करके उन्हीं के समान नामवाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्र को सौंप दिया । तब वे सब अपने-अपने वर्ष का राज्य भोगने लगे ॥ २१ ॥ महाराज आग्नीध्र दिन-दिन भोगों को भोगते रहने पर भी उनसे अतृप्त ही रहे । वे उस अप्सरा को ही परम पुरुषार्थ समझते थे । इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मों के द्वारा उसी लोक को प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपने सुकृतों के अनुसार तरह-तरह के भोगों में मस्त रहते हैं ॥ २२ ॥ पिता के परलोक सिधारने पर नाभि आदि नौ भाइयों ने मेरु की मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा और देववति नाम की नौ कन्याओं से विवाह किया ॥ २३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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