श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय ५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पाँचवाँ अध्याय
ऋषभजीका अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना

श्रीऋषभदेवजी ने कहा — पुत्रो ! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं हैं । ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कुकरादि को भी मिलते ही हैं । इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो; क्योंकि इससे अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के सङ्ग को नरक का द्वार बताया है । महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार-सम्पन्न हों ॥ २ ॥ अथवा मुझ परमात्मा प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करनेवाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिनकीं अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीरनिर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों ॥ ३ ॥ मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही होती है । मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसके कारण आत्मा को यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

जबतक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभीतक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है । जबतक यह लौकिक-वैदिक कर्मों में फँसा रहता है, तबतक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देह-बन्धन की प्राप्ति होती है ॥ ५ ॥ इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्मस्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों में ही प्रवृत्त करता है । अतः जबतक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तबतक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता ॥ ६ ॥ स्वार्थ में पागल जीव जबतक विवेकदृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओ को मिथ्या नहीं देखता, तबतक आत्मस्वरूप की स्मृति खो बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह क्लेश उठाता रहता है ॥ ७ ॥


स्त्री और पुरूष — इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं । देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही हैं । इसी के कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदि में भी ‘मैं’ और ‘मेरे’पन का मोह हो जाता है ॥ ८ ॥ जिस समय कर्म-वासना के कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-प्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्यभाव से निवृत्त हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहङ्कार को त्यागकर सर्व प्रकार के बन्धन से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥ पुत्रो ! संसारसागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सबके आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान् में भक्तिभाव रखने से, मेरे परायण रहने से, तृष्णा के त्याग से, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों के सहने से ‘जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है । इस विचार से, तत्त्व-जिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्याग से, मेरे ही लिये कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्यप्रति श्रवण करने से, मेरे भक्तों के सङ्ग और मेरे गुणों के कीर्तन से, वैरत्याग से, समता से, शान्ति से और शरीर तथा घर आदि में मैं-मेरेपन के भाव को त्यागने की इच्छा से, अध्यात्मशास्त्र के अनुशीलन से, एकान्त सेवन से, प्राण, इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्यकर्मो में निरन्तर सावधान रहने से, वाणी के संयम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने से. अनुभवज्ञानसहित तत्त्वविचार से और योगसाधन से अहङ्काररूप अपने लिङ्गशरीर को लीन कर दे ॥ १०-१३ ॥ मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्या से प्राप्त इस हृदयग्रन्थिरूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योकि यही कर्मसंस्कारों के रहने का स्थान है । तदनन्तर साधन का भी परित्याग कर दे ॥ १४ ॥

जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे । अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उनपर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में प्रवृत्त न होने दे । उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों मे लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्य को जान-बूझकर गढ़े में ढकेल देना । इससे भला, किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है ॥ १५ ॥ अपना सच्चा कल्याण किस बात में हैं, इसको लोग नहीं जानते; इसी से वे तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फंसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषयभोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं । वे मूर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि अनन्त घोर दुःखों को प्राप्ति होगी ॥ १६ ॥ गढ़े में गिरने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँखवाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे, या जाने के लिये प्रेरणा करे ॥ १७ ॥ जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं हैं, स्वजन स्वजन नहीं हैं, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं हैं, इष्टदेव इष्टदेव नहीं हैं और पति पति नहीं हैं ॥ १८ ॥

मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं हैं । शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय हैं और उसमें धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इससे सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं ॥ १९ ॥ तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो । उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और यहीं तुम्हारा प्रजापालन भी हैं ॥ २० ॥ अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ है, उनसे चलनेवाले जीव श्रेष्ठ और उनमें भी कीटादि को अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ पशुओं से मनुष्य, मनुष्यों से प्रमथगण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्व से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं ॥ २१ ॥ उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं । इन्द्र से भी ब्रह्माजी के पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं । ब्रह्माजी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं । वे ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ । वे भी मुझसे उत्पन्न हैं और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ । परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ , क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ ॥ २२ ॥

[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके] विप्रगण ! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ । लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख़ में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ । वैसे अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता ॥ २३ ॥ जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि — आठ गुणों से सम्पन्न हैं — उन ब्राह्मणों से बढ़कर और कौन हो सकता हैं ॥ २४ ॥ मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की भी सामर्थ्य रखता हूँ, किन्तु मेरे अकिंचन भक्त ऐसे नि:स्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं ? ॥ २५ ॥

पुत्रों ! तुम सम्पुर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध-बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा को, यही मेरी सच्ची पूजा है ॥ २६ ॥ मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टा का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन ही है । इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता ॥ २७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! ऋषभदेवजी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के उद्देश्य से महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया । ऋषभदेवजी के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे । वे भगवान् के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे । ऋषभदेवजी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिये बिल्कुल विरक्त हो गये । केवल शरीरमात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया । अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये । उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे । उन्मत्त का-सा वेष था । इस स्थिति में वे आह्वनीय (अग्निहोत्र की) अग्नियों को अपने में ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये ॥ २८ ॥ वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे । जड, अंधे, बहरे, गूँगे, पिशाच और पागलोंकी-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचरने लगे ॥ २९ ॥

कभी नगरों और गाँवों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों, बगीचों, पहाड़ी गाँवों, सेना की छावनियों, गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिकने के स्थानों में रहते । कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम आदि में विचरते । वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वन में विचरनेवाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्टलोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते । कोई धमकी देते, कोई मारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका तिरस्कार करते । किन्तु वे इन सब बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते । इसका कारण यह था कि भ्रम से सत्य कहे जानेवाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी । वे कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूप में ही स्थित थे, इसलिये अखण्ड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे ॥ ३० ॥

यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहे, कंधे, गले और मुख आदि अङ्गों की बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभाव से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुसकान से और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे । उनकी पुतलियाँ शीतल एवं संतापहारिणी थीं । उन नेत्रों के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे । कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्ययुक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुर-नारियों के चित्त में कामदेव का सञ्चार हो जाता था; तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंग की लम्बी-लम्बी धुंघराली लटें लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और अवधूतों के समान धूलिधूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते थे ॥ ३१ ॥

जब भगवान् ऋषभदेव ने देखा कि यह जनता योगसाधन में विघ्नरुप है और इससे बचने का उपाय बीभत्सवृत्ति से रहना ही है, तब उन्होंने अजगरवृत्ति धारण कर ली । वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने, चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे । वे अपने त्यागे हुए मल में लोट-लोटकर शरीर को उससे सान लेते ॥ ३२ ॥ (किन्तु) उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे देश को सुगन्धित कर देती थी ॥ ३३ ॥ इसी प्रकार गौ, मृग और काकादि की वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हीं के समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही खाने-पीने और मल-मूत्र का त्याग करने लगते थे ॥ ३४ ॥ परीक्षित् ! परमहंसों को त्याग के आदर्श की शिक्षा देने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव ने कई तरह की योगचर्याओं का आचरण किया । वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् आनन्द का अनुभव करते रहते थे । उनकी दृष्टि में निरुपाधिकरूप से सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा अपने आत्मस्वरूप भगवान् वासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था । इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे । उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मन की गति के समान ही शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुंच जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश करना), दूर की बातें सुन लेना और दूर के दृश्य देख लेना आदि सब प्रकार की सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करने को आयीं; परन्तु उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया ॥ ३५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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