March 8, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय ६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय छठा अध्याय ऋषभदेवजी का देहत्याग राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! योगरूप वायु से प्रचलित हुई ज्ञानाग्नि से जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं उन आत्माराम मुनियों को दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायें, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशों का कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकती । फिर भगवान् ऋषभ ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया ? ॥ १ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसार में जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृग का विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चञ्चल चित्त का भरोसा नहीं करते ॥ २ ॥ ऐसा ही कहा भी हैं — ‘इस चञ्चल चित्त से कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये । इसमें विश्वास करने से ही मोहिनीरूप में फंसकर महादेवजी का चिरकाल का सञ्चित तप क्षीण हो गया था ॥ ३ ॥ जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुष को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखनेवाले पति का वध करा देती है उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता हैं ॥ ४ ॥ काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बन्धन का मूल तो यह मन ही है; इसपर कोई भी बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता हैं ?’ ॥ ५ ॥ इसी से भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड़ पुरुषों की भाँति अवधूतों के-से विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे । अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा । वे अपने अन्तःकरण में अभेदरूप से स्थित परमात्मा को अभिन्नरूप से देखते हुए वासनाओं की अनुवृत्ति से छूटकर लिङ्गदेह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये ॥ ६ ॥ इस प्रकार लिङ्देह के अभिमान से मुक्त भगवान् ऋषभदेवजी का शरीर योगमाया की वासना से केवल अभिमानाभास के आश्रय ही इस पृथ्वीतल पर विचरता रहा । वह दैववश कोङ्क, वेङ्क और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बररूप से कुटकाचल के वन में घूमने लगा ॥ ५ ॥ इसी समय झंझावात से झकझोरे हुए बाँसो के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेवजी के सहित भस्म कर दिया ॥ ८ ॥ राजन् ! जिस समय कलियुग में अधर्म की वृद्धि होगी, उस समय कोङ्क, वेङ्क और कुटक देशका मन्दमति राजा अर्हत् वहाँ के लोगों से ऋषभदेवजी के आश्रमातीत आचरण वृतान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहणकर लोगों के पूर्वसञ्चित पापफलरूप होनहार के वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा ॥ ९ ॥ उससे कलियुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचार को छोड़ बैठेंगे । अधर्मबहुल कलियुग के प्रभाव से बुद्धिहीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करनेवाले पाखण्डधर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुष की निन्दा करने लगेंगे ॥ १० ॥ वे अपनी इस नवीन अवैदिक स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति अन्धपरम्परा से विश्वास करके मतवाले रहने के कारण स्वयं ही घोर नरक में गिरेंगे ॥ ११ ॥ भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिये ही हुआ था ॥ १२ ॥ इसके गुणों का वर्णन करते हुए लोग इन वाक्यों को कहा करते हैं — ‘अहो ! सात समुद्रोंवाली पृथ्वी के समस्त द्वीप और वर्षों में यह भारतवर्ष बड़ी ही पुण्यभूमि है, क्योंकि यहाँ के लोग श्रीहरि के मङ्गलमय अवतार-चरित्रों का गान करते हैं ॥ १३ ॥ अहो ! महाराज प्रियव्रत का वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण हैं, जिसमें पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार लेकर मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले पारमहंस्य धर्म का आचरण किया ॥ १४ ॥ अहो ! इन जन्मरहित भगवान् ऋषभदेव के मार्ग पर कोई दूसरा योगी मन से भी कैसे चल सकता है । क्योंकि योगीलोग जिन योगसिद्धियों के लिये लालायित होकर निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें इन्होंने अपने-आप प्राप्त होने पर भी असत् समझकर त्याग दिया था’ ॥ १५ ॥ राजन् ! इस प्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देवता, ब्राह्मण और गौओं के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया । यह मनुष्यों के समस्त पापों को हरनेवाला है । जो मनुष्य इस परम मङ्गलमय पवित्र चरित्र को एकाग्रचित्त से श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनते या सुनाते हैं, उन दोनों को ही भगवान् वासुदेव में अनन्य भक्ति हो जाती है ॥ १६ ॥ तरह-तरह के पापों से पूर्ण सांसारिक तापों से अत्यन्त तपे हुए अपने अन्तःकरण को पण्डितजन इस भक्ति-सरिता में ही नित्य-निरन्तर नहलाते रहते हैं । इससे उन्हें जो परम शान्ति मिलती हैं, वह इतनी आनन्दमयी होती है कि फिर वे लोग उसके सामने, अपने-ही-आप प्राप्त हुए मोक्षरूप परम पुरुषार्थ का भी आदर नहीं करते । भगवान् के निजजन हो जाने से ही उनके समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं ॥ १७ ॥ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं पाण्डवलोगों के और यदुवंशियो के रक्षक, गुरु, इष्टदेव, सुहृद् और कुलपति थे; यहाँ तक कि वे कभी-कभी आज्ञाकारी सेवक भी बन जाते थे । इसी प्रकार भगवान् दुसरे भक्तों के भी अनेकों कार्य कर सकते हैं और उन्हें मुक्ति भी दे देते हैं, परन्तु मुक्ति से भी बढ़कर जो भक्तियोग हैं, उसे सहज में नहीं देते ॥ १८ ॥ निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होनेवाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार हैं ॥ १९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related