March 12, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय ९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नवाँ अध्याय भरतजी का ब्राह्मणकुल में जन्म श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! आङ्गिरस गोत्र में शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदि को अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरों के गुणों में दोष न ढूँढ़ना), आत्मज्ञान (आत्मा के कर्तृत्व और भोकृत्व का ज्ञान) व आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणों से सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे । उनकी बड़ी स्त्री से उन्हीं के समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ ॥ १ ॥ इन दोनों में जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे । वे मृगशरीर का परित्याग करके अन्तिम जन्म में ब्राह्मण हुए थे — ऐसा महापुरुषों का कथन है ॥ २ ॥ इस जन्म में भी भगवान् की कृपा से अपनी पूर्व-जन्मपरम्परा का स्मरण रहने के कारण, वे इस आशङ्का से कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनों के सङ्ग से भी बहुत डरते थे । हर समय — जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्मबन्धन को काट देता है, श्रीभगवान् के उन युगल चरणकमलों को ही हृदय में धारण किये रहते तथा दूसरों की दृष्टि में अपने को पागल, मूर्ख, अंधे और बहरे के समान दिखाते ॥ ३ ॥ पिता का तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था । इसलिये ब्राह्मणदेवता ने अपने पागल पुत्र के भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाह से पूर्व के सभी संस्कार करने के विचार से उनका उपनयनसंस्कार किया । यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिता का कर्तव्य है कि पुत्र को शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मों की शिक्षा दी ॥ ४ ॥ किन्तु भरतजी तो पिता के सामने ही उनके उपदेश के विरुद्ध आचरण करने लगते थे । पिता चाहते थे कि वर्षाकाल में इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दें । किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतु के चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ — चार महीनों तक पढ़ाते रहने पर भी वे इन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्रप्रणव के सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ ५ ॥ ऐसा होनेपर भी अपने इस पुत्र में उनका आत्मा के समान अनुराग था । इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होनेपर भी वे ‘पुत्र को अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये’ इस अनुचित आग्रह से उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्नि की सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रम के आवश्यक नियमों की शिक्षा देते ही रहे । किन्तु अभी पुत्र को सुशिक्षित देखने का उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्धजनरूप अपने मुख्य कर्तव्य से असावधान रहकर केवल घर के धंधों ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान् ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया ॥ ६ ॥ तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भ से उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौत को सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोक को चली गयी ॥ ७ ॥ भरतजी के भाई कर्मकाण्ड को सबसे श्रेष्ठ समझते थे । वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्या से सर्वथा अनभिज्ञ थे । इसलिये उन्हें भरतजी का प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे । अतः पिता के परलोक सिधारने पर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखाने का आग्रह छोड़ दिया ॥ ८ ॥ भरतजी को मानापमान का कोई विचार न था । जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवी बहरा कहकर पुकारते तब वे भी उसके अनुरूप भाषण करने लगते । कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छा के अनुसार कर देते । बेगार के रूप में, मजदूरी के रूप में, माँगने पर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते । अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होनेवाला स्वतःसिद्ध केवल ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वों से होनेवाले सुख-दुःखादि में उन्हें देहाभिमान की स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ ९ ॥ वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधी के समय साँड़ के समान नंगे पड़े रहते थे । उनके सभी अङ्ग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे । वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी । उनका ब्रहातेज धूलि से ढके हुए मूल्यवान् मणि के समान छिप गया था । वे अपनी कमर में एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे । उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था । इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज हैं’, ‘कोई अधम ब्राह्मण हैं’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ १० ॥ दूसरों की मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयों ने खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया तब वे उस कार्य को भी करने लगे । परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी । उनके भाई उन्हें चावल की कनी, मुली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन — जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृत के समान खा लेते थे ॥ ११ ॥ किसी समय डाकुओं के सरदार ने, जिसके सामन्त शूद्र जाति के थे, पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया ॥ १२ ॥ उसने जो पुरुष-पशु बलि देने के लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदे से निकलकर भाग गया । उसे ढूँढ़ने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता नहीं लगा । इसी समय दैवयोग से अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमार पर पड़ी, जो वीरासन से बैठे हुए मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे ॥ १३ ॥ उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा । यह सोचकर उनका मुख आनन्द से खिल उठा और वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये ॥ १४ || तदनन्तर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया । फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अङ्कुर और फल आदि उपहार-सामग्री सहित बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदङ्ग एवं ढोल आदि का महान् शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर करके बैठा दिया ॥ १५ ॥ इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने उस नर-पशु रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ॥ १६ ॥ चोर स्वभाव से तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धन के मद से उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था । हिंसा में भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी । इस समय तो वे भगवान् के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुल का तिरस्कार करके स्वच्छन्दता से कुमार्ग की ओर बढ़ रहे थे । आपत्तिकाल में भी जिस हिंसा का अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मण-वध को सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे । यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रह्मतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोड़कर प्रकट हो गयीं ॥ १७ ॥ अत्यन्त असहनशीलता और क्रोध के कारण उनको भौहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखों के कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था । उनके उस विकराल वेष को देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसार का संहार कर डालेंगी । उन्होंने क्रोध से तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्ग से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ॥ १८॥ सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! जिनको देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी हैं, जो समस्त प्राणियों के सुहद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चुकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान् के निर्भय चरणकमलों का आश्रय ले रखा है — उन भगवद्भक्त परमहंसों के लिये अपना सिर कटने का अवसर आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना — यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ॥ २० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related