श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय १०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दसवाँ अध्याय
जड़भरत और राजा रहूगण की भेंट

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर जा रहा था । जब वह इक्षुमती नदी के किनारे पहुँचा तब उसकी पालकी उठानेवाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी । कहार की खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण देवता मिल गये । इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अङ्गोंवाला है । इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है । यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात्कार से पकड़कर पालकी में जोड़ दिया । महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य क्रे योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकी को उठा ले चले ॥ १ ॥

वे द्विजवर, कोई जीव पैरों तले दब न जाय इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे । इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पालकी उठानेवालों से कहा — ‘अरे कहारो ! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँच-नीची करके क्यों चलते हो ?’ ॥ २ ॥ तब अपने स्वामी का यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा उन्हें दण्ड न दें । इसलिये उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया ॥ ३ ॥ ‘महाराज ! यह हमारा प्रमाद नहीं हैं, हम आपको नियम मर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं । यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता । हमलोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’ ॥ ४ ॥

कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होनेवाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषों में आ सकता हैं । इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेगे ।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया । यद्यपि उसने महापुरुषों का सेवन किया था, तथापि क्षत्रियस्वभाववश बलात्कार से उसकी बुद्धि रजोगुण से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका ब्रह्मतेज भस्म से ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यङ्ग से भरे वचन कहने लगा — ॥ ५ ॥ ‘अरे भैया ! बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो । ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया । इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो । तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं हैं, और मित्र ! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है । इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे ! उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण का संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था । वह विविध अङ्गों से युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपन का मिथ्या अभ्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे ॥ ६ ॥

(किन्तु) पालकी अब भी सीधी चाल से नहीं चल रही हैं — यह देखकर राजा रहूगण क्रोध से आग-बबूला हो गया और कहने लगा, ‘अरे ! यह क्या ? क्या तू जीता ही मर गया हैं ? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञा का उल्लङ्घन कर रहा है ! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी हैं । अरे ! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज़ किये देता हूँ । तब तेरे होश ठिकाने आ जायेंगे’ ॥ ७ ॥ रहूगण को राजा होने का अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया । वह अपने को बड़ा पण्डित समझाता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमान के वशीभूत होकर उसने भगवान् के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरतजी का तिरस्कार कर डाला । योगेश्वरों की विचित्र कहनी-करनी का तो उसे कुछ पता ही न था । उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मणदेवता मुसकराये और बिना किसी प्रकार का अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे ॥ ८ ॥

जडभरत ने कहा — राजन् ! तुमने जो कुछ कहा वह यथार्थ हैं । उसमें कोई उलाहना नहीं है । यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोनेवाले के लिये हैं, यदि कोई मार्ग है तो वह चलनेवाले के लिये है । मोटापन भी उसका हैं, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्मा के लिये नहीं । ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते ॥ ९ ॥ स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शक्ति — ये सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होनेवाले जीव में रहते हैं; मुझमें इनका लेश भी नहीं हैं ॥ १० ॥ राजन् ! तुमने जो जीने-मरने की बात कही-सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं, उन सभी में नियमितरूप से ये दोनों बातें देखी जाती हैं । क्योकि वे सभी आदि-अन्तवाले हैं । यशस्वी नरेश ! जहाँ स्वामी-सेवकभाव स्थिर हो, वहीं आज्ञापालनादि का नियम भी लागू हो सकता हैं ॥ ११ ॥ ‘तुम राजा हो और में प्रजा हूँ । इस प्रकार की भेदबुद्धि के लिये मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता । परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो किसे स्वामी कहें और किसे सेवक ? फिर भी राजन् ! तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान हैं तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ॥ १२ ॥ वीरवर ! मैं मत्त, उन्मत्त और जड़ के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूँ । मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा ? यदि में वास्तव में जड़ और प्रमादी ही हूँ, तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही होगा ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! मुनिवर जड़भरत यथार्थ तत्त्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये । उनका देहात्मबुद्धि का हेतुभूत अज्ञान निवृत्त हो चुका था, इसलिये वे परम शान्त हो गये थे । अतः इतना कहकर भोग द्वारा प्रारब्धक्षय करने के लिये वे फिर पहले ही समान उस पालकी को कन्धे पर लेकर चलने लगे ॥ १४ ॥ सिन्धु-सौवीरनरेश रहूगण भी अपनी उत्तम श्रद्धा के कारण तत्त्वजिज्ञासा का पूरा अधिकारी था । जब उसने उन द्विजश्रेष्ठ के अनेक योग-ग्रन्थों से समर्थित और हृदय की ग्रन्थि का छेदन करनेवाले ये वाक्य माने, तब वह तत्काल पालकी से उतर पड़ा । उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा — ॥ १५ ॥

‘देव ! आपने द्विजों का चिह्न यज्ञोपवीत धारण कर रखा हैं, बतलाइये इस प्रकार प्रच्छन्नभाव से विचरनेवाले आप कौन हैं ? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूत में से कोई है ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्यमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ? ॥ १६ ॥ मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न में महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से । मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है, परन्तु में ब्राह्मणकुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ ॥ १७ ॥ अतः कृपया बतलाइये, इस प्रकार अपने विज्ञान और शक्ति को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरनेवाले आप कौन हैं ? विषयों से तो आप सर्वथा अनासक्त जान पड़ते हैं । मुझे आपकी कोई थाह नहीं मिल रही है । साधो ! आपके योगयुक्त वाक्यों की बुद्धिद्वारा आलोचना करने पर भी मेरा सन्देह दूर नहीं होता ॥ १८ ॥ मैं आत्मज्ञानी मुनियों के परम गुरु और साक्षात् श्रीहरि की ज्ञानशक्ति के अवतार योगेश्वर भगवान् कपिल से यह पूछने के लिये जा रहा था कि इस लोक में एकमात्र शरण लेने योग्य कौन है ॥ १९ ॥ क्या आप वे कपिलमुनि ही हैं, जो लोकों की दशा देखने लिये इस प्रकार अपना रूप छिपाकर विचर रहे हैं ? भला, घर में आसक्त रहनेवाला विवेकहीन पुरुष योगेश्वरों की गति कैसे जान सकता है ? ॥ २० ॥

मैंने युद्धादि कर्मों में अपने को श्रम होते देखा है, इसलिये मेरा अनुमान है कि बोझा ढोने और मार्ग में चलने से आपको भी अवश्य ही होता होगा । मुझे तो व्यवहार-मार्ग भी सत्य ही जान पड़ता हैं, क्योंकि मिथ्या घडे से जल लाना आदि कार्य नहीं होता ॥ २१ ॥ (देहादि के धर्मों का आत्मा पर कोई प्रभाव ही नहीं होता, ऐसी बात भी नहीं है) चूल्हे पर रखी हुई बटलोई जब अग्नि से तपने लगती है, तब उसका जल भी खोलने लगता है और फिर उस जल से चावल का भीतरी भाग भी पक जाता है । इसी प्रकार अपनी उपाधि धर्मों का अनुवर्तन करने के कारण देह, इन्द्रिय, प्राण और मन की सन्निधि से आत्मा को भी उनके धर्म श्रमादि का अनुभव होता ही है ॥ २२ ॥ आपने जो दण्डादि की व्यर्थता बतायी, सो राजा तो प्रजा का शासन और पालन करने के लिये नियुक्त किया हुआ उसका दास ही हैं । उसका उन्मत्तादि को दण्ड देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि अपने धर्म का आचरण करना भगवान् की सेवा ही है, उसे करनेवाला व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण पापराशि को नष्ट कर देता हैं ॥ २३ ॥

‘दीनबन्धो ! राजत्व के अभिमान से उन्मत्त होकर मैने आप-जैसे परम साधु की अवज्ञा की है । अब आप ऐसी कृपादृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञारूप अपराध से में मुक्त हो जाऊँ ॥ २४ ॥ आप देहाभिमानशून्य और विश्वबन्धु श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं । इसलिये सबमें समान दृष्टि होने से इस मानापमान के कारण आपमें कोई विकार नहीं हो सकता तथापि एक महापुरुष का अपमान करने के कारण मेरे-जैसा पुरुष साक्षात् त्रिशूलपाणि महादेवजी के समान प्रभावशाली होनेपर भी, अपने अपराध से अवश्य थोड़े ही काल में नष्ट हो जायगा’ ॥ २५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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