श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय १५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पंद्रहवाँ अध्याय
भरत के वंश का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! भरतजी का पुत्र सुमति था, यह पहले कहा जा चुका है । उसने ऋषभदेवजी के मार्ग का अनुसरण किया । इसीलिये कलियुग में बहुत-से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धि से वेदविरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेगे ॥ १ ॥ उसकी पत्नी वृद्धसेना से देवताजित् नामक पुत्र हुआ ॥ २ ॥ देवताजित् के असुरी के गर्भ से देवद्युम्न, देवद्युम्न के धेनुमती से परमेष्ठी और उसके सुवर्चला के गर्भ से प्रतीह नाम का पुत्र हुआ ॥ ३ ॥ इसने अन्य पुरुषों को आत्मविद्या का उपदेश कर स्वयं शुद्धचित्त होकर परमपुरुष श्रीनारायण का साक्षात् अनुभव किया था ॥ ४ ॥

प्रतीह की भार्या सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता और उद्गाता नाम के तीन पुत्र हुए । ये यज्ञादि कर्मों में बहुत निपुण थे । इनमें प्रतिहर्ता की भार्या स्तुति थी । उसके गर्भ से अज और भूमा नाम के दो पुत्र हुए ॥ ५ ॥ भूमा के ऋषिकुल्या से उद्गीथ, उसके देवकुल्या से प्रस्ताव और प्रस्ताव के नियुत्सा के गर्भ से विभु नाम का पुत्र हुआ । विभु के रति के उदर से पृथुषेण, पृथुषेण के आकूति से नक्त और नक्त के द्रुति के गर्भ से उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गय का जन्म हुआ । ये जगत् की रक्षा के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार करनेवाले साक्षात् भगवान् विष्णु के अंश माने जाते थे । संयमादि अनेकों गुणों के कारण इनकी महापुरुषों में गणना की जाती है ॥ ६ ॥ महाराज गय ने प्रजा के पालन, पोषण, रञ्जन, लाड़-चाव और शासनादि करके तथा तरह-तरह के यज्ञ का अनुष्ठान करके निष्कामभाव से केवल भगवत्प्रीति के लिये अपने धर्मों का आचरण किया । इससे उनके सभी कर्म सर्वश्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा श्रीहरि के अर्पित होकर परमार्थरूप बन गये थे । इससे तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के चरणों की सेवासे उन्हें भक्तियोग की प्राप्ति हुई । तब निरन्तर भगवच्चिन्तन करके उन्होंने अपना चित्त शुद्ध किया और देहादि अनात्म- वस्तुओं से अहंभाव हटाकर वे अपने आत्मा को ब्रह्मरूप अनुभव करने लगे । यह सब होने पर भी वे निरभिमान होकर पृथ्वी का पालन करते रहे ॥ ७ ॥

परीक्षित् ! प्राचीन इतिहास को जाननेवाले महात्माओं ने राजर्षि गय के विषय में यह गाथा कही है ॥ ८ ॥ ‘अहो ! अपने कर्मों से महाराज गय की बराबरी और कौन राजा कर सकता है ? वे साक्षात् भगवान् की कला ही थे । उन्हें छोड़कर और कौन इस प्रकार यज्ञों का विधिवत् अनुष्ठान करनेवाला, मनस्वी, बहुज्ञ, धर्म की रक्षा करनेवाला, लक्ष्मी का प्रियपात्र, साधु समाज का शिरोमणि और सत्पुरुष का सच्चा सेवक हो सकता है ?’ ॥ ९ ॥ सत्यसङ्कल्पवाली परम साध्वी श्रद्धा, मैत्री और दया आदि दक्षकन्याओं ने गङ्गा आदि नदियों के सहित बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिषेक किया था तथा उनकी इच्छा न होने पर भी वसुन्धरा ने, गौ जिस प्रकार बछड़े के स्नेह से पिन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार उनके गुणों पर रीझकर प्रजा को धन-रत्नादि सभी अभीष्ट पदार्थ दिये थे ॥ १० ॥ उन्हें कोई कामना न थी, तब भी वेदोक्त कर्मों ने उनको सब प्रकार के भोग दिये, राजाओं ने युद्धस्थल में उनके बाणों से सत्कृत होकर नाना प्रकार की भेंटें दी तथा ब्राह्मणों ने दक्षिणादि धर्म से सन्तुष्ट होकर उन्हें परलोक में मिलनेवाले अपने धर्मफल का छठा अंश दिया ॥ ११ ॥ उनके यज्ञ में बहुत अधिक सोमपान करने से इन्द्र उन्मत्त हो गये थे तथा उनके अत्यन्त श्रद्धा तथा विशुद्ध और निश्चल भक्तिभाव से समर्पित किये हुए यज्ञफल को भगवान् यज्ञपुरुष ने साक्षात् प्रकट होकर ग्रहण किया था ॥ १२ ॥ जिनके तृप्त होने से ब्रह्माजी से लेकर देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष एवं तृष्णपर्यन्त सभी जीव तत्काल तृप्त हो जाते हैं — ने विश्वात्मा श्रीहरि नित्यतृप्त होकर भी राजर्षि गय के यज्ञ में तृप्त हो गये थे । इसलिये उनकी बराबरी कोई दूसरा व्यक्ति कैसे कर सकता हैं ?॥ १३ ॥

महाराज गय के गयन्ती के गर्भ से चित्ररथ, सुगति और अवरोधन नामक तीन पुत्र हुए । उनमें चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट् का जन्म हुआ ॥ १४ ॥ सम्राट् के उत्कला से मरीचि और मरीचि के बिन्दुमती से बिन्दुमान् नामक पुत्र हुआ । उसके सरघा से मधु, मधु के सुमना से वीरव्रत और वीरव्रत के भोजा से मन्थु और प्रमन्थु नाम के दो पुत्र हुए । उनमें से मन्थु के सत्या के गर्भ से भौवन, भौवन के दूषणा के उदर से त्वष्टा, त्वष्टा के विरोचना से विरज और विरज के विषूची नाम की भार्या से शतजित् आदि सौ पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ ॥ १५ ॥ विरज के विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध हैं — ‘जिस प्रकार भगवान् विष्णु देवताओं की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार इस प्रियव्रत-वंश को इसमें सबसे पीछे उत्पन्न हुए राजा विरज ने अपने सुयश से विभूषित किया था’ ॥ १६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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