March 16, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय १६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सोलहवाँ अध्याय भुवनकोश का वर्णन राजा परीक्षित् ने कहा — मुनिवर ! जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है और जहाँ तक तारागण के सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँ तक आपने भूमण्डल का विस्तार बतलाया है ॥ १ ॥ उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रत के रथ के पहियों की सात लीकों से सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डल में सात द्वीपों का विभाग हुआ । अतः भगवन् ! अब मैं इन सबका परिमाण और लक्षणों के सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥ क्योंकि जो मन भगवान् के इस गुणमय स्थूल विग्रह में लग सकता है, उसी का उनके वासुदेव संज्ञक स्वयंप्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूप में भी लगना सम्भव है । अतः गुरुवर ! इस विषय का विशदरूप से वर्णन करने की कृपा कीजिये ॥ ३ ॥ श्रीशुकदेवजी बोले — महाराज ! भगवान् की माया के गुणों का इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष देवताओं के समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणी से इसका अन्त नहीं पा सकता । इसलिये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणों के द्वारा मुख्य-मुख्य बातों को लेकर ही इस भूमण्डल की विशेषताओं का वर्णन करेंगे ॥ ४ ॥ यह जम्बूद्वीप-जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमल के कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतर का कोश है । इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्र के समान गोलाकार है ॥ ५ ॥ इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तारवाले नौ वर्ष हैं, जो इनकी सीमाओं का विभाग करनेवाले आठ पर्वतों से बँटे हुए हैं ॥ ६ ॥ इनके बीचो-बीच इलावृत नाम का दसवाँ वर्ष है, जिसके मध्य में कुलपर्वतों का राजा मेरुपर्वत है । वह मानो भूमण्डलरुप कमल की कर्णिका ही है । वह ऊपर से नीचे तक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है । उसका विस्तार शिखर पर बत्तीस हजार और तलैटी में सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमि के भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमि के बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ॥ ७ ॥ इलावृतवर्ष के उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत और शृङ्गवान् नाम के तीन पर्वत हैं — जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नाम के वर्षों की सीमा बाँधते हैं । वे पूर्व से पश्चिम तक खारे पानी के समुद्र तक फैले हुए हैं । उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाई में पहले की अपेक्षा पिछला क्रमशः दशमांश से कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊँचाई तो सभी की समान हैं ॥ ८ ॥ इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण की ओर एक के बाद एक निषध, हेमकूट और हिमालय नाम के तीन पर्वत हैं । नीलादि पर्वतों के समान ये भी पूर्व-पश्चिम की ओर फैले हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं । इनसे क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष की सीमाओं का विभाग होता है ॥ ९ ॥ इलावृत के पूर्व और पश्चिम की ओर–उत्तर में नील पर्वत और दक्षिण में निषध पर्वत तक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नाम के दो पर्वत हैं । इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन हैं और ये भद्राश्च एवं केतुमाल नामक दो वर्षों की सीमा निश्चित करते हैं ॥ १० ॥ इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद — ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वत की आधारभूता थुनियों के समान बने हुए हैं ॥ ११ ॥ इन चारों के ऊपर इसकी ध्वजों के समान क्रमशः आम, जामुन, कदम्ब और बड़ के चार पेड़ हैं । इनमें से प्रत्येक ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इनकी शाखाओं का विस्तार है । इनकी मोटाई सौ-सौ योजन है ॥ १२ ॥ भरतश्रेष्ठ ! इन पर्वतों पर चार सरोवर भी हैं — जो क्रमशः दूध, मधु, ईख के रस और मीठे जल से भरे हुए हैं । इनका सेवन करनेवाले यक्ष-किन्नरादि उपदेवों को स्वभाव से ही योगसिद्धियाँ प्राप्त हैं ॥ १३ ॥ इनपर क्रमशः नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र नाम के चार दिव्य उपवन भी हैं ॥ १४ ॥ इनमें प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियो के नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं । उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इनकी महिमा का बखान किया करते हैं ॥ १५ ॥ मन्दराचल की गोद में जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओं का आम्रवृक्ष है, उससे गिरिशिखर के समान बड़े-बड़े और अमृत के समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं ॥ १६ ॥ वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मीठा लाल-लाल रस बहने लगता है । वहीं अरुणोदा नाम की नदी में परिणत हो जाता है । यह नदी मन्दराचल के शिखर से गिरकर अपने जल से इलावृत वर्ष के पूर्वीभाग को सोंचती है ॥ १७ ॥ श्रीपार्वतीजी की अनुचरी यक्षपत्नियाँ इस जल का सेवन करती हैं । इससे उनके अङ्गों से ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें स्पर्श करके बहनेवाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगन्ध से भर देती हैं ॥ १८ ॥ इसी प्रकार जामुन के वृक्ष से हाथी के समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठली के फल गिरते हैं । बहुत ऊँचे से गिरने के कारण वे फट जाते हैं । उनके रस से जम्बु नाम की नदी प्रकट होती हैं, जो मेरुमन्दर पर्वत के दस हजार योजन ऊँचे शिखर से गिरकर इलावृत के दक्षिण भू-भाग को सींचती है ॥ १९ ॥ उस नदी के दोनों किनारों की मिट्टी उस रस से भीगकर जब वायु और सूर्य के संयोग से सूख जाती है, तब वही देवलोक को विभूषित करनेवाला जाम्बूनद नाम का सोना बन जाती है ॥ २० ॥ इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियों के सहित मुकुट, कङ्कण और करधनी आदि आभूषणों के रूप में धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सुपार्श्व पर्वत पर जो विशाल कदम्बवृक्ष हैं, उसके पाँच कोटरों से मधु की पाँच धाराएँ निकलती हैं, उनकी मोटाई पाँच पुरसे जितनी है । ये सुपार्श्व के शिखर से गिरकर इलावृतवर्ष के पश्चिमी भाग को अपनी सुगन्ध से सुवासित करती हैं ॥ २२ ॥ जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुख से निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजन तक इसकी महक फैला देती है ॥ २३ ॥ इसी प्रकार कुमुद पर्वत पर जो शतवल्श नाम का वटवृक्ष हैं, उसकी जटाओं से नीचे की ओर बहनेवाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देनेवाले हैं । उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं । ये सब कुमुद के शिखर से गिरकर इलावृत के उत्तरी भाग को सींचते हैं ॥ २४ ॥ इनके दिये हुए पदार्थों का उपभोग करने से वहाँ की प्रजा की त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना, शरीर में पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी-गरमी की पीड़ा, शरीर का कान्तिहीन हो जाना तथा अङ्ग का टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवनपर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है ॥ २५ ॥ राजन् ! कमल की कर्णिका के चारों और जैसे केसर होता है उसी प्रकार मेरु के मूलदेश में उसके चारों ओर कुरङ्ग, कुरर, कुसुम्भ, वैकंक, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक्र, निषध, शिनीवास, कपिल, शङ्ख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद आदि बीस पर्वत और हैं ॥ २६ ॥ इनके सिवा मेरु के पूर्व की ओर जठर और देवकुट नाम के दो पर्वत हैं, जो अठारह-अठारह हजार योजन लंबे तथा दो-दो हजार योजन चौड़े और ऊँचे हैं । इसी प्रकार पश्चिम की ओर पवन और पारियात्र, दक्षिण की ओर कैलास और करवीर तथा उत्तर की ओर विशृङ्ग और मकर नाम के पर्वत हैं । इन आठ पहाड़ों से चारों ओर घिरा हुआ सुवर्णगिरि मेरु अग्नि के समान जगमगाता रहता हैं ॥ २७ ॥ कहते हैं, मेरु के शिखर पर बीचोंबीच भगवान् ब्रह्माजी की सुवर्णमयो पुरी है — जो आकार में समचौरस तथा करोड़ योजन विस्तारवाली हैं ॥ २८ ॥ उसके नीचे पूर्वादि आठ दिशा और उपदिशाओं में उनके अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालों की आठ पुरियाँ हैं । वे अपने-अपने स्वामी के अनुरूप उन्हीं-उन्हीं दिशाओं में हैं तथा परिमाण में ब्रह्माजी की पुरी से चौथाई हैं ॥ २९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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