March 16, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २० ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बीसवाँ अध्याय अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वत का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! अब परिमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार लक्षादि अन्य द्वीपों के वर्षविभाग का वर्णन किया जाता है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीप से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जल के समुद्र से परिवेष्टित है । फिर खाई जिस प्रकार बाहर उपवन से घिरी रहती है, उसी प्रकार क्षारसमुद्र भी अपने से दूने विस्तारवाले प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है । जम्बूद्वीप में जितना बड़ा जामुन का पेड़ है, उतने ही विस्तारवाला यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का वृक्ष है । उसके कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ हैं । यहाँ सात जिह्राओंवाले अग्निदेव विराजते हैं । इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज इध्मजिह्व थे । उन्होंने इसको सात वर्षों में विभक्त किया और उन्हें उन वर्षों के समान ही नामवाले अपने पुत्रों को सौंप दिया तथा स्वयं अध्यात्मयोग का आश्रय लेकर उपरत हो गये ॥ २ ॥ इन वर्षों के नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय हैं । इनमें भी सात पर्वत और सात नदियाँ ही प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥ वहाँ मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल — ये सात मर्यादापर्वत हैं तथा अरुणा, नृम्णा, आङ्गिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा — ये सात महानदियाँ हैं । वहाँ हँस, पतङ्ग. ऊर्ध्वायन और सत्याङ्ग नाम के चार वर्ण हैं । उक्त नदियों के जल में स्नान करने से इनके रजोगुण-तमोगुण क्षीण होते रहते हैं । इनकी आयु एक हजार वर्ष की होती है । इनके शरीरों में देवताओं की भाँति थकावट, पसीना आदि नहीं होता और सन्तानोत्पत्ति भी उन्हीं के समान होती है । ये त्रयीविद्या के द्वारा तीनों वेदों में वर्णन किये हुए स्वर्ग के द्वारभूत आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की उपासना करते हैं ॥ ४ ॥ वे कहते हैं कि जो सत्य (अनुष्ठानयोग्य धर्म) और ऋत (प्रतीत होनेवाले धर्म), वेद और शुभाशुभ फल के अधिष्ठाता हैं — उन पुराणपुरुष विष्णुस्वरूप भगवान् सूर्य की हम शरण में जाते हैं ॥ ५ ॥ प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी मनुष्यों को जन्म से ही आयु, इन्द्रिय, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक बल, बुद्धि और पराक्रम समानरूप से सिद्ध रहते हैं ॥ ६ ॥ प्लक्षद्वीप अपने ही समान विस्तारवाले इक्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है । उसके आगे उससे दुगुने परिमाणवाला शाल्मलीद्वीप हैं, जो उतने ही विस्तारवाले मदिरा सागर से घिरा हैं ॥ ७ ॥ प्लक्षद्वीप के पाकर के पेड़ के बराबर उसमें शाल्मली (सेमर) का वृक्ष है । कहते हैं, यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान् की स्तुति करनेवाले पक्षिराज भगवान् गरुड का निवासस्थान है तथा यही इस द्वीप के नामकरण का भी हेतु है ॥ ८ ॥ इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज यज्ञबाहु थे । उन्होंने इसके सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन और अविज्ञात नाम से सात विभाग किये और इन्हें इन्हीं नामवाले अपने पुत्रों को सौंप दिया ॥ ९ ॥ इनमें भी सात वर्ष पर्वत और सात ही नदियाँ प्रसिद्ध हैं । पर्वतों के नाम स्वरस, शतशृङ्ग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति हैं तथा नदियाँ अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका हैं ॥ १० ॥ इन वर्षों में रहनेवाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर नाम के चार वर्ण वेदमय आत्मस्वरूप भगवान् चन्द्रमा की वेदमन्त्रों से उपासना करते हैं ॥ ११ ॥ (और कहते हैं— ) ‘जो कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में अपनी किरणों से विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण प्राणियों को अन्न देते हैं, वे चन्द्रदेव हमारे राजा (रञ्जन करनेवाले) हों ॥ १२ ॥ इसी प्रकार मदिरा के समुद्र से आगे उससे दूने परिमाणवाला कुशद्वीप है । पूर्वोक्त द्वीपों के समान यह भी अपने ही समान विस्तारवाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है । इसमें भगवान् का रचा हुआ एक कुश का झाड़ हैं, उसीसे इस द्वीप का नाम निश्चित हुआ है । वह दूसरे अग्निदेव के समान अपनी कोमल शिखाओं की कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता रहता है ॥ १३ ॥ राजन् ! इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज हिरण्यरेता थे । उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमें से एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विविक्त और वामदेव को दे दिया और स्वयं तप करने चले गये ॥ १४ ॥ उनकी सीमाओं को निश्चय करनेवाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं । पर्वत के नाम चक्र, चतुःशृङ्ग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण हैं । नदियों के नाम हैं — रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला ॥ १५ ॥ इनके जल में स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्ण के पुरुष अग्निस्वरूप भगवान् हरि का यज्ञादि कर्म-कौशल के द्वारा पूजन करते हैं ॥ १६ ॥ (तथा इस प्रकार स्तुति करते हैं — ) ‘अग्ने ! आप परब्रह्म को साक्षात् हवि पहुँचानेवाले हैं; अतः भगवान् के अङ्गभूत देवताओं के यजन द्वारा आप उन परमपुरुष का ही यजन करें ॥ १७ ॥ राजन् ! फिर घृतसमुद्र से आगे उससे द्विगुण परिमाणवाला क्रौञ्चद्वीप है । जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्र से घिरा हुआ है, उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तारवाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है । यहाँ क्रौञ्च नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसके कारण इसका नाम क्रौञ्चद्वीप हुआ हैं ॥ १८ ॥ पूर्वकाल में श्रीस्वामिकार्तिकेयजी के शस्त्रप्रहार से इसका कटिप्रदेश और लता-निकुञ्जादि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु क्षीरसमुद्र से सींचा जाकर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर यह फिर निर्भय हो गया ॥ १९ ॥ इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रतपुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे । वे बड़े ज्ञानी थे । उन्होंने इसको सात वर्षों में विभक्त कर उनमें उन्हीं के समान, नामवाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रों को नियुक्त किया और स्वयं सम्पूर्ण जीवों के अन्तरात्मा, परम मङ्गलमय कीर्तिशाली भगवान् श्रीहरि के पावन पादारविन्दों की शरण ली ॥ २० ॥ महाराज घृतपृष्ठ के आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति — ये सात पुत्र थे । उनके वर्षों में भी सात वर्ष पर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं । पर्वतों के नाम शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र हैं तथा नदियों के नाम हैं — अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपवती, पवित्रवती और शुक्ला ॥ २१ ॥ इनके पवित्र और निर्मल जल का सेवन करनेवाले वहाँ के पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक नामक चार वर्णवाले निवासी जल से भरी हुई अञ्जलि के द्वारा आपोदेवता (जल के देवता) की उपासना करते हैं ॥ २२ ॥ (और कहते हैं-) हे जल के देवता ! तुम्हें परमात्मा से सामर्थ्य प्राप्त है । तुम भूः, भुवः और स्वः — तीनों लोकों को पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूप से ही पापों का नाश करनेवाले हो । हम अपने शरीर से तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अङ्गों को पवित्र करो’ ॥ २३ ॥ इसी प्रकार क्षीरसमुद्र से आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप है, जो अपने ही समान परिमाणवाले मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है । इसमें शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्र के नाम का कारण है । इसकी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध से सारा द्वीप महकता रहता हैं ॥ २४ ॥ मेधातिथि नामक उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रत के ही पुत्र थे । उन्होंने भी अपने द्वीप को सात वर्षों में विभक्त किया और उनमें उन्हीं के समान नामवाले अपने पुत्र पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार को अधिपतिरूप से नियुक्त कर स्वयं भगवान् अनन्त में दत्तचित्त हो तपोवन को चले गये ॥ २५ ॥ इन वर्षों में भी सात मर्यादा पर्वत और सात नदियाँ ही हैं । पर्वतों के नाम ईशान, उरुशृङ्ग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पञ्चपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति हैं ॥ २६ ॥ उस वर्ष के ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक पुरुष प्राणायाम द्वारा अपने रजोगुण-तमोगुण को क्षीण कर महान् समाधि के द्वारा वायुरूप श्रीहरि की आराधना करते हैं ॥ २७ ॥ (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं-) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओं के सहित प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण दृश्य जगत् जिनके अधीन हैं, वे साक्षात् अन्तर्यामी वायु भगवान् हमारी रक्षा करें ॥ २८ ॥ इसी तरह मट्ठे के समुद से आगे उसके चारों ओर उससे दुगुने विस्तारवाला पुष्करद्वीप हैं । वह चारों ओर से अपने ही समान विस्तारवाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है । वहाँ अग्नि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखड़ियोंवाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है, जो ब्रह्माजी का आसन माना जाता है ॥ २९ ॥ उस द्वीप के बीचोबीच उसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागों की मर्यादा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नाम का एक ही पर्वत है । यह दस हज़ार योजन ऊँचा और उतना ही लंबा है । इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं । इनपर मेरुपर्वत के चारों ओर घूमनेवाले सूर्य के रथ का संवत्सररूप पहिया देवताओं के दिन और रात अर्थात् उतरायण और दक्षिणायन के क्रम से सर्वदा घूमा करता है ॥ ३० ॥ उस द्वीप का अधिपति प्रियव्रतपुत्र वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं अपने बड़े भाइयों के समान भगवत्सेवामें ही तत्पर रहने लगा था ॥ ३१ ॥ वहाँ के निवासी ब्रह्मारूप भगवान् हरि की ब्रह्मसालोक्यादि की प्राप्ति करानेवाले कर्मों से आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं — ॥ ३२ ॥ ‘जो साक्षात् कर्मफलरूप हैं और एक परमेश्वर में ही जिनकी पूर्ण स्थिति हैं तथा जिनकी सब लोग पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञान के साधनरूप उन अद्वितीय और शान्तस्वरूप ब्रह्ममूर्ति भगवान् को मेरा नमस्कार हैं’ ॥ ३३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! इसके आगे लोकालोक नाम का पर्वत है । यह पृथ्वी के सब ओर सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशों के बीच में उनका विभाग करने के लिये स्थित हैं ॥ ३४ ॥ मेरु से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अन्तर है, उतनी ही भूमि शुद्धोदक समुद्र के उस ओर है । उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वच्छ है । इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती, इसलिये वहाँ देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता ॥ ३५ ॥ लोकालोकपर्वत सूर्य आदि से प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीच में हैं, इससे इसका यह नाम पड़ा हैं ॥ ३६ ॥ इसे परमात्मा ने त्रिलोकी के बाहर उसके चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है । यह इतना ऊँचा और लंबा है कि इसके एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योतिर्मण्डल की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं ॥ ३७ ॥ विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है । यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है । इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तारवाला) यह लोकालोकपर्वत है ॥ ३८ ॥ इसके ऊपर चारों दिशाओं में समस्त संसार के गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्माजी ने सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये ऋषभ, पुष्करचूड़, वामन और अपराजित नाम के चार गजराज नियुक्त किये हैं ॥ ३९ ॥ इन दिग्गजों की और अपने अंशस्वरूप इन्द्रादि लोकपालों की विविध शक्तियों की वृद्धि तथा समस्त लोकों के कल्याण के लिये परम ऐश्वर्य के अधिपति सर्वातर्यामी परम पुरुष श्रीहरि अपने विष्वक्सेन आदि पार्षदों के सहित इस पर्वत पर सब ओर विराजते हैं । वे अपने विशुद्ध सत्त्व (श्रीविग्रह) को जो धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियों से सम्पन्न हैं, धारण किये हुए हैं । उनके करकमलों में शङ्ख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं ॥ ४० ॥ इस प्रकार अपनी योगमाया से रचे हुए विविध लोकों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये वे इसी लीलामय रूप से कल्प के अन्त तक वहाँ सब ओर रहते हैं ॥ ४१ ॥ लोकालोक के अन्तर्वर्ती भूभाग का जितना विस्तार हैं, उसीसे उसके दूसरी ओर के अलोक प्रदेश के परिमाण की भी व्याख्या समझ लेनी चाहिये । उसके आगे तो केवल योगेश्वरों की ही ठीक-ठीक गति हो सकती हैं ॥ ४२ ॥ राजन् ! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केन्द्र हैं, वही सूर्य की स्थिति है । सूर्य और ब्रह्माण्डगोलक के बीच में सब ओर से पचीस करोड़ योजन का अन्तर है ॥ ४३ ॥ सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्ड में वैराजरूप से विराजते हैं, इसीसे इनका नाम ‘मार्तण्ड’ हुआ है । ये हिरण्मय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्ड से प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें ‘हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं ॥ ४४ ॥ सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश, धुलोक (अन्तरिक्षलोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त भागों का विभाग होता है ॥ ४५ ॥ सूर्य ही देवता, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीवसमूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्टाता हैं ॥ ४६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related