March 17, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २१ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इक्कीसवाँ अध्याय सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया ॥ १ ॥ इसी के अनुसार विद्वान् लोग द्युलोक का भी परिमाण बताते हैं । जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता हैं, उसी प्रकार भूर्लोक के परिमाण से ही द्युलोक का भी परिमाण जान लेना चाहिये । इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षलोक है । यह इन दोनों सन्धिस्थान है ॥ २ ॥ इसके मध्यभाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते रहते हैं । वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नामवाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा, छोटा या समान करते हैं ॥ ३ ॥ जब सूर्यभगवान् मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं, जब वृषादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती हैं और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं ॥ ४ ॥ जब वृश्चिकादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत परिवर्तन होता है ॥ ५ ॥ इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ ॥ ६ ॥ इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं । उस पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुणकी निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियाँ हैं । इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह्न, सायङ्काल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हीं के कारण सम्पूर्ण जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है ॥ ७ ॥ राजन् ! जो लोग सुमेरु पर रहते हैं उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं । वे अपनी गति के अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रों की ओर जाते हुए यद्यपि मेरु को बायीं ओर रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डल को घुमानेवाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायु द्वारा घुमा दिये जाने से वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं ॥ ८ ॥ जिस पुरी में सूर्यभगवान् का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओर पुरी में वे अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगों को पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होने के कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे । जिन लोगों के मध्याह्न के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशा में पहुँच जायें, तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे ॥ ९ ॥ सूर्यदेव जब इन्द्र की पुरी से यमराज की पुरी को चलते हैं, तब पंद्रह घड़ी में वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन से कुछ–पचीस हजार योजन अधिक चलते हैं ॥ १० ॥ फिर इसी क्रम से वे वरुण और चन्द्रमा की पुरियों को पार करके पुनः इन्द्र की पुरी में पहुँचते हैं । इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्र में अन्य नक्षत्रों के साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं ॥ ११ ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य का वेदमय रथ एक मुहूर्त में चौंतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियों में घूमता रहता है ॥ १२ ॥ इसका संवत्सर नाम का एक चक्र(पहिया) बतलाया जाता है । उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ (हाल) हैं, तीन चौमासे रूप तीन नाभि (आँवन) हैं । इस रथ की धुरी का एक सिरा मेरुपर्वत की चोटी पर है और दूसरा मानसोतर पर्वत पर । इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हू के पहिये के समान घूमता हुआ मानसोतर पर्वत के ऊपर चक्कर लगाता है ॥ १३ ॥ इस धुरी में — जि सका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है । वह लंबाई में इससे चौथाई है । उसका ऊपरी भाग तैलयन्त्र के धुरे के समान ध्रुवलोक से लगा हुआ है ॥ १४ ॥ इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है । इसका जूआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है । उसमें अरुण नाम के सारथि ने गायत्री आदि छन्दोंके-से नामवाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथ पर बैठे हुए भगवान् सूर्य को ले चलते हैं ॥ १५ ॥ सूर्यदेव के आगे उन्हीं की ओर मुंह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथि का कार्य करते हैं ॥ १६ ॥ भगवान् सूर्य के आगे अँगूठे के पोरुए के बराबर आकारवाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्ति-वाचन के लिये नियुक्त हैं । वे उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ १७ ॥ इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी–जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़े से रहनेके कारण सात गण कहे जाते हैं — प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामोंवाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मों से प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नाम धारण करनेवाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की दो-दो मिलकर उपासना करते हैं ॥ १८ ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डल के नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरे में से प्रत्येक क्षण में दो हजार दो योजन की दूरी पार कर लेते हैं ॥ १९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related