March 17, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तेईसवाँ अध्याय शिशुमारचक्र का वर्णन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! सप्तर्षियों से तेरह लाख योजन ऊपर ध्रुवलोक है । इसे भगवान् विष्णु का परम पद कहते हैं । यहाँ उत्तानपाद के पुत्र परम भगवद्भक्त ध्रुवजी विराजमान हैं । अग्नि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म — ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । अब भी कल्पपर्यन्त रहनेवाले लोक इन्हीं के आधार स्थित हैं । इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं ॥ १ ॥ सदा जागते रहनेवाले अव्यक्तगति भगवान् काल के द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान् ने ध्रुवलोक को ही उन सबके आधारस्तम्भरूप से नियुक्त किया है । अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है ॥ २ ॥ जिस प्रकार दायें चलाने के समय अनाज को खूँदनेवाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सी में बँधकर क्रमशः निकट, दूर और मध्य में रहकर खंभे के चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतर के क्रम से इस कालचक्र में नियुक्त होकर ध्रुवलोक का ही आश्रय लेकर वायु की प्रेरणा से कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं । जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों की सहायता से वायु के अधीन रहकर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुष के संयोगवश अपने-अपने कर्मों के अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वी पर नहीं गिरते ॥ ३ ॥ कोई-कोई पुरुष भगवान् की योगमाया के आधार पर स्थित इस ज्योतिश्चक्र का शिशुमार (सूँस) के रूप में वर्णन करते हैं ॥ ४ ॥ यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए हैं और इसका मुख नीचे की ओर है । इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव स्थित हैं । पूँछ के मध्यभाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म हैं । पूँछ की जड़ में धाता और विधाता हैं । इसके कटिप्रदेश में सप्तर्षि हैं । यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए हैं । ऐसी स्थिति में अभिजित् से लेकर पुनर्वसु पर्यन्त जो उत्तरायण के चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं और पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त जो दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भाग में हैं । लोक में भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओर के अङ्गों की संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र-संख्या में भी समानता है । इसकी पीठ में अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नाम के तीन नक्षत्रों का समूह) है और उदर में आकाशगङ्गा हैं ॥ ५ ॥ राजन् ! इसके दाहिने और बायें कटितटों में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं, पीछे के दाहिने और बायें चरणों में आर्द्रा और आश्लेषा नक्षत्र हैं तथा दाहिने और बायें नथुनों में क्रमशः अभिजित् और उत्तराषाढ़ा है । इसी प्रकार दाहिने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ा एवं दाहिने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूल नक्षत्र हैं । मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र बायीं पसलियों में और विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र दाहिनी पसलियों में है । शतभिषा और ज्येष्ठा — ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बायें कंधों की जगह हैं ॥ ६ ॥ इसकी ऊपर की थूथनी में अगस्त्य, नीचे की ठोडी में नक्षत्ररूप यम, मुखों में मङ्गल, लिङ्गप्रदेश में शनि, ककुद् में बृहस्पति, छाती में सूर्य, हृदय में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र, स्तनों में अश्विनीकुमार, प्राण और अपान में बुध, गले में राहु, समस्त अङ्गों में केतु और रोमों में सम्पूर्ण तारागण स्थित हैं ॥ ७ ॥ राजन् ! यह भगवान् विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है । इसका नित्यप्रति सायङ्काल के समय पवित्र और मौन होकर दर्शन करते हुए चिन्तन करना चाहिये तथा इस मन्त्र का जप करते हुए भगवान् की स्तुति करनी चाहिये — ‘सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय, कालचक्र-स्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कारपूर्वक ध्यान करते हैं’ ॥ ८ ॥ ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के रूप में भगवान् का आधिदैविकरूप प्रकाशित हो रहा है, वह तीनों समय उपर्युक्त मन्त्र का जप करनेवाले पुरुषों के पाप नष्ट कर देता है । जो पुरुष प्रातः, मध्याह्न और सायं–तीनों काल उनके इस आधिदैविक स्वरूप का नित्यप्रति चिन्तन और वन्दन करता है, उसके उस समय किये हुए पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं ॥ ९ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related