श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौबीसवाँ अध्याय
राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! कुछ लोगों का कथन है कि सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहू नक्षत्रों के समान घूमता है । इसने भगवान् की कृपा से ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होने के कारण किसी प्रकार इस पद के योग्य नहीं है । इसके जन्म और कर्मों का हम आगे वर्णन करेंगे ॥ १ ॥ सूर्य का जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल हैं, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है । इसी प्रकार चन्द्रमण्डल का विस्तार बारह हजार योजन हैं और राहु का तेरह हजार योजन । अमृतपान के समय राहु देवता के वेष में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमा ने इसका भेद खोल दिया था, उस वैर को याद करके यह अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उनपर आक्रमण करता है ॥ २ ॥ यह देखकर भगवान् ने सूर्य और चन्द्रमा की रक्षा के लिये उन दोनों के पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया है । वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेज से उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्त्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है । उसके उतनी देर उनके सामने ठहरने से ही लोग ‘ग्रहण कहते हैं ॥ ३ ॥

राहु से दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदि के स्थान हैं ॥ ४ ॥ उनके नीचे जहाँ तक वायु की गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है । यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतों का विहारस्थल हैं ॥ ५ ॥ उससे नीचे सौ योजन की दुरी पर यह पृथ्वी हैं । जहाँतक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहीं तक इसकी सीमा है ॥ ६ ॥ पृथ्वी के विस्तार और स्थिति आदि का वर्णन तो हो ही चुका है । इसके भी नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नाम के सात भू-विवर(भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं । ये एक के नीचे एक दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित हैं और इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है ॥ ७ ॥ ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं । इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान-सुख और धन-सम्पत्ति है । यहाँ के वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीड़ास्थलों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीड़ाएँ करते हुए निवास करते हैं । वे सब गार्हस्थ्यधर्म का पालन करनेवाले हैं । उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवकलोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित रहते हैं । उनके भोगों में बाधा डालने की इन्द्रादि में भी सामर्थ्य नहीं है ॥ ८ ॥

महाराज ! इन बिलों में मायावी मयदानव की बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभा से जगमगा रही हैं, जो अनेक जाति की सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियों से रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगरद्वार, सभाभवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहों से सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों(फर्शों) —पर नाग और असुरों के जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालाधिपतियों के भव्यभवन उन पुरियों की शोभा बढ़ाते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ के बगीचे भी अपनी शोभा से देवलोक के उद्यानों की शोभा को मात करते हैं । उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूल के गुच्छों और कोमल कोंपलों के भार से झुकी रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरह की लताओं ने अपने अङ्गपाश से बाँध रखा है । वहाँ जो निर्मल जल से भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं । इन वृक्षों और जलाशयों की सुषमा से वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं । उन जलाशयों में रहनेवाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है । साथ ही जल के ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कहार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदि के समुदाय भी हिलने लगते हैं । इन कमलों के वनों में रहनेवाले पक्षी अविराम क्रीड़ा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँति की बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को बड़ा ही आह्लाद होता है । उस समय समस्त इन्द्रियों में उत्सव-सा छा जाता हैं ॥ १० ॥

वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि कालविभाग का भी कोई खटका नहीं देखा जाता ॥ ११ ॥ वहाँ के सम्पूर्ण अन्धकार को बड़े-बड़े नाग के मस्तकों की मणियाँ ही दूर करती हैं ॥ १२ ॥ इन लोकों के निवासी जिन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादि का सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओं के सेवन से उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते । तथा झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक ज्ञाना, बुढ़ापा आ जाना, देह का कान्तिहीन हो जाना, शरीर में से दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयु के साथ शरीर की अवस्थाओं का बदलना — ये कोई विकार नहीं होते । ये सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं ॥ १३ ॥ उन पुण्यपुरुषों की भगवान् तेजप सुदर्शन चक्र के सिवा और किसी साधन से मृत्यु नहीं हो सकती ॥ १४ ॥ सुदर्शन चक्र के तो आते ही भय के कारण असुररमणियों का गर्भस्राव और गर्भपात आचतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पंचमषष्ठयोः’ अर्थात् चौथे मास तक जो गर्भ गिरता है, उसे ‘गर्भस्राव’ कहते हैं तथा पाँचवें और छठे मास में गिरने से वह ‘गर्भपात’ कहलाता है। हो जाता है ॥ १५ ॥

अतल लोक में मयदानव का पुत्र असुर बल रहता है । उसने छियानवें प्रकार की माया रची है । उनमें से कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषों में पायी जाती हैं । उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुख से स्वैरिणी (केवल अपने वर्ण के पुरुषों से रमण करनेवाली), कामिनी (अन्य वर्णों के पुरुषों से भी समागम करनेवाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चञ्चल स्वभावाली) — तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुई । ये उस लोक में रहनेवाले पुरुषों को हाटक नाम का रस पिलाकर सम्भोग करने में समर्थ बना लेती हैं और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिङ्गनादि के द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं । उस हाटक-रस को पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपने दस हजार हाथियों के समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ’ इस प्रकार बढ़-चढ़कर बातें करने लगता है ॥ १६ ॥

उसके नीचे वितल लोक में भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं । वे प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं । उन दोनों के तेज से वहाँ हाटकी नाम की एक श्रेष्ठ नदी निकली है । उसके जल को वायु से प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साह से पीता है । वह जो हाटक नाम का सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणों को दैत्यराजों के अन्तःपुरों में स्त्री-पुरुष सभी धारण करते है॥ १७ ॥

वितल के नीचे सुतल लोक है । उसमें महायशस्वी पवित्रकीर्ति विरोचनपुत्र बलि रहते हैं । भगवान् ने इन्द्र का प्रिय करने के लिये अदिति के गर्भ से वटु-वामनरूप में अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे । फिर भगवान् की कृपा से ही उनका इस लोक में प्रवेश हुआ । यहाँ उन्हें जेसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादि के पास भी नहीं है । अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभु की अपने धर्माचरण द्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं ॥ १८ ॥ राजन् ! सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्र के आने पर उन्हें परम श्रद्धा और आदर के साथ स्थिर चित्त से दिये हुए भूमिदान का यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलि को सुतल लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया । यह ऐश्वर्य तो नित्य है । किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्ष का ही द्वार हैं ॥ १९ ॥

भगवान् का तो छींकने, गिरने और फिसलने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सह्सा कर्म-बन्धन को काट देता है, जब कि मुमुक्षुलोग इस कर्मबन्धन को योगसाधन आदि अन्य अनेकों उपायों का आश्रय लेने पर बड़े कष्ट से कहीं काट पाते हैं ॥ २० ॥ अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियों को स्वस्वरूप प्रदान करनेवाले और समस्त प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान् को आत्मभाव से किये हुए भूमिदान का यह फल नहीं हो सकता ॥ २१ ॥ भगवान् ने यदि बलि को उसके सर्वस्वदान के बदले अपनी विस्मृति करानेवाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उसपर यह कोई अनुग्रह नहीं किया ॥ २२ ॥ जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान् ने याचना के छल से उसका त्रिलोकी का राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में डाल दिये जाने पर उसने कहा था ॥ २३ ॥

‘खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल नहीं है । इसने सम्मति लेने के लिये अनन्यभाव से बृहस्पतिजी को अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णुभगवान् से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे । ये तीन लोक तो केवल एक मन्वंत्तर तक ही रहते हैं, जो अनन्त काल का एक अवयवमात्र है । भगवान् के कैंकर्य के आगे भला, इन तुच्छ भोगों का क्या मूल्य है ॥ २४ ॥ हमारे पितामह प्रह्लादजी ने-भगवान् के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपु के मारे जाने पर-प्रभु की सेवा का ही वर माँगा था । भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करनेवाला समझकर उन्होंने अपने पिता का निष्कप्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया ॥ २५ ॥ वे बड़े महानुभाव थे । मुझपर तो न भगवान् की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं, फिर मेरे-जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँचने का साहस कर सकता है ? ॥ २६ ॥

राजन् ! इस बलि का चरित हम आगे (अष्टम स्कन्धमें) विस्तार से कहेंगे । अपने भक्तों के प्रति भगवान् का हृदय दया से भरा रहता है । इसी से अखिल जगत् के परम पूजनीय गुरु भगवान् नारायण हाथ में गदा लिये सुतल लोक में राजा बलि के द्वार पर सदा उपस्थित रहते हैं । एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुँचा, तब उसे भगवान् ने अपने पैर के अँगूठे की ठोकर से ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था ॥ २७ ॥

सुतललोक से नीचे तलातल है । वहाँ त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है । पहले तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये भगवान् शङ्कर ने उसके तीनों पुर भस्म कर दिये थे । फिर उन्हीं की कृपा से उसे यह स्थान मिला । वह मायावियों का परम गुरु है और महादेवजी के द्वारा सुरक्षित है, इसलिये उसे सुदर्शन चक्र से भी कोई भय नहीं है । वहाँ के निवासी उसका बहुत आदर करते हैं ॥ २८ ॥

उसके नीचे महातल में कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरोंवाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है । उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान है । उनके बड़े-बड़े फैन हैं । वे सदा भगवान् के वाहन पक्षिराज गरुड़जी से डरते रहते हैं, तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्ब के सङ्ग से प्रमत्त होकर विहार करने लगते हैं ॥ २९ ॥

उसके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं । ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं । इनका देवताओं से विरोध है । ये जन्म से ही बड़े बलवान् और महान् साहसी होते हैं । किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकों में फैला हुआ है, उन श्रीहरि के तेज से बलाभिमान चूर्ण हो जाने के कारण ये सर्पों के समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्र की दूती सरमा के कहे हुए मन्त्रवर्णरूप एक कथा आती है कि जब पणि नामक दैत्यों ने पृथ्वी को रसातल में छिपा लिया; तब इन्द्र ने उसे ढूँढने के लिये सरमा नाम की एक दुती को भेजा था । सरमा से दैत्यों ने सन्धि करनी चाही, परन्तु सरमा ने सन्धि न करके इन्द्र की स्तुति करते हुए कहा था – ‘हता इन्द्रेण पणयः शयध्वम्’ ॥’ (हे पणिगण ! तुम इन्द्र के हाथ से मरकर पृथ्वी पर सो जाओ । इसी शाप के कारण उन्हें इन्द्र का डर लगा रहता है । वाक्य के कारण सर्वदा इन्द्र से डरते रहते हैं ॥ ३० ॥

रसातल के नीचे पाताल है । वहाँ शङ्ख, कुलिक, महाशङ्ख श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, शङ्खचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनोंवाले नाग रहते हैं । इनमें वासुकि प्रधान हैं । उनमें से किसी के पाँच, किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी के हजार सिर हैं । उनके फनों की दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाश से पाताललोक का सारा अंधकार नष्ट कर देती हैं ॥ ३१ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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