March 17, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पचीसवाँ अध्याय श्रीसङ्कर्षणदेव का विवरण और स्तुति श्रीशुकदेवजी कहते है — राजन् ! पाताललोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान् की तामसी नित्य कला है । यह अहङ्काररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पाञ्चरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे ‘सङ्कर्षण’ कहते हैं ॥ १ ॥ इन भगवान् अनन्त के एक हजार मस्तक हैं । उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दाने के समान दिखायी देता है ॥ २ ॥ प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से सङ्कर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं । उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है । वे सभी तीन नेत्रोंवाले होते हैं और हाथ में तीन नोकोंवाले शूल लिये रहते हैं ॥ ३ ॥ भगवान् सङ्कर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पङ्क्ति के समान देदीप्यमान हैं । जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नखमणियों में अपने कुण्डल-कान्तिमण्डित कमनीय कपोलोंवाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँकी होती हैं और उनका मन आनन्द से भर जाता है ॥ ४ ॥ अनेक नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाऑ से उनके अङ्गमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुङ्कमपङ्क का लेप करती हैं । उस समय अङ्गस्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का सञ्चार हो जाता है । तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुसकान के साथ सलज्ज भाव से निहारने लगती हैं ।। ५ ।। वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोष के वेग को रोके हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं ॥ ६ ॥ देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्त का ध्यान किया करते हैं । उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चञ्चल और विह्वल रहते हैं । वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं । उनके अड्ग पर नीलाम्वर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हल की मूठ पर रखा रहता है । वे उदारलीलामय भगवान् संकर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की शृंखला के समान जान पड़ती है । जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं ॥ ७ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं । उनके गुणों का एक बार ब्रह्माजी के पुत्र भगवान् नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्माजी की सभा में इस प्रकार गान किया था ॥ ८ ॥ जिनकी दृष्टि पड़ने से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंच को अपने में धारण किये हुए हैं — उन भगवान् संकर्षण के तत्तव को कोई कैसे जान सकता है ॥ ९ ॥ जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा अपने निजजनों का चित्त आकर्षित करने के लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीला को परम पराक्रमी सिंह ने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य संकर्षण भगवान् ने हमपर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ॥ १० ॥ जिनके सुने-सुनाये नाम का कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है — ऐसे शेषभगवान् को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है ? ॥ ११ ॥ यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान् के एक मस्तक पर एक रजःकण के समान रखा हुआ है । वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है । किसी के हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान् के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है ? ॥ १२ ॥ वास्तव में उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं । ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातल के मूल में अपनी ही महिमा में स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये लीला से ही पृथ्वी को धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥ राजन् ! भोगों की कामनावाले पुरुषों की अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होनेवाली भगवान् की रची हुई ये ही गतियाँ हैं । इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुख से सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया ॥ १४ ॥ मनुष्य को प्रवृत्तिरूप धर्म के परिणाम में प्राप्त होनेवाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं. इन्हें तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने सुना दिया । अब बताओ और क्या सुनाऊँ ? ॥ १५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe