March 17, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय छबीसवाँ अध्याय नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन राजा परीक्षित् ने पूछा — महर्षे ! लोगों को जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी |विभिन्नता क्यों है? ॥ १ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — राजन् ! कर्म करनेवाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामस — तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है । इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मों की गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिकरूप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओं को प्राप्त होती हैं ॥ २ ॥ इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करनेवालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण समान फल नहीं मिलता । अतः अनादि अविद्या के वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मों के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे ॥ ३ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोकी से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह हैं ? ॥ ४ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — राजन् ! वे त्रिलोकी के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं । इसी दिशा में अग्निष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरों के लिये मङ्गलकामना किया करते हैं ॥ ५ ॥ उस नरकलोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकॉ के सहित रहते हैं तथा भगवान् की आज्ञा का उल्लङ्घन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दण्ड देते हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! कोई-कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते है । अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं । उनके नाम ये हैं — तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान । इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख — ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान हैं ॥ ७ ॥ जो पुरुष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बाँधकर बलात्कार से तामिस्र नरक में गिरा देते हैं । उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीड़ित किया जाता है । इससे अत्यन्त दुखी होकर वह एकाएक मूर्च्छित हो जाता है ॥ ८ ॥ इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है । वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध-बुध खो बैठता हैं और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता । इसीसे इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं ॥ ९ ॥ जो पुरुष इस लोक में ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैं ऐसी बुद्धि से दूसरे प्राणियों से द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्ब के ही पालन-पोषण में लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़ने पर अपने पाप के कारण स्वयं ही रौरव नरक में गिरता है ॥ १० ॥ इस लोक में उसने जिन जीव को जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता हैं, परलोक में यमयातना का समय आने पर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं । इसीलिये इस नरक का नाम रौरव है । ‘रुरु’ सर्प से भी अधिक क्रूर स्वभाववाले एक जीव का नाम है ॥ ११ ॥ ऐसा ही महारौरव नरक है । इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसी की परवा न कर केवल अपने ही शरीर का पालन-पोषण करता है । वहाँ कच्चा मांस खानेवाले रुरु इसे मांस के लोभ से काटते हैं ॥ १२ ॥ जो क्रूर मनुष्य इस लोक में अपना पेट पालने के लिये जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृदयहीन, राक्षसों से भी गये-बीते पुरुष को यमदूत कुम्भीपाक नरक ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं ॥ १३ ॥ जो मनुष्य इस लोक में माता-पिता, ब्राह्मण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरक में ले जाते हैं । इसका घेरा दस हजार योजन है । इसकी भूमि ताँबे की है । इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपर से सूर्य और नीचे से अग्नि के दाह से जलता रहता है । वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतर से जलने लगता है । उसकी बेचैनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता हैं और कभी इधर-उधर दौड़ने लगता है । इस प्रकार उस नर-पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है ॥ १४ ॥ जो पुरुष किसी प्रकार की आपत्ति न आने पर भी अपने वैदिक मार्ग को छोड़कर अन्य पाखण्डपूर्ण धर्मों का आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं । जब मार से बचने के लिये वह इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब उसके सारे अङ्ग तालवन के तलवार के समान पैने पत्तों से, जिनमें दोनों ओर धारे होती है, टूक-टूक होने लगते हैं । तब वह अत्यन्त वेदना से हाय, मैं मरा !’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पद पर मूर्च्छित होकर गिरने लगता है । अपने धर्म को छोडकर पाखण्डमार्ग में चलने से उसे इस प्रकार अपने कुकर्म का फल भोगना पड़ता है ॥ १५ ॥ इस लोक में जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्य को दण्ड देता है अथवा ब्राह्मण को शरीर दण्ड देता है, वह महापापी मरकर सूकरमुख नरक में गिरता है । यहां जब महाबली यमदूत उसके अङ्ग को कुचलते हैं, तब वह कोल्हू पेरे जाते हुए गन्नों के समान पीड़ित होकर, जिस प्रकार इस लोक में उसके द्वारा सताये हुए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आर्त स्वर से चिल्लाता और कभी मूर्च्छित हो जाता है ॥ १६ ॥ जो पुरुष इस लोक में खटमल आदि जीवों की हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करने के कारण अन्धकूप नरक में गिरता है । क्योंकि स्वयं भगवान् ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरों को कष्ट पहुँचने का ज्ञान भी नहीं है, किन्तु मनुष्य की वृति भगवान् ने विधि-निषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरों के कष्ट का ज्ञान भी है । वहाँ वे पशु, मृग, पक्षी, साँप आदि रंगनेवाले जन्तु, मच्छर, , खटमल और मक्खी आदि जीव-जिनसे उसने द्रोह किया था उसे सब ओर से काटते हैं । इससे उसकी निद्रा और शान्ति भङ्ग हो जाती है और स्थान न मिलने पर भी वह बेचैनी के कारण उस घोर अन्धकार में इस प्रकार भटकता रहता है जैसे रोगग्रस्त शरीर में जीव छटपटाया करता है ॥ १७ ॥ जो मनुष्य इस लोक में बिना पञ्चमहायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दूसरे को दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौए के समान कहा गया है । वह परलोक में कृमिभोजन नामक निकृष्ट नरक में गिरता है । वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कीड़ों का कुण्ड है । उसमें उसे भी कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और जबतक अपने पापों का प्रायश्चित न करनेवाले उस पापी के-बिना दिये और बिना हवन किये खाने के-दोष का अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तबतक वह उसी में पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता रहता है । वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कीड़ों खाता है ॥ १८ ॥ राजन् ! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण के अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरुष के सुवर्ण और रत्नादि का हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत सन्दंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और सँड़सी से उसकी खाल नोचते हैं ॥ १९ ॥ इस लोक में यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से व्यभिचार करती हैं, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं तथा पुरुष को तपाये हुए लोहे की स्त्री-मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरुष-प्रतिमा से आलिङ्गन कराते हैं ॥ २० ॥ जो पुरुष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्रकण्टकशाल्मली नरक में गिराते हैं और वज्र के समान कठोर काँटोंवाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं ॥ २१ ॥ जो राजा या राजपुरुष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मर्यादा का उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पटके जाते हैं । यह नदी नरकों की खाई के समान हैं; उसमें मल, मूत्र, पीव, रक्त, केश, नख, हुड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं । वहाँ गिरने पर उन्हें इधर-उधर से जल के जीव नोचते हैं । किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पाप के कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गति को अपनी करनी का फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं ॥ २२ ॥ जो लोग शौच और आचार के नियमों का परित्याग कर तथा लज्जा को तिलाञ्जलि देकर इस लोक में शुद्राओं के साथ सम्बन्ध गाँठकर पशुओं के समान आचरण करते हैं, वे भी मरने के बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मल से भरे हुए पूयोद नामक समुद्र में गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओं को ही खाते हैं ॥ २३ ॥ इस लोक में जो ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदि में लगे रहते हैं तथा शास्त्र के विपरीत पशुओं का वध करते हैं, मरने के पश्चात् वे प्राणरोध नरक में डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणों से बीँधते हैं ॥ २४ ॥ जो पाखण्डीलोग पाखण्डपूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस (विशसन) नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं ॥ २५ ॥ जो द्विज कामातुर होकर अपनी सवर्णा भार्या को वीर्यपान कराता है, उस पापी को मरने के बाद यमदूत वीर्य की नदी (लालाभक्ष नामक नरक) में डालकर वीर्य पिलाते हैं ॥ २६ ॥ जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोक में किसी के घर में आग लगा देते हैं, किसी को विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मरने के पश्चात् सारमेयादन नामक नरक में वज्रकी-सी दाढ़ोंवाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काटने लगते हैं ॥ २७ ॥ इस लोक में जो पुरुष किसी की गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधारशून्य अवीचिमान् नरक में पड़ता हैं । यहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़ के शिखर से नीचे को सिर करके गिराया जाता है । उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है । इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है । वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जानेपर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार-बार ऊपर ले जाकर पटका जाता है ॥ २८ ॥ जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान (क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिये शास्त्र में सोमपान का निषेध है) करता है, उन्हें यमदूत अयःपान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुंह में आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं ॥ २१ ॥ जो पुरुष इस लोक में निम्न श्रेणी का होकर भी अपने को बड़ा मानने के कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के ही समान हैं । उसे मरने पर क्षारकर्दम नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता हैं और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ ३० ॥ जो पुरुष इस लोक में नरमेधादि के द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदि का यजन करते हैं और जो स्त्रियां पशुओं के समान पुरुषों को खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओं की तरह मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस होकर तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं और रक्षोगणभोजन नामक नरक में कसाइयों के समान कुल्हाड़ी से काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं । तथा जिस प्रकार वे मांसभोजी पुरुष इस लोक में उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं ॥ ३१ ॥ इस लोक में जो लोग वन या गाँव के निरपराध जीवोंको-जो सभी अपने प्राणों को रखना चाहते हैं — तरह-तरह के उपायों से फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं और फिर उन्हें काँटे से बेचकर या रस्सी से बाँधकर खिलवाड़ करते हुए तरह-तरह की पीड़ाएँ देते हैं, उन्हें भी मरने के पश्चात् यमयातनाओं के समय शूलप्रोत नामक नरक में शूलों से बेधा जाता है । उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती हैं और कंक, बटेर आदि तीखी चोंचोंवाले नरक के भयानक पक्षी नोचने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! इस लोक में जो सर्पों के समान उग्रस्वभाव पुरुष दूसरे जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरने पर दन्दशूक नाम के नरक में गिरते हैं । वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँहवाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहों की तरह निगल जाते हैं ॥ ३३ ॥ जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियो को अंधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओं में डाल देते हैं, उन्हें परलोक में यमदूत वैसे ही स्थानों में डालकर विषैली आग के धूऍ में घोंटते हैं । इसीलिये इस नरक को अवनिरोधन कहते हैं ॥ ३४ ॥ जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अभ्यागतों की ओर बार-बार क्रोध में भरकर ऐसी कुटिल दृष्टि से देखता हैं मानो उन्हें भस्म कर देगा, वह जय नरक में जाता है, तब उस पापदृष्टि के नेत्रों को गिद्ध, कङ्क, काक और बटेर आदि वज्रकी-सी कठोर चोंचोंवाले पक्षी बलात्कार से निकाल लेते हैं । इस नरक को पर्यावर्तन कहते हैं ॥ ३५ ॥ इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान् समझकर अभिमानवश सबको टेढ़ी नजर से देखता है और सभी पर सन्देह रखता हैं, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके हृदय और मुँह सूखे रहते हैं, अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में ही लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह-तरह के पाप करता रहता है, वह नराधम मरने पर सूचीमुख नरक में गिरता है । वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अङ्गों को यमराज के दूत दर्जियों के समान सूई-धागे से सीते हैं ॥ ३६ ॥ राजन् ! यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ो-हजारों नरक हैं । उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मों के अनुसार बारी-बारी से जाते हैं । इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादि में जाते हैं । इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनके अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्यपापरूप कर्मों को लेकर ये फिर इस लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं ॥ ३७ ॥ इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्तिमार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीय स्कन्धमें) ही वर्णन हो चुका हैं । पुराणों में जिसका चौदह भुवन के रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्डकोश इतना ही है । यह साक्षात् परम पुरुष श्रीनारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है । इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया । परमात्मा भगवान् का उपनिषदों में वर्णित निर्गुण स्वरूप यद्यपि मन-बुद्धि की पहुँच के बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूल रूप का वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्ध हो जाती हैं और वह उस सूक्ष्म रूप का भी अनुभव कर सकता हैं ॥ ३८ ॥ यति को चाहिये कि भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के रूपों का श्रवण करके पहले स्थूल रूप में चित्त को स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँ से हटाकर उसे सूक्ष्म में लगा दे ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! मैंने तुमसे पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकों की स्थिति का वर्णन किया । यही भगवान् का अति अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त जीवसमुदाय का आश्रय हैं ॥ ४० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् पञ्चमः स्कन्धः शुभं भूयात् ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe