March 22, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तेरहवाँ अध्याय इन्द्र पर ब्रह्महत्या का आक्रमण श्रीशुकदेवजी कहते हैं — महादानी परीक्षित् ! वृत्रासुर की मृत्यु से इन्द्र के अतिरिक्त तीनों लोक और लोकपाल तत्क्षण परम प्रसन्न हो गये । उनका भय, उनकी चिन्ता जाती रही ॥ १ ॥ युद्ध समाप्त होने पर देवता, ऋषि, पितर, भूत, दैत्य और देवताओं के अनुचर गन्धर्व आदि इन्द्र से बिना पूछे ही अपने-अपने लोक को लौट गये । इसके पश्चात् ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि भी चले गये ॥ २ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! मैं देवराज इन्द्र की अप्रसन्नता का कारण सुनना चाहता हूँ । जब वृत्रासुर के वध से सभी देवता सुखी हुए, तब इन्द्र को दुःख होने का क्या कारण था ? ॥ ३ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! जब वृत्रासुर के पराक्रम से सभी देवता और ऋषि-महर्षि अत्यन्त भयभीत हो गये, तब उन लोगों ने उसके वध के लिये इन्द्र से प्रार्थना की; परन्तु वे ब्रह्महत्या के भय से उसे मारना नहीं चाहते थे ॥ ४ ॥ देवराज इन्द्र ने उन लोगों से कहा — देवताओ और ऋषियो ! मुझे विश्वरूप के वध से जो ब्रह्महत्या लगी थीं, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षों ने कृपा करके बॉट लिया । अब यदि में वृत्र का वध करूँ तो उसकी हत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा ? ॥ ५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — देवराज इन्द्र की बात सुनकर ऋषियों ने उनसे कहा — ‘देवराज ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो । क्योंकि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर देंगे ॥ ६ ॥ अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सबके अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् परमात्मा नारायणदेव की आराधना करके तुम सम्पूर्ण जगत् का वध करने के पाप से भी मुक्त हो सकोगे, फिर वृत्रासुर के वध की तो बात ही क्या हैं ॥ ७ ॥ देवराज ! भगवान् के नाम-कीर्तनमात्र से ही ब्राह्मण, पिता, गौ, माता, आचार्य आदि की हत्या करनेवाले महापापी, कुत्ते का मांस खानेवाले चाण्डाल और कसाई भी शुद्ध हो जाते हैं ॥ ८ ॥ हमलोग ‘अश्वमेध’ नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करेंगे । उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान् की आराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत् की हत्या के भी पाप से लिप्त नहीं होगे । फिर इस दुष्ट को दण्ड देने के पाप से छूटने की तो बात ही क्या हैं ?’ ॥ ९ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार ब्राह्मणों से प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था । अब उसके मारे जाने पर ब्रह्महत्या इन्द्र के पास आयी ॥ १० ॥ उसके कारण इन्द्र को बड़ा क्लेश, बड़ी जलन सहनी पड़ी । उन्हें एक क्षण के लिये भी चैन नहीं पड़ता था । सच है, जब किसी सङ्कोची सञ्जन पर कलङ्क लग जाता है, तब उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी नहीं कर पाते ॥ ११ ॥ देवराज इन्द्र ने देखा कि ब्रह्महत्या साक्षात् चाण्डालों के समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही है । बुढ़ापे के कारण उसके सारे अङ्ग काँप रहे हैं और क्षयरोग उसे सता रहा है । उसके सारे वस्त्र खून से लथपथ हो रहे हैं ॥ १२ ॥ वह अपने सफेद-सफेद बालों को बिखेरे ‘ठहर जा ! ठहर जा !!” इस प्रकार चिल्लाती आ रही है । उसके श्वास के साथ मछली की सी दुर्गन्ध आ रही हैं, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा हैं ॥ १३ ॥ राजन् ! देवराज इन्द्र उसके भय से दिशाओं और आकाश में भागते फिरे । अन्त में कहीं भी शरण न मिलने के कारण उन्होंने पूर्व और उत्तर के कोने में स्थित मानसरोवर में शीघ्रता से प्रवेश किया ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्र मानसरोवर के कमलनाल के तन्तुओं में एक हजार वर्षों तक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा । इतने दिनों तक उन्हें भोजन के लिये किसी प्रकार की सामग्री न मिल सकी । क्योंकि वे अग्निदेवता के मुख़ से भोजन करते हैं और अग्निदेवता जल के भीतर कमलतन्तुओं में जा नहीं सकते थे ॥ १५ ॥ जबतक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओं में रहे, तब तक अपनी विद्या, तपस्या और योगबल के प्रभाव से राजा नहुष स्वर्ग का शासन करते रहे । परन्तु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर इन्द्रपत्नी शची के साथ अनाचार करना चाहा, तब शची ने उनसे ऋषियों का अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दिया जिससे वे सांप हो गये ॥ १६ ॥ तदनन्तर जब सत्य के परम पोषक भगवान् का ध्यान करने से इन्द्र का पाप नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणों के बुलवाने पर वे पुनः स्वर्गलोक में गये । कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी इन्द्र की रक्षा कर रही थी और पूर्वोत्तर दिशा के अधिपति रुद्र ने पाप को पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्र पर आक्रमण नहीं कर सका ॥ १७ ॥ परीक्षित् ! इन्द्र के स्वर्ग में आ जाने पर ब्रह्मर्षियों ने वहाँ आकर भगवान् की आराधना के लिये इन्द्र को अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया ॥ १८ ॥ जब वेदवादी ऋषियों ने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्र ने उस यज्ञ के द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान् की आराधना की, तब भगवान् की आराधना के प्रभाव से वृत्रासुर के वध की वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदय से कुहरे का नाश हो जाता है ॥ १९-२० ॥ जब मरीचि आदि मुनीश्वरों ने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान् की आराधना करके इन्द्र सब पापों से छूट गये और पूर्ववत् फिर पूजनीय हो गये ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! इस श्रेष्ठ आख्यान में इन्द्र की विजय, उनकी पापों से मुक्ति और भगवान् के प्यारे भक्त वृत्रासुर का वर्णन हुआ है । इसमें तीर्थों को भी तीर्थ बनानेवाले भगवान् के अनुग्रह आदि गुणों का सङ्कीर्तन है । यह सारे पापों को धो बहाता है और भक्ति को बढ़ाता है ॥ २२ ॥ बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि वे इस इन्द्र सम्बन्धी आख्यान को सदा सर्वदा पढ़े और सुने । विशेषतः पर्वों के अवसर पर तो अवश्य ही इसका सेवन करें । यह धन और यश को बढ़ाता हैं, सारे पापों से छुड़ाता हैं, शत्रु पर विजय प्राप्त कराता है तथा आयु और मङ्गल की अभिवृद्धि करता हैं ॥ २३ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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