श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
चौदहवाँ अध्याय
वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

राजा परीक्षित् ने कहा — भगवन् ! वृत्रासुर का स्वभाव तो बड़ा रजोगुण-तमोगुणी था । वह देवताओं को कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था । ऐसी स्थिति में भगवान् नारायण के चरणों में उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई ? ॥ १ ॥ हम देखते हैं कि प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान् की परम प्रेममयी अनन्य भक्ति से वञ्चित ही रह जाते हैं । सचमुच भगवान की भक्ति बड़ी दुर्लभ है ॥ २ ॥ भगवन् ! इस जगत् के प्राणी पृथ्वी के धूलिकणों के समान ही असंख्य हैं । उनमें से कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याण की चेष्टा करते हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मन् ! उनमें भी संसार से मुक्ति चाहनेवाले तो विरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि-लाभ तो कोई-सा ही कर पाता हैं ॥ ४ ॥ महामुने ! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसे शान्तचित्त महापुरुष का मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो ॥ ५ ॥ ऐसी अवस्था में वह वृत्रासुर, जो सब लोगों को सताता था और बड़ा पापी था, उस भयङ्कर युद्ध के अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण में अपनी वृत्तियों को इस प्रकार दृढ़ता से लगा सका — इसका क्या कारण है ? ॥ ६ ॥ प्रभो ! इस विषय में हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुनने का बड़ा कौतूहल भी है । अहो, वृत्रासुर का बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमि में देवराज इन्द्र को भी सन्तुष्ट कर दिया ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शुकदेवजी ने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित् का यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो । मैंने इसे अपने पिता व्यासजी, देवर्षि नारद और महर्षि देवल के मुँह से भी विधिपूर्वक सुना हैं ॥ ९ ॥ प्राचीन काल की बात है, शूरसेन देश में चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे । उनके राज्य में पृथ्वी स्वयं ही प्रजा की इच्छा के अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी ॥ १० ॥ उनके एक करोड़ रानियाँ थी और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ भी थे । परन्तु उन्हें उनमें से किसी के भी गर्भ से कोई सन्तान न हुई ॥ ११ ॥ यों महाराज चित्रकेतु को किसी बात की कमी न थी । सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणों से वे सम्पन्न थे । फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थी, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी ॥ १२ ॥ वे सारी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थी तथा सारी पृथ्वी उनके वश में थी । सब प्रकार की सम्पत्तियाँ उनकी सेवामें उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं ॥ १३ ॥

एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अङ्गिरा ऋषि स्वच्छन्दरूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल में पहुँच गये ॥ १४ ॥ राजा ने प्रत्युत्थान और अर्घ्य आदि से उनकी विधिपूर्वक पूजा की । आतिथ्य-सत्कार हो जाने के बाद व अङ्गिरा ऋधि सुखपूर्वक आसन पर विराज गये तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभाव से उनके पास ही बैठ गये ॥ १५ ॥ महाराज़ ! महर्षि अङ्गिरा ने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वी पर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है तब उन्होंने चित्रकेतु को सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही ॥ १६ ॥

अङ्गिरा ऋषि ने कहा — राजन् ! तुम अपनी प्रकृतियों—गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र के साथ सकुशल तो हो न ? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरण से घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियों से घिरा रहता है । उनके कुशल से ही राजा की कुशल है ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियों के अनुकूल रहने पर ही राज्यसुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षा का भार राजा पर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं ॥ १८ ॥ राजन् ! तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वश में तो हैं न ? ॥ ११ ॥

सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वश में हैं, उसके ये सभी वश में होते हैं । इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानी से उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं ॥ २० ॥ परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सन्तुष्ट नहीं हो । तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है । तुम्हारे मुँह पर किसी आन्तरिक चिन्ता के चिह्न झलक रहे हैं । तुम्हारे इस असन्तोष का कारण कोई और है या स्वयं तुम्ही हो ? ॥ २१ ॥

परीक्षित् ! महर्षि अङ्गिरा यह जानते थे कि राजा के मन में किस बात की चिन्ता है । फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ता के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न पूछे । चित्रकेतु को सन्तान की कामना थी । अतः महर्षि के पूछने पर उन्होंने विनय से झुककर निवेदन किया ॥ २२ ॥

सम्राट चित्रकेतु ने कहा — भगवन् ! जिन योगियों के तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं उनके लिये प्राणियों के बाहर या भीतर की ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों ॥ २३ ॥ ऐसा होने पर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर मुझसे मेरे मन की चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणा से अपनी चिन्ता आपके चरणों में निवेदन करता हूँ ॥ २४ ॥ मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियां, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं । परन्तु सन्तान न होने के कारण मुझे इन सुखभोग से उस प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणी को अन्न-जल के सिवा दूसरे भोगों से ॥ २५ ॥ महाभाग्यवान् महर्षे ! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलने की आशङ्का से मेरे पितर भी दुखी हो रहे हैं । अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोक में प्राप्त होनेवाले घोर नरक से उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोक के सब दुःखों से छुटकारा पा लूँ ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं —
परीक्षित् ! जब राजा चित्रकेतु ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परम कृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अङ्गिरा ने त्वष्टा देवता के योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! राजा चित्रकेतु की रानियों में सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं । महर्षि अङ्गिरा ने उन्हीं को यज्ञ का अवशेष प्रसाद दिया ॥ २८ ॥ और राजा चित्रकेतु से कहा — ‘राजन् ! तुम्हारी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा ।’ यों कहकर अङ्गिरा ऋषि चले गये ॥ २९ ॥ उस यज्ञावशेष प्रसाद के खाने से ही महारानी कृतद्युति ने महाराज चित्रकेतु के द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृत्तिका ने अपने गर्भ में अग्निकुमार को धारण किया था ॥ ३० ॥ राजन् ! शूरसेन देश के राजा चित्रकेतु के तेज से कृतद्युति का गर्भ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनदिन क्रमशः बढ़ने लगा ॥ ३१ ॥

तदनन्तर समय आने पर महारानी कृतद्युति के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ । उसके जन्म का समाचार पाकर शूरसेन देश की प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई ॥ ३३ ॥ सम्राट् चित्रकेतु के आनन्द का तो कहना ही क्या था । वे स्नान करके पवित्र हुए । फिर उन्होंने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो, ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया ॥ ३३ ॥ उन्होंने उन ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं ॥ ३४ ॥ उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतु ने पुत्र के धन, यश और आयु की वृद्धि के लिये दूसरे लोगों को भी मुंहमांगी वस्तुएँ दी — ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवों का मनोरथ पूर्ण करता हैं ॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! जैसे यदि किसी कंगाल को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाई से प्राप्त हुए उस पुत्र में राजर्षि चित्रकेतु का स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा ॥ ३६॥ माता कृतद्युति को भी अपने पुत्र पर मोह के कारण बहुत ही स्नेह था । परन्तु उनकी सौत रानियों के मन में पुत्र की कामना से और भी जलन होने लगी ॥ ३७ ॥ प्रतिदिन बालक का लाड़-प्यार करते रहने के कारण सम्राट् चित्रकेतु का जितना प्रेम बच्चे की माँ कृतद्युति में था, उतना दूसरी रानियों में न रहा ॥ ३८ ॥ इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होने के कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतु ने उनकी उपेक्षा कर दी । अतः वे डाह से अपने को धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं ॥ ३९ ॥

वे आपस में कहने लगी — अरी बहिनो ! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है । पुत्रवाली सौतें तो दासी के समान उसका तिरस्कार करती हैं । और तो और, स्वयं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते । सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कार के योग्य है ॥ ४० ॥ भला, दासियों को क्या दुःख है ? ये तो अपने स्वामी की सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं । परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियों की दासी के समान बार-बार तिरस्कार पा रहीं हैं ॥ ४१ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौत की गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओर से उदासीन हो गये थे । फलतः उनके मन में कृतद्युति के प्रति बहुत अधिक द्वेष हो गया ॥ ४२ ॥ द्वेष के कारण रानियों की बुद्धि मारी गयी । उनके चित्त में क्रूरता छा गयी । उन्हें अपने पति चित्रकेतु का पुत्र-स्नेह सहन न हुआ । इसलिये उन्होंने चिढ़कर नन्हें से राजकुमार को विष दे दिया ॥ ४३ ॥ महारानी कृतद्युति की सौतों की इस घोर पापमयी करतूत का कुछ भी पता न था । उन्होंने दूर से देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है । इसलिये वे महल में इधर-उधर डोलती रही ॥ ४४ ॥ बुद्धिमती रानी ने यह देखकर कि बच्चा बहुत देर से सो रहा है, धाय से कहा — ‘कल्याणि ! मेरे लाल को ले आ’ ॥ ४५ ॥ धाय ने सोते हुए बालक के पास जाकर देखा कि उसके नेत्रों की पुतलियाँ उलट गयी हैं । प्राण, इन्द्रिय और जीवात्मा ने भी उसके शरीर से विदा ले ली है । यह देखते ही ‘हाय रे ! मैं मारी गयी !’ इस प्रकार कहकर वह धरती पर गिर पड़ी ॥ ४६ ॥

धाय अपने दोनों हाथों से छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वर में जोर-जोर से रोने लगी । उसका रोना सुनकर महारानी कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्र के शयनगृह में पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् मर गया है ! ॥ ४७ ॥ तब वे अत्यन्त शोक के कारण मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी । उनके सिर के बाल बिखर गये और शरीर पर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये ॥ ४८ ॥ तदनन्तर महारानी का रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुखी होकर रोने लगे । वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठ-मूठ रोने का ढोंग करने लगीं ॥ ४९ ॥ जब राजा चित्रकेतु को पता लगा कि मेरे पुत्र की अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेह के कारण शोक के आवेग से उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया । वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणों के साथ मार्ग में गिरते-पड़ते मृत बालक के पास पहुँचे और मूर्च्छित होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े । उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये । वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे । आँसुओं की अधिकता से उनका गला रुँध गया और वे कुछ भी बोल न सके ॥ ५०-५१ ॥

पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतु को अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हें-से बच्चे को मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगी । उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये ॥ ५३ ॥ महारानी के नेत्रों से इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखों का अंजन लेकर केसर और चन्दन से चर्चित वक्षःस्थल को भिगोने लगे । उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुंथे हुए फूल गिर रहे थे । इस प्रकार से पुत्र के लिये कुररी पक्षी के समान उच्चस्वर में विविध प्रकार से विलाप कर रही थीं ॥ ५३ ॥

वे कहने लगी — ‘अरे विधाता ! सचमुच तू बड़ा मूर्ख हैं, जो अपनी सृष्टि के प्रतिकुल चेष्टा करता हैं । बड़े आश्चर्य की बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायँ । यदि वास्तव में तेरे स्वभाव में ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवों का अमर शत्रु है ॥ ५४ ॥ यदि संसार में प्राणियों के जीवन-मरण का कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्ध के अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे । फिर तेरी आवश्यकता ही क्या हैं । तूने सम्बन्धियों में स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टि को बढ़ाये ? परन्तु तू इस प्रकार बच्चों को मारकर अपने किये-कराये पर अपने हाथों पानी फेर रहा हैं ॥ ५५ ॥ फिर वे अपने मृत पुत्र की ओर देखकर कहने लगीं —बेटा ! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ । मुझे छोड़कर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है । तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोग में कितने शोक सन्तप्त हो रहे हैं । बेटा ! जिस घोर नरक को निःसन्तान पुरुष बड़ी कठिनाई से पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अनायास ही पार कर लेंगे । अरे बेटा ! तुम इस यमराज के साथ दूर मत जाओ । यह तो बड़ा ही निर्दयी है ॥ ५६ ॥

मेरे प्यारे लल्ला ! ओ राजकुमार ! उठो ! बेटा ! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलने के लिये बुला रहे हैं । तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी । उठो, कुछ खा लो । और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हमलोगों का शोक दूर करो ॥ ५७ ॥ प्यारे लाल ! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्द पर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्दभरी चितवन नहीं देख रही हूँ । मैं बड़ी अभागिनी हूँ । हाय-हाय ! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है । क्या सचमुच निष्ठुर यमराज तुम्हें उस परलोक में ले गया, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता ?’ ॥ ५८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब सम्राट् चित्रकेतु ने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पुत्र के लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब वे शोक से अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे ॥ ५९ ॥ राजा-रानी के इस प्रकार विलाप करने पर उनके अनुगामी स्त्री-पुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे । इस प्रकार सारा नगर ही शोक से अचेत-सा हो गया ॥ ६० ॥ राजन् ! महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद ने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें समझानेवाला भी कोई नहीं है । तब वे दोनों वहाँ आये ॥ ६१ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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