March 22, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सोलहवाँ अध्याय चित्रकेतु का वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! तदनन्तर देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को शोकाकुल स्वजनों के सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा ॥ १ ॥ देवर्षि नारद ने कहा — जीवात्मन् ! तुम्हारा कल्याण हो । देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुहद्-सम्बन्धी तुम्हारे वियोग से अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं ॥ २ ॥ इसलिये तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष आयु अपने सगे सम्बन्धियों के साथ ही रहकर व्यतीत करो । अपने पिता के दिये हुए भोगों को भोगो और राजसिंहासन पर बैठो ॥ ३ ॥ जीवात्मा ने कहा — देवर्षिजी ! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूँ । उनमें से ये लोग किस जन्म में मेरे माता-पिता हुए ? ॥ ४ ॥ विभिन्न जन्मों में सभी एक दूसरे के भाई-बन्धु, नाती-गोती. शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन और द्वेषी होते रहते हैं ॥ ५ ॥ जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रय की वस्तुएँ एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती-आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता रहता है ॥ ६ ॥ इस प्रकार विचार करने से पता लगता है कि मनुष्यों की अपेक्षा अधिक दिन ठहरनेवाले सुवर्ण आदि पदार्थों का सम्बन्ध भी मनुष्यों के साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता हैं, और जब तक जिसका जिस वस्तु से सम्बन्ध रहता है, तभी तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है ॥ ७ ॥ जीव नित्य और अहङ्काररहित है । वह गर्भ में आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है ॥ ८ ॥ यह जीव नित्य, अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है । इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं हैं । फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने-आपको विश्व के रूप में प्रकट कर देता है ॥ ९ ॥ इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय हैं और न अप्रिय, न अपना और न पराया । क्योंकि गुण-दोष (हित-अहित) करनेवाले मित्र-शत्रु आदि की भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्ति का यह अकेला ही साक्षी हैं; वास्तव में यह अद्वितीय हैं ॥ १० ॥ यह आत्मा कार्य-कारण का साक्षी और स्वतन्त्र है । इसलिये यह शरीर आदि के गुण-दोष अथवा कर्मफल को ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भाव से स्थित रहता है ॥ ११ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया । उसके सगे सम्बन्धी उसकी बात सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए । उनका स्नेह-बन्धन कट गया और उसके मरने का शोक भी जाता रहा ॥ १२ ॥ इसके बाद जातिवालों ने बालक की मृत देह को ले जाकर तत्कालोचित संस्कार और और्ध्वदैहिक क्रियाएँ पूर्ण की और उस दुस्त्यज स्नेह को छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और दुःख की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था, वे बालहत्या के कारण श्रीहीन हो गयी थी और लज्जा के मारे आँख तक नहीं उठा सकती थी । उन्होंने अङ्गिरा ऋषि के उपदेश को याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुनाजी के तट पर ब्राह्मणों के आदेशानुसार बालहत्या का प्रायश्चित किया ॥ १४ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार अङ्गिरा और नारदजी के उपदेश से विवेकबुद्धि जाग्रत हो जाने के कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थी के अंधेरे कुएँ से उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, जैसे कोई हाथी तालाब के कीचड़ से निकल आये ॥ १५ ॥ उन्होंने यमुनाजी में विधिपूर्वक स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ की । तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिरा के चरणों की वन्दना की ॥ १६ ॥ भगवान् नारद ने देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और शरणागत हैं । अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्या का उपदेश किया ॥ १७ ॥ (देवर्षि नारद ने यों उपदेश किया —) ‘ॐ-कारस्वरूप भगवन् ! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और सङ्कर्षण के रूप में क्रमशः चित्त, बुद्धि, मन और अहङ्कार के अधिष्ठाता हैं । मैं आपके इस चतुर्व्यहरूप का बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ ॥ १८ ॥ आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं । आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है । आप अपने स्वरूपभूत आनन्द में हीं मग्न और परम शान्त हैं । द्वैतदृष्टि आपको छू तक नहीं सकती । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ अपने स्वरूपभूत आनन्द की अनुभूति से ही आपने मायाजनित राग-द्वेष आदि दोषों का तिरस्कार कर रखा हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप सबकी समस्त इन्द्रियों के प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ मनसहित वाणी आप तक न पहुँचकर बीच से ही लौट आती हैं । उसके उपरत हो जाने पर जो अद्वितीय, नाम-रूपरहित, चेतनमात्र और कार्य-कारण से परे की वस्तु रह जाती हैं — वह हमारी रक्षा करे ॥ २१ ॥ यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित हैं और जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टी की वस्तुओं में व्याप्त मृत्तिका के समान सबमें ओत-प्रोत हैं उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥ यद्यपि आप आकाश के समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त है, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति से नहीं जान सकती और प्राण तथा कर्मेन्द्रियां अपनी क्रियारूप शक्ति से स्पर्श भी नहीं कर सकती । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥ शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छा की अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त न होने के कारण अपना-अपना काम करने में असमर्थ हो जाते हैं — ठीक वैसे ही जैसे लोहा अग्नि से तप्त होने पर जला सकता है, अन्यथा नहीं । जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओं में आप उसे स्वीकार कर लेते हैं । वास्तव में आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है ॥ २४ ॥ ॐ-कारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुष को नमस्कार है । श्रेष्ठ भक्तों का समुदाय अपने करकमलों की कलियों से आपके युगल चरणकमलों की सेवामें संलग्न रहता है । प्रभो ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं । मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ! ॥ २५ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश करके महर्षि अड्गिरा के साथ ब्रह्मलोक को चले गये ॥ २६ ॥ राजा चित्रकेतु ने देवर्षि नारद के द्वारा उपदिष्ट विद्या का उनकी आज्ञानुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया ॥ २७ ॥ तदनन्तर उस विद्या के अनुष्ठान से सात रात के पश्चात् राजा चित्रकेतु को विद्याधरों का अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ ॥ २८ ॥ इसके बाद कुछ ही दिनों में इस विद्या के प्रभाव से उनका मन और भी शुद्ध हो गया । अब वे देवाधिदेव भगवान् शेषजी के चरणों के समीप पहुँच गये ॥ २९ ॥ उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी सिद्धेश्वरों के मण्डल में विराजमान हैं । उनका शरीर कमलनाल के समान गौरवर्ण है । उसपर नीले रंग का वस्त्र फहरा रहा है । सिर पर किरीट, बाँहों में बाजूबंद, कमर में करधनी और कलाई में कंगन आदि आभूषण चमक रहे हैं । नेत्र रतनारे हैं और मुख पर प्रसन्नता छा रही हैं ॥ ३० ॥ भगवान् शेष का दर्शन करते ही राजर्षि चित्रकेतु के सारे पाप नष्ट हो गये । उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो गया । इसमें भक्तिभाव की बाढ़ आ गयी । नेत्रों में प्रेम के आंसू छलक आये । शरीर का एक-एक रोम खिल उठा । उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेष को नमस्कार किया ॥ ३१ ॥ उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे । इससे भगवान् शेष के चरण रखने की चौकी भीग गयी । प्रेमोद्रेक के कारण उनके मुँह से एक अक्षर भी न निकल सका । वे बहुत देर तक शेषभगवान् की कुछ भी स्तुति न कर सके ॥ ३२ ॥ थोड़ी देर बाद उन्हें बोलने की कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई । उन्होंने विवेकबुद्धि से मन को समाहित किया और सम्पूर्ण इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को रोका । फिर उन जगद्गुरु की, जिनके स्वरूप का पाञ्चरात्र आदि भक्ति-शास्त्रों में वर्णन किया गया है, इस प्रकार स्तुति की ॥ ३३ ॥ चित्रकेतु ने कहा — अजित ! जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओं ने आपको जीत लिया है । आपने भी अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि गुणों से उनको अपने वश में कर लिया है । अहो, आप धन्य है ! क्योंकि जो निष्कामभाव से आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं ॥ ३४ ॥ भगवन् ! जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास हैं । विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदि आपके अंश के भी अंश हैं । फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपने को जगकर्ता मानकर झूठ-मूठ एक- दूसरे से स्पर्धा करते हैं ॥ ३५ ॥ नन्हे-से-नन्हे परमाणु से लेकर बड़े-से-बड़े महत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि, अन्त और मध्य में आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्य से रहित हैं । क्योंकि किसी भी पदार्थ के आदि और अन्त में जो वस्तु रहती है, वही मध्य में भी रहती हैं ॥ ३६ ॥ यह ब्रह्माण्डकोष, जो पृथ्वी आदि एक-से-एक दस गुने सात आवरणों से घिरा हुआ हैं, अपने ही समान दूसरे करोड़ों ब्रह्माण्डों के सहित आपमें एक परमाणु के समान घूमता रहता है और फिर भी उसे आपकी सीमा का पता नहीं है । इसलिये आप अनन्त हैं ॥ ३७ ॥ जो नरपशु केवल विषयभोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं । प्रभो ! जैसे राजकुल का नाश होने के पश्चात् उसके अनुयायियों की जीविका भी जाती रहती हैं, वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवॉ का नाश होने पर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो जाते हैं ॥ ३८ ॥ परमात्मन् ! आप ज्ञानस्वरूप और निर्गुण हैं । इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मों के समान जन्म-मृत्युरूप फल देनेवाली नहीं होती, जैसे भुने हुए बीजों से अङ्कुर नहीं उगते । क्योंकि जीव को जो सुख-दुःख आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणों से ही होते हैं, निर्गुण से नहीं ॥ ३९ ॥ हे अजित ! जिस समय अपने विशुद्ध भागवतधर्म का उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया । क्योंकि अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखनेवाले, किसी भी वस्तु अर्हताममता न करनेवाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परम साम्य और मोक्ष प्राप्त करने के लिये उसी भागवतधर्म का आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ वह भागवतधर्म इतना शुद्ध है कि उसमें सकाम धर्मों के समान मनुष्यों की वह विषमबुद्धि नहीं होती कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह तू है और यह तेरा है ।’ इसके विपरीत जिस धर्म के मूल में ही विषमता का बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्म बहुल होता है ॥ ४१ ॥ सकाम धर्म अपना और दुसरे का भी अहित करनेवाला है । उससे अपना या पराया — किसी का कोई भी प्रयोजन और हित सिद्ध नहीं होता । प्रत्युत सकाम धर्म से जब अनुष्ठान करनेवाले का चित्त दुखता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरे का चित्त दुखता है, तब वह धर्म नहीं रहता-अधर्म हो जाता है ॥ ४२ ॥ भगवन् ! आपने जिस दृष्टि से भागवतधर्म का निरूपण किया है, वह कभी परमार्थ से विचलित नहीं होती । इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियों में समदृष्टि रखते हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं ॥ ४३ ॥ भगवन् ! आपके दर्शनमात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है ॥ ४४ ॥ भगवन् ! इस समय आपके दर्शनमात्र से ही मेरे अन्तःकरण का सारा मल धुल गया हैं, सो ठीक ही हैं । क्योंकि आपके अनन्यप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजी ने जो कुछ कहा हैं, वह मिथ्या कैसे हो सकता हैं ॥ ४५ ॥ हे अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा हैं । अतएव संसार में प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते है । इसलिये जैसे जुगनू सूर्य को प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही परमगुरु आपसे मैं क्या निवेदन करूं ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आपकी ही अध्यक्षता में सारे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं । कुयोगीजन भेददृष्टि के कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते । आपका स्वरूप वास्तव में अत्यन्त शुद्ध है । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥ आपकी चेष्टा से शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करने में समर्थ होते हैं । आपकी दृष्टि से जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती है । यह भूमण्डल आपके सिर पर सरसों के दाने के समान जान पड़ता है । मैं आप सहस्रशीर्षा भगवान् को बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब विद्याधरों के अधिपति चित्रकेतु ने अनन्त भगवान् की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा ॥ ४९ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — चित्रकेतो ! देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिरा ने तुम्हें मेरे सम्बन्ध में जिस विद्या का उपदेश दिया हैं, उससे और मेरे दर्शन से तुम भलीभाँति सिद्ध हो चुके हो ॥ ५० ॥ मैं ही समस्त प्राणियों के रूप में हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ । शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं ॥ ५१ ॥ आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत् में व्याप्त है और कार्य-कारणात्मक जगत् आत्मा में स्थित हैं तथा इन दोनों में मैं अधिष्ठानरूप से व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों कल्पित हैं ॥ ५२ ॥ जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष स्वप्नान्तर होने पर सम्पूर्ण जगत् को अपने में ही देखता हैं और स्वप्नान्तर टूट जाने पर स्वप्न में ही जागता है तथा अपने को संसार के एक कोने में स्थित देखता है, परन्तु वास्तव में वह भी स्वप्न ही हैं, वैसे ही जीव की जाग्रत् आदि अवस्थाएँ परमेश्वर की ही माया हैं — यों जानकर सबके साक्षी मायातीत परमात्मा का ही स्मरण करना चाहिये ॥ ५३-५४ ॥ सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायता से अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुख को अनुभव करता है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ, उसे तुम अपनी आत्मा समझो ॥ ५५ ॥ पुरुष निद्रा और जागृति — इन दोनों अवस्थाओं का अनुभव करनेवाला है । वह उन अवस्थाओं में अनुगत होने पर भी वास्तव में उनसे पृथक् है । वह सब अवस्थाओं में रहनेवाला अखण्ड एकरस ज्ञान ही ब्रह्म है, वहीं परब्रह्म है ॥ ५६ ॥ जब जीव मेरे स्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपने को अलग मान बैठता है; इसीसे उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है ॥ ५७ ॥ यह मनुष्ययोनि ज्ञान और विज्ञान का मूल स्रोत हैं । जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शान्ति नहीं मिल सकती ॥ ५८ ॥ राजन् ! सांसारिक सुख के लिये जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उनमें श्रम है, क्लेश है और जिस परम सुख के उद्देश्य से वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परम दुःख देती हैं किन्तु कर्मों से निवृत्त हो जाने में किसी प्रकार का भय नहीं है — यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि किसी प्रकार के कर्म अथवा उनके फलों का सङ्कल्प न करे ॥ ५९ ॥ जगत् के सभी स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखों से पिण्ड छूटे; परन्तु उन कर्मों से न तो उनका दुःख दूर होता हैं और न उन्हें सुख की ही प्राप्ति होती हैं ॥ ६० ॥ जो मनुष्य अपने को बहुत बड़ा बुद्धिमान् मानकर कर्म के पचड़ों में पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है यह बात समझ लेनी चाहिये । साथ ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति — इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियों से विलक्षण हैं ॥ ६१ ॥ यह जानकर इस लोक में देखे और परलोक के सुने हुए विषय-भोगों से विवेकबुद्धि के द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और ज्ञान तथा विज्ञान में ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाय ॥ ६२ ॥ जो लोग योगमार्ग का तत्व समझने में निपुण हैं, उनको भली-भांति समझ लेना चाहिये कि जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर ले ॥ ६३ ॥ राजन् ! यदि तुम मेरे इस उपदेश को सावधान होकर श्रद्धाभाव से धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे ॥ ६४ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतु को इस प्रकार समझा-बुझाकर उनके सामने ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ ६५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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