श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अठारहवाँ अध्याय
अदिति और दिति की सन्तानों की तथा मरुद्गण की उत्पत्ति का वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! सविता की पत्नी पृश्नि के गर्भ से आठ सन्तानें हुई — सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पञ्चमहायज्ञ ॥ १ ॥ भग की पत्नी सिद्धि ने महिमा, विभु और प्रभु — ये तीन पुत्र और आशिष् नाम की एक कन्या उत्पन्न की । यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी ॥ २ ॥ धाता की चार पत्नियाँ थी — कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति । उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास — ये चार पुत्र हुए ॥ ३ ॥ धाता के छोटे भाई का नाम था — विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी । उससे पुरीष्य नाम के पाँच अग्नियों की उत्पत्ति हुई । वरुणजी की पत्नी का नाम चर्षणी था । उससे भृगुजी ने पुनः जन्म ग्रहण किया । इसके पहले वे ब्रह्माजी के पुत्र थे ॥ ४ ॥

महायोगी वाल्मीकिजी भी वरुण के पुत्र थे । वल्मीक से पैदा होने के कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था । उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया था । उसे उन लोगों ने घड़े में रख दिया । उसीसे मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठजी का जन्म हुआ । मित्र की पत्नी थी रेवती । उसके तीन पुत्र हुए—उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल ॥ ५-६ ॥ प्रिय परीक्षित् ! देवराज इन्द्र की पत्नी थी पुलोमनन्दिनी शची । उनसे, हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये — जयन्त, ऋषभ और मीढ्वान् ॥ ७ ॥ स्वयं भगवान् विष्णु ही(बलिपर अनुग्रह करने और इन्द्र का राज्य लौटाने के लिये) माया से वामन (उपेन्द्र) के रूप में अवतीर्ण हुए थे । उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे । उनकी पत्नी का नाम था कीर्ति । उससे बृहच्छ्लोक नाम का पुत्र हुआ । उसके सौभग आदि कई सन्तानें हुई ॥ ८ ॥ कश्यपनन्दन भगवान् वामन ने माता अदिति के गर्भ से क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये—इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) करूँगा ॥ ९ ॥

प्रिय परीक्षित् ! अब मैं कश्यपजी की दूसरी पत्नी दिति से उत्पन्न होनेवाली उस सन्तान-परम्परा का वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लादजी और बलि का जन्म हुआ ॥ १० ॥ दिति के दैत्य और दानवों के वन्दनीय दो ही पुत्र हुए — हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष । इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हे (तीसरे स्कन्धमें) सुना चुका हूँ ॥ ११ ॥ हिरण्यकशिपु की पत्नी दानवी कयाधु थी । उसके पिता जम्भ ने उसका विवाह हिरण्यकशिपु से कर दिया था । कयाधु के चार पुत्र हुए — संह्राद, अनुह्राद, ह्राद और प्रह्राद । इनकी सिंहिका नाम की एक बहिन भी थी । उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानव से हुआ । उससे राहु नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई ॥ १२-१३ ॥ यह वही राहु हैं, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनीरूपधारी भगवान् ने चक्र से काट लिया था । संह्राद की पत्नी थी कृति । उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १४ ॥

ह्राद की पत्नी थी धमनि । उसके दो पुत्र हुए — वातापि और इल्वल । इस इल्वल ने ही महर्षि अगस्त्य के आतिथ्य के समय वातापि को पकाकर उन्हें खिला दिया था ॥ १५ ॥ अनुह्राद की पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए — बाष्कल और महिषासुर । प्रह्राद का पुत्र था विरोचन । उसकी पत्नी देवी के गर्भ से दैत्यराज बलि का जन्म हुआ ॥ १६ ॥ बलि की पत्नी का नाम अशना था । उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए । दैत्यराज बलि की महिमा गान करने योग्य है । उसे में आगे (आठवें स्कन्ध में) सुनाऊँगा ॥ १७ ॥ बलि का पुत्र बाणासुर भगवान् शंकर की आराधना करके उनके गणों का मुखिया बन गया । आज भी भगवान् शंकर उसके नगर की रक्षा करने के लिये उसके पास ही रहते हैं ॥ १८ ॥ दिति के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे । उन्हें मरुद्गण कहते हैं । वे सब निःसन्तान रहे । देवराज इन्द्र ने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया ॥ १९ ॥

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! मरुद्गण ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोचित भाव को छोड़ सके और देवराज इन्द्र के द्वारा देवता बना लिये गये ? ॥ २० ॥ ब्रह्मन् ! मेरे साथ यहाँ की सभी उपमण्डली यह बात जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है । अतः आप कृपा करके विस्तार से वह रहस्य बतलाइये ॥ २१ ॥

सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! राजा परीक्षित् का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था । उन्होंने बड़े आदर से पूछा भी था । इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराज ने बड़े ही प्रसन्न चित्त से उनका अभिनन्दन करके यों कहा ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे — परीक्षित् ! भगवान् विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला । अतः दिति शोक की आग से उद्दीप्त क्रोध से जलकर इस प्रकार सोचने लगी ॥ २३ ॥ “सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है । राम ! राम ! उसने अपने भाइयों को ही मरवा डाला । वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापी को मरवाकर आराम से सोऊँगी ॥ २४ ॥ लोग राजाओं के, देवताओं के शरीर को ‘प्रभु’ कहकर पुकारते हैं, परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्टा या राख का ढेर हो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियों को सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थ का पता नहीं है, क्योंकि इससे तो नरक में जाना पड़ेगा ॥ २५ ॥ मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीर को नित्य मानकर मतवाला हो रहा है । उसे अपने विनाश का पता ही नहीं है । अब में वह उपाय करूंगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र का घमंड चूर-चूर कर दे ॥ २६ ॥

दिति अपने मन में ऐसा विचार करके सेवा शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदि के द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यपजी को प्रसन्न रखने लगी ॥ २७ । वह अपने पतिदेव के हृदय का एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुसकानभरी तिरछी चितवन से उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी ॥ २८ ॥ कश्यपजी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होने पर भी चतुर दिति की सेवा से मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा ।’ स्त्रियों के सम्बन्ध में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं ॥ २९ ॥ सृष्टि के प्रभात में ब्रह्माजी ने देखा कि सभी जीव असङ्ग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीर से स्त्रियों की रचना की और स्त्रियों ने पुरुषों की मति अपनी ओर आकर्षित कर ली ॥ ३० ॥ हाँ, तो भैया ! में कह रहा था कि दिति ने भगवान् कश्यप की बड़ी सेवा की । इससे वे उस पर बहुत ही प्रसन्न हुए । उन्होंने दिति का अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा ॥ ३१ ॥

कश्यपजी ने कहा — अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो । पति के प्रसन्न हो जाने पर पत्नी के लिये लोक या परलोक में कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ हैं ॥ ३२ ॥ शास्त्रों में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियों का परमाराध्य इष्टदेव है । प्रिये ! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं ॥ ३३ ॥ विभिन्न देवताओं के रूप में नाम और रूप के भेद से उन्हीं की कल्पना हुई हैं । सभी पुरुष-चाहे किसी भी देवता को उपासना करे — उन्हीं की उपासना करते हैं । ठीक वैसे ही स्त्रियों के लिये भगवान् ने पति का रूप धारण किया है । वे उनकी उसी रूप में पूजा करती हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये प्रिये ! अपना कल्याण चाहनेवाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमभाव से अपने पतिदेव की ही पूजा करती हैं, क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं ॥ ३५ ॥ कल्याणी ! तुमने बड़े प्रेमभाव से, भक्ति से मेरी वैसी ही पूजा की है । अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूंगा । असतियों के जीवन में ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३६ ॥

दिति ने कहा — ब्रह्मन् ! इन्द्र ने विष्णु के हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है । इसलिये यदि आप मुझे मुंह-माँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्र को मार डाले ॥ ३७ ॥

परीक्षित् ! दिति की बात सुनकर कश्यपजी खिन्न होकर पछताने लगे । वे मन-ही-मन कहने लगे — ‘हाय ! हाय ! आज मेरे जीवन में बहुत बड़े अधर्म का अवसर आ पहुँचा ॥ ३८ ॥ देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियों के विषयों में सुख मानने लगा हूँ । स्त्रीरूपिणी माया ने मेरे चित्त को अपने वश में कर लिया है । हाय ! हाय ! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्था में हूँ । अवश्य ही अब मुझे नरक में गिरना पड़ेगा ॥ ३९ ॥ इस स्त्री का कई दोष नहीं है, क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभाव का ही अनुसरण किया है । दोष मेरा है — जो मैं अपनी इन्द्रियों को अपने वश में न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ को न समझ सका । मुझ मूढ को बार-बार धिक्कार हैं ॥ ४० ॥ सच है, स्त्रियों के चरित्र को कौन जानता हैं । इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरदऋतु का खिला हुआ कमल । बातें सुनने में ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो । परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरे की पैनी धार हो ॥ ४१ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओं की कठपुतली होती हैं । सच पूछो तो वे किसी से प्यार नहीं करती । स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाई तक को मार डालती हैं या मरवा डालती हैं ॥ ४२ ॥ अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूंगा । मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये । परन्तु इन्द्र भी वध करनेयोग्य नहीं है । अच्छा, अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ ॥ ४३ ॥

प्रिय परीक्षित् ! सर्वसमर्थ कश्यपजीने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनाने का उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दिति से कहा ॥ ४४ ॥

कश्यपजी बोले — कल्याणी ! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रत का एकवर्ष तक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्र को मारनेवाला पुत्र प्राप्त होगा । परन्तु यदि किसी प्रकार नियमों में त्रुटि हो गयी तो वह देवताओं को मित्र बन जायगा ॥ ४५ ॥

दिति ने कहा — ब्रह्मन् ! में उस व्रत का पालन करूंगी । आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौनसे काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भङ्ग नहीं होता ॥ ४६ ॥

कश्यपजी ने उत्तर दिया — प्रिये ! इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वाणी या क्रिया के द्वारा सताये नहीं, किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे ॥ ४७ ॥ जल में घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनों से बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने ॥ ४८ ॥ जुठा न खाय, भद्रकाली का प्रसाद या मांसयुक्त अन्न का भोजन न करे । शूद्र का लाया हुआ और रजस्वला का देखा हुआ अन्न भी न खाय और अंजलि से जलपान न करे ॥ ४९ ॥ जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्या के समय, बाल खोले हुए, बिना शृङ्गार के, वाणी का संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घर से बाहर न निकले ॥ ५० ॥

बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्था में गीले पाँवों से, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरे के साथ, नग्नावस्था में तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये ॥ ५१ ॥ इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, धुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे । प्रातःकाल कलेवा करने के पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान् नारायण की पूजा करे ॥ ५२ ॥ इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादि से सुहागिनी स्त्रियों की पूजा करे तथा पति की पूजा करके उसकी सेवामें संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में स्थित है ॥ ५३ ॥ प्रिये ! इस व्रत का नाम “पुंसवन’ है । यदि एक वर्ष तक तुम इसे बिना किसी त्रुटि के पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोख से इन्द्रघात पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ५४ ॥

परीक्षित् ! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चयवाली थी । उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली । अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यप का वीर्य और जीवन में उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमों का पालन करने लगी ॥ ५५ ॥ प्रिय परीक्षित् ! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दिति का अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानी से अपना वेष बदलकर दिति के आश्रम पर आये और उसकी सेवा करने लगे ॥ ५६ ॥ वे दिति के लिये प्रतिदिन समय-समय पर वन से फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते ॥ ५७ ॥ राजन् ! जिस प्रकार बहेलिया हरिन को मारने के लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत-पालन की त्रुटि पकड़ने के लिये उसकी सेवा करने लगे ॥ ५८ ॥ सर्वदा पैनी दृष्टि रखने पर भी उन्हें उसके व्रत में किसी प्रकार की त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहल में लगे रहे । अब तो इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई । सोचने लगे — मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो ? ॥ ५९ ॥

दिति व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी । विधाता ने भी उसे मोह में डाल दिया । इसलिये एक दिन सन्ध्या के समय जूठे मुंह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी ॥ ६० ॥ योगेश्वर इन्द्र ने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा । वे योगबल से झटपट सोयी हुई दिति के गर्भ में प्रवेश कर गये ॥ ६१ ॥ उन्होंने वहाँ जाकर सोने के समान चमकते हुए गर्भ के वज्र के द्वारा सात टुकड़े कर दिये । जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ों में से एक-एक के और भी सात टुकड़े कर दिये ॥ ६२ ॥ राजन् ! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा — ‘देवराज ! तुम हमें क्यों मार रहे हो ? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं ॥ ६३ ॥ तब इन्द्र ने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद्गण से कहा — ‘अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो । अब मत डरो !’ ॥ ६४ ॥

परीक्षित् ! जैसे अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरि की कृपा से दिति का वह गर्भ वज्र के द्वारा टुकड़े-टुकड़े होने पर भी मरा नहीं ॥ ६५ ॥ इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है । क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायण की आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दिति ने तो कुछ ही दिन कम एक वर्ष तक भगवान् की आराधना की थी ॥ ६६ ॥ अब वे उनचास मरुद्गण इन्द्र के साथ मिलकर पचास हो गये । इन्द्र ने भी सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया ॥ ६७ ॥ जब दिति की आँख खुली. तब उसने देखा कि उसके अग्नि के समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्र के साथ हैं । इससे सुन्दर स्वभाववाली दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ ६८ ॥ उसने इन्द्र को सम्बोधन करके कहा — बेटा ! मैं इस इच्छा से इस अत्यन्त कठिन व्रत का पालन कर रही थी कि तुम अदिति के पुत्रों को भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो ॥ ६९ ॥ मैंने केवल एक ही पुत्र के लिये सङ्कल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये ? बेटा इन्द्र ! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच सच मुझे बतला दो । झूठ न बोलना’ ॥ ७० ॥

इन्द्र ने कहा — माता ! मुझे इस बात का पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्य से व्रत कर रही हो । इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से में स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया । मेरे मन में तनिक भी धर्म-भावना नहीं थी । इसीसे तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ ७१ ॥ पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे । तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये । इसके बाद मैंने फिर एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये । तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये ॥ ७२ ॥ यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान् की उपासना की यह कोई स्वाभाविक सिद्धि हैं ॥ ७३ ॥ जो लोग निष्काम भाव से भगवान् की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं ॥ ७४ ॥ भगवान् जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं । वे प्रसन्न होकर अपने-आप तक का दान कर देते हैं । भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् हैं, जो उनको आराधना करके विषयभोग का वरदान माँगे । माताजी ! ये विषयभोग तो नरक में भी मिल सकते हैं ॥ ७५ ॥ मेरी स्नेहमयी जननी ! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो । मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टता का काम किया है । तुम मेरे अपराध को क्षमा कर दो । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जाने से एक प्रकार मर जाने पर भी फिर से जीवित हो गया ॥ ७६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! दिति देवराज इन्द्र के शुद्धभाव से सन्तुष्ट हो गयी । उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्ग में चले गये ॥ ७७ ॥ राजन् ! यह मरुद्गण का जन्म बड़ा ही मङ्गलमय है । इसके विषय में तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्ररूप से मैंने तुम्हें दे दिया । अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ७८ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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