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श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आठवाँ अध्याय
नारायणकवच का उपदेश

राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! देवराज इन्द्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में-अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायणकवच को मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! जय देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने उन्हें नारायणकवच का उपदेश किया । तुम एकाग्रचित से उसका श्रवण करो ॥ ३ ॥

विश्वरूप ने कहा — देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायणकवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिये । उसकी विधि यह हैं कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय । इसके बाद कवच-धारण-पर्यन्त और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अंगुष्टादि-का न्यास करे । पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख़ और सिर में न्यास करे । अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के मकार से लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अङ्गों में विपरीत क्रम से न्यास करे ॥ ४-६ ॥ तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—इस द्वादशाक्षर मन्त्र ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठ अँगुलियों और दोनों अंगूठों की दो-दो गाँठों में न्यास करे ॥ ७ ॥ फिर ‘ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्र के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र में, ‘ष्’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ को दोनों नेत्रों में और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे । तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट् कहकर दिग्बन्ध करे । इस प्रकार न्यास करने से इस विधि को जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ॥ ८-१० ॥ इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद्रूप ही चिन्तन करे । तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवच का पाठ करे — ॥ ११ ॥

‘भगवान् श्रीहरि गरुड़जी की पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं । अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही है । आठ हाथों में शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं । वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकार से, सब ओर से मेरी रक्षा करें ॥ १२ ॥ मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जल-जन्तुओं से और वरुण के पाश से मेरी रक्षा करें । माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें ॥ १३ ॥ जिनके घोर अट्टहास से सब दिशाएँ गुंज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ॥ १४ ॥ अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्ग में, परशुरामजी पर्वतों के शिखरों पर और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवास समय मेरी रक्षा करे ॥ १५ ॥ भगवान् नारायण मारण- मोहन आदि भयङ्कर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमाद से मेरी रक्षा करे । ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ॥ १६ ॥

परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों * से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ॥ १७ ॥ भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पों के गण से मेरी रक्षा करें ॥ १८ ॥ भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें । धर्मरक्षा के लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करे ॥ १९ ॥ प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आने पर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ॥ २० ॥ तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें । सायंकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हषीकेश, अर्धरात्रि पूर्व तथा अर्धरात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ॥ २१ ॥ रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ॥ २२ ॥

‘सुदर्शन ! आपका आकार चक्र (रथके पहिये) — की तरह है । आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है । आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं । जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती हैं, वैसे ही आप हमारी शत्रु सेना को शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ॥ २३ ॥ कौमोदकी गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है । आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और में उनका सेवक हूँ । इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दीजिये ॥ २४ ॥ शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फैंकने से भयङ्कर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृक, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से झटपट भगा दीजिये ॥ २५ ॥ भगवान् की प्यारी तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है । आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शुत्रओं को छिन्न-भिन्न कर दीजिये । भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं । आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ॥ २६ ॥

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पाद रेंगनेवाले जन्तु, दाढ़ों वाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मङ्गल के विरोधी हो — वे सभी भगवान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ॥ २७-२८ ॥ वृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें ॥ २९ ॥ श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ॥ ३० ॥

‘जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तव में भगवान् हीं हैं’ — इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ॥ ३१ ॥ जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों-भेदों से रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं । यह बात निश्चितरूप से सत्य है । इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरिं सदा-सर्वत्र सब स्वरूप से हमारी रक्षा करे ॥ ३२-३३ ॥ जो अपने भयङ्कर अट्टाहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर–सब ओर हमारी रक्षा करें ॥ ३४ ॥

देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें ‘यह नारायणकवच सुना दिया । इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो । बस, फिर तुम अनायास ही सर्व दैत्य-यूथपतियों को जीत लोगे ॥ ३५ ॥ इस नारायणकवच को धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता अथवा पैर से छू देता है, वह तत्काल समस्त भयों से मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥ जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ॥ ३७ ॥ देवराज ! प्राचीन काल की बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरुभूमि में त्याग दिया ॥ ३८ ॥ जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके ऊपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठकर निकले ॥ ३९ ॥ वहां आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमानसहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े । इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही । जब उन्हें वालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवता की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को गये ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जो पुरुष इस नारायणकवच को समय पर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥ परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे ॥ ४२ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

* शास्त्रों में बत्तीस प्रकार के सेवापराध माने गए हैं।
1. सवारी पर चढ़कर अथवा पैरों में खड़ाऊ पहनकर श्रीभगवान के मंदिर में जाना।
2. रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवों का न करना या उनके दर्शन न करना।
3. श्रीमूर्ति के दर्शन करके प्रणाम न करना।
4. अशौच-अवस्था में दर्शन करना।
5. एक हाथ से प्रणाम करना।
6. परिक्रमा करते समय भगवान के सामने आकर कुछ देर न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना।
7. श्री भगवान के श्रीविग्रह के सामने पैर पसारकर बैठना।
8. दोनों घुटनों को ऊँचा करके उनको हाथों से लपेटकर बैठ जाना।
9. मूर्ति के समक्ष सो जाना।
10. भोजन करना।
11. झूठ बोलना।
12. श्री भगवान के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना।
13. आपस में बातचीत करना।
14. मूर्ति के सामने चिल्लाना।
15. कलह करना।
16. पीड़ा देना।
17. किसी पर अनुग्रह करना।
18. निष्ठुर वचन बोलना।
19. कम्बल से सारा शरीर ढँक लेना।
20. दूसरों की निन्दा करना।
21. दूसरों की स्तुति करना।
22. अश्लील शब्द बोलना।
23. अधोवायु का त्याग करना।
24. शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात सामान्य उपचारों से भगवान की सेवा पूजा करना।
25. श्री भगवान को निवेदित किए बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना।
26. जिस ऋतु में जो फल हो, उसे सबसे पहले श्री भगवान को न चढ़ाना।
27. किसी शाक या फलादि के अगले भाग को तोड़कर भगवान के व्यंजनादि के लिए देना।
28. श्री भगवान के श्रीविग्रह को पीठ देकर बैठना।
29. श्री भगवान के श्रीविग्रह के सामने दूसरे किसी को भी प्रणाम करना।
30. गुरुदेव की अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना।
31. अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना।
32. किसी भी देवता की निंदा करना।

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