श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय ९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नवाँ अध्याय
विश्वरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार और भगवान् की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! हमने सुना हैं कि विश्वरूप के तीन सिर थे । वे एक मुँह से सोमरस तथा दुसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे ॥ १ ॥ उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञ के समय प्रत्यक्षरूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे ॥ २ ॥ साथ ही वे छिप-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे । उनकी माता असुर-कुल की थी, इसीलिये वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों को भाग पहुँचाया करते थे ॥ ३ ॥ देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं । इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिये ॥ ४ ॥

विश्वरूप का सोमरस पीनेवाला सिर पपीहा, सुरापान करनेवाला गौरिया और अन्न खानेवाला तीतर हो गया ॥ ५ ॥ इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई हत्या को दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया । तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने-आप भर जायगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया । वही ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं-कहीं ऊसर के रूप में दिखायी पड़ती हैं ॥ ७ ॥ दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया । उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायगा । उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है ॥ ८ ॥ स्त्रियों ने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सके. ब्रह्महत्या का तीसरा चतुथौश स्वीकार किया । उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप से दिखायी पड़ती हैं ॥ ९ ॥ जल ने यह वर पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया । फेन, बुद्बुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है । अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं ॥ १० ॥

विश्वरूप की मृत्यु के बाद. उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो ! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र-से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो’ — इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिये हवन करने लगे ॥ ११ ॥ यज्ञ समाप्त होने पर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि) से एक बड़ा भयावना देत्य प्रकट हुआ । वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकों का नाश करने के लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर चढ़ जाया करता था । वह जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील-डौल का था । उसके शरीर में से सन्ध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी ॥ १३ ॥ उसके सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछ तपे हुए ताँबे के समान लाल रंग के तथा नेत्र दोपहर के सूर्य के समान प्रचण्ड थे ॥ १४ ॥ चमकते हुए तीन नोकोंवाले त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूल पर उसने अन्तरिक्ष को उठा रखा है ॥ १५ ॥ वह बार-बार जंभाई लेता था । इससे जब उसका कन्दरा के समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायगा, जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायगा और अपनी विशाल एवं विकराल दादोंवाले मुंह से तीनों लोकों को निगल जायगा । उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे ॥ १६-१७ ॥

परीक्षित् ! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था । इससे उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा ॥ १८ ॥ बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियों के सहित एक साथ ही उसपर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे । परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया ॥ १९ ॥ अब तो देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही । उनका प्रभाव जाता रहा । वे सब-के-सब दोन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्र चित से अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की शरण में गये ॥ २० ॥

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की — वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी — ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक, उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री को भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है । इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं ॥ २१ ॥ प्रभो ! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते । आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं । जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है । वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है ॥ २२ ॥ वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन सङ्कट से बच गये, वे ही मत्स्यभगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे ॥ २३ ॥ प्राचीन काल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरङ्ग की गर्जना के कारण ब्रह्माजी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे । यद्यपि वे असहाय थे, तथापि जिनकी कृपा से वे उस विपति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस सङ्कट से पार करें ॥ २४ ॥ उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हमलोग सृष्टिकार्य का सञ्चालन करते हैं । यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं — अपने इस अभिमान के कारण हमलोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते ॥ २५ ॥ वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं ॥ २६ ॥ वे ही सबके आत्मा और परमाराध्य देव हैं । वे हीं प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं । वे विश्व से पृथक् भी है और विश्वरूप भी हैं । हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं । उदार-शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — महाराज ! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, वे स्वयं शङ्ख चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए ॥ २८ ॥ भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे । उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवामें लगे हुए थे । वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे । केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभमणि नहीं थी ॥ २९ ॥ परीक्षित् ! भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये । उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टाङ्ग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥

देवताओं ने कहा — भगवन् ! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करनेवाले काल भी आप ही हैं । यज्ञ में विघ्न डालनेवाले दैयों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं । इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है । हम आपको बार-बार नमस्कार करते है ॥ ३१ ॥ विधातः ! सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं । आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता ॥ ३२ ॥ भगवन् ! नारायण ! वासुदेव ! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं । आपकी महिमा असीम हैं । आप परम मङ्गलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परम दयालु हैं । आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं । आप सर्वेश्वर है तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परम पति हैं । प्रभो ! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परम समाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है । इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनके आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं । हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥

भगवन् ! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है । क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के, हमलोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके, निर्गुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं हीं इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ ३४ ॥ भगवन् ! हमलोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं ॥ ३५ ॥ हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं हैं । क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं । आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं । आधुनिक लोग अनेक प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्कपूर्ण शास्त्र का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं । आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है । आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे केवल हैं । जब आप उसमें अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती ? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी । इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्त-भोक्तत्व हैं और न तो उदासीनता ही । आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं ॥ ३६ ॥

जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुष को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्तबुद्धिवालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में । आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं ॥ ३७ ॥ विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं । आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं । इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियां अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही सङ्केत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध को अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है ॥ ३८ ॥ मधुसूदन ! आपको अमृतमयी महिमा रस का अनन्त समुद्र हैं । उसके नन्हे-से सीकर का भी, अधिक नहीं — एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है । उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भुला दिया हैं, समस्त प्राणियों के परम प्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्य-निधि परमेश्वर में जो अपने मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्यप्रेमी परम भक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं । मधुसूदन ! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता हैं ॥ ३९ ॥

प्रभो ! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं । आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के सञ्चालक हैं । आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करनेवाली हैं । इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं । तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है — यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं । दण्डधारी प्रभो ! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये ॥ ४७ ॥ भगवन् ! आप हमारे पिता, पितामह सब कुछ हैं । हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं । आपके चरणकमल का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेमबन्धन से बँध गया है । आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है । इसलिये प्रभो ! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दयाभरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुसकानयुक्त चितवन से तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये ॥ ४५ ॥

प्रभो ! जिस प्रकार अग्नि की ही अशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं । आपसे भला, कहना ही क्या है । क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करनेवाली दिव्य माया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवों के अत्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप से विराजमान रहते हैं । केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही विराजमान हैं । जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं । आप सभी वृत्तियों के साक्षी हैं । आप आकाश के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं । आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ ४२ ॥ अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हमलोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये । आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं । हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटानेवाली है ॥ ४३ ॥

सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण ! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है । अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है आप उसे मार डालिये ॥ ४४ ॥ प्रभो ! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्ज्वल कीर्तिसम्पन्न हैं । संतलोग आपका ही संग्रह करते हैं । संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं । प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब देवताओं ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे ॥ ४६ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — श्रेष्ठ देवताओ ! तुमलोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की हैं, इससे मैं तुमलोगों पर प्रसन्न हूँ । इस स्तुति के द्वारा जीव को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती हैं ॥ ४७ ॥ देवशिरोमणियो ! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती । तथापि मेरे अनन्यप्रेमी तत्त्ववेता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते ॥ ४८ ॥ जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जानता । यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है ॥ ४९ ॥ जो पुरुष मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सवैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता ॥ ५० ॥ देवराज इन्द्र ! तुमलोगों का कल्याण हो । अब देर मत करो । ऋषिशिरोमणि दधीचि के पास जाओ और उनसे उनका शरीर — जो उपासना, व्रत तथा तपस्या के कारण अत्यन्त दृढ़ हो गया है माँग लो ॥ ५१ ॥ दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रह्म का ज्ञान है । अश्विनीकुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश करने के कारण उनका एक नाम ‘अश्वशिर’ * भी हैं । उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्या प्रभाव से ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये ॥ ५२ ॥ अथर्ववेदी दधीचि ऋषि ने ही पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायणकवच का त्वष्टा को उपदेश किया था । त्वष्टा ने वही विश्वरूप को दिया और विश्वरूप से तुम्हें मिला ॥ ५३ ॥

दधीचि ऋषि धर्म के परम मर्मज्ञ हैं । वे तुमलोगों को, अश्विनीकुमार के माँगने पर, अपने शरीर के अङ्ग अवश्य दे देंगे । इसके बाद विश्वकर्मा के द्वारा उन अङ्गों से एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना । देवराज ! मेरी शक्ति से युक्त होकर तुम उसी शस्त्र के द्वारा वृत्रासुर का सिर काट लोगे ॥ ५४ ॥ देवताओं ! वृत्रासुर के मर जाने पर तुमलोगों को फिर से तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पतियाँ प्राप्त हो जायेंगी । तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागत को कोई सता नहीं सकता ॥ ५५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

* यह कथा इस प्रकार है — दधीचि ऋषि को प्रवर्य ( यज्ञकर्मविशेष) और ब्रह्मविद्या का उत्तम ज्ञान है — यह जानकर एक बार उनके पास अश्विनीकुमार आये और उनसे ब्रह्मविद्या का उपदेश करने के लिये प्रार्थना की । दधीचि मुनि ने कहा — ‘इस समय मैं एक कार्य में लगा हुआ हूँ, इसलिये फिर किसी समय आना ।’ इसपर अश्विनी कुमार चले गये । उनके जाते ही इन्द्र ने आकर कहा — ‘मुने ! अश्विनीकुमार वैद्य हैं, उन्हें तुम ब्रह्मविद्या का उपदेश मत करना । यदि तुम मेरी बात न मानकर उन्हें उपदेश करोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट डालूंगा ।’ जब ऐसा कहकर इन्द्र चले गये, तब अश्विनीकुमारों ने आकर फिर वही प्रार्थना की । मुनि ने इन्द्र का सब वृत्तान्त सुनाया । इसपर अश्विनीकुमारों ने कहा — ‘हम पहले ही आपका यह सिर काटकर घोड़े का सिर जोड़ देंगे, उससे आप हमें उपदेश करें और जब इन्द्र आपका घोडे का सिर काट देंगे तब हम फिर असली सिर जोड़ देंगे ।’ मुनि ने मिथ्या भाषण के भय से उनका कथन स्वीकार कर लिया । इस प्रकार अश्वमुख से उपदेश की जाने के कारण ब्रह्मविद्या का नाम ‘अश्वशिरा’ पड़ा ।* यह कथा इस प्रकार है — दधीचि ऋषि को प्रवर्य ( यज्ञकर्मविशेष) और ब्रह्मविद्या का उत्तम ज्ञान है — यह जानकर एक बार उनके पास अश्विनीकुमार आये और उनसे ब्रह्मविद्या का उपदेश करने के लिये प्रार्थना की । दधीचि मुनि ने कहा — ‘इस समय मैं एक कार्य में लगा हुआ हूँ, इसलिये फिर किसी समय आना ।’ इसपर अश्विनी कुमार चले गये । उनके जाते ही इन्द्र ने आकर कहा — ‘मुने ! अश्विनीकुमार वैद्य हैं, उन्हें तुम ब्रह्मविद्या का उपदेश मत करना । यदि तुम मेरी बात न मानकर उन्हें उपदेश करोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट डालूंगा ।’ जब ऐसा कहकर इन्द्र चले गये, तब अश्विनीकुमारों ने आकर फिर वही प्रार्थना की । मुनि ने इन्द्र का सब वृत्तान्त सुनाया । इसपर अश्विनीकुमारों ने कहा — ‘हम पहले ही आपका यह सिर काटकर घोड़े का सिर जोड़ देंगे, उससे आप हमें उपदेश करें और जब इन्द्र आपका घोडे का सिर काट देंगे तब हम फिर असली सिर जोड़ देंगे ।’ मुनि ने मिथ्या भाषण के भय से उनका कथन स्वीकार कर लिया । इस प्रकार अश्वमुख से उपदेश की जाने के कारण ब्रह्मविद्या का नाम ‘अश्वशिरा’ पड़ा ।

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