March 18, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय १ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पहला अध्याय अजामिलोपाख्यान का प्रारम्भ राजा परीक्षित् ने कहा — भगवन् ! आप पहले | (द्वितीय स्कन्ध में) निवृत्तिमार्ग का वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्ग से जीव क्रमशः ब्रह्मलोक में पहुँचता है और फिर ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाता हैं ॥ १ ॥ मुनिवर! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्तिमार्ग का भी (तृतीय स्कन्धमें) भलीभाँति वर्णन किया हैं, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और प्रकृति का सम्बन्ध न छूटने के कारण जीव को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना पड़ता है ॥ २ ॥ आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करने से अनेक नरकों की प्राप्ति होती है और (पाँचवें स्कन्ध में) उनका विस्तार से वर्णन भी किया । (चौथे स्कन्ध में) आपने उस प्रथम मन्वन्तर का वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वायम्भुव मनु थे ॥ ३ ॥ साथ ही (चौथे और पांचवें स्कन्धमें) प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशों तथा चरित्रों का एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपों के वृक्षों का भी निरूपण किया ॥ ४ ॥ भूमण्डल की स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रों की स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात पाताल) और भगवान् ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की-उसका वर्णन भी सुनाया ॥ ५ ॥ महाभाग ! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठान से मनुष्यों को अनेकानेक भयङ्कर यातनाओं से पूर्ण नरकों में न जाना पड़े । आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये ॥ ६ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — मनुष्य मन, वाणी और शरीर से पाप करता है । यदि वह उन पापों का इसी जन्म में प्रायश्चित्त न कर ले, तो मरने के बाद उसे अवश्य ही उन भयङ्कर यातनापूर्ण नरक में जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैंने तुम्हें (पाँचवें स्कन्ध के अन्त) सुनाया है ॥ ७ ॥ इसलिये बड़ी सावधानी और सजगता के साथ रोग एवं मृत्यु के पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापों की गुरुता और लघुता पर विचार करके उनका प्रायश्चित्त कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोग का कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है ॥ ८ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टों से यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पापवासनाओं से विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है । ऐसी अवस्था में उसके पापों का प्रायश्चित्त कैसे सम्भव है ? ॥ ९ ॥ मनुष्य कभी तो प्रायश्चित्त आदि के द्वारा पापों से छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है । ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करने के बाद धूल डाल लेने के कारण हाथी का स्रान व्यर्थ हो जाता है, जैसे ही मनुष्य का प्रायश्चित्त करना भी व्यर्थ ही है ॥ १० ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — वस्तुतः कर्म के द्वारा ही कर्म का निर्बीज नाश नहीं होता, क्योंकि कर्म का अधिकारी अज्ञानी है । अज्ञान रहते पापवासनाएँ सर्वथा नहीं मिट सकतीं । इसलिये सच्चा प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ही हैं ॥ ११ ॥ जो पुरुष केवल सुपथ्य का ही सेवन करता हैं, उसे रोग अपने वश में नहीं कर सकते । वैसे ही परीक्षित् ! जो पुरुष नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे पापवासनाओं से मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है ॥ १२ ॥ जैसे बाँसों के झुरमुट में लगी आग बाँसों को जला डालती है वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतर की पवित्रता तथा यम एवं नियम — इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये बड़े-से-बड़े पाप को भी नष्ट कर देते हैं ॥ १३-१४ ॥ भगवान् शरण में रहनेवाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पाप को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरे को ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! पापी पुरुष की जैसी शुद्धि भगवान् ने आत्मसमर्पण करने से और उनके भक्तों का सेवन करने से होती है, वैसी तपस्या आदि के द्वारा नहीं होती ॥ १६ ॥ जगत् में यह भक्ति का पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है, क्योंकि इस मार्ग पर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं ॥ १७ ॥ परीक्षित् ! जैसे शराब से भरे घड़े नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बार-बार किये जाने पर भी भगवद्वमुख मनुष्य को पवित्र करने में असमर्थ हैं ॥ १८ ॥ जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मनमधुकर को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द का एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित्त कर लिये । वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते । फिर नरक की तो बात ही क्या है ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं । उसमें भगवान् विष्णु और यमराज के दूतों का संवाद है । तुम मुझसे उसे सुनो ॥ २० ॥ कान्यकुब्ज़ नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था । उसका नाम था अजामिल । दासी के संसर्ग से दूषित होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था ॥ २१ ॥ वह पतित कभी बटोहियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता..कभी लोगों को जुए के छल से हरा देता, किसी का धन धोखा-धड़ी से ले लेता तो किसी का चुरा लेता । इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर वह अपने कुटुम्ब का पेट भरता था और दूसरे प्राणियों को बहुत ही सताता था ॥ २२ ॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासी के बच्चों का लालन-पालन करता रहा । इस प्रकार उसकी आयु का बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष बीत गया ॥ २३ ॥ बूढ़े अजामिल के दस पुत्र थे । उनमें सबसे छोटे का नाम था ‘नारायण’ । माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे ॥ २४ ॥ वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोह के कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था । वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बालसुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था ॥ २५ ॥ अजामिल बालक के स्नेह-बन्धन में बँध गया था । जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता । इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है ॥ २६ ॥ वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्यु का समय आ पहुँचा । अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा ॥ २७ ॥ इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं । उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं ॥ २८ ॥ उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था । यमदूतों को देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा ‘नारायण !’ ॥ २९ ॥ भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा हैं; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे ॥ ३० || उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे । विष्णुदूतों ने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया ॥ ३१ ॥ उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा — ‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करनेवाले तुमलोग हो कौन ? ॥ ३२ ॥ तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हों ? क्या तुम लोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो ? ॥ ३३ ॥ हम देखते हैं कि तुम सब लोगों के नेत्र कमलदल के समान कोमलता से भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गलों में कमल के हार लहरा रहे हैं ॥ ३४ ॥ सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभी के करकमलों में धनुष, तरकस, तलवार, गदा, शङ्ख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं ॥ ३५ ॥ तुम लोगों की अङ्गकान्ति से दिशाओं का अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है । हम धर्मराज के सेवक हैं । हमें तुमलोग क्यों रोक रहे हो ?”॥ ३६ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उनके प्रति यों कहा — ॥ ३७ ॥ भगवान् के पार्षदों ने कहा — यमदूतो ! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्त्व सुनाओ ॥ ३८ ॥ दण्ड किस प्रकार दिया जाता है ? दण्ड का पात्र कौन है ? मनुष्यों में सभी पापाचारी दण्डनीय हैं अथवा उनमें से कुछ ही ? ॥ ३९ ॥ यमदूतों ने कहा — वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं । वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं । वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान है — ऐसा हमने सुना है ॥ ४० ॥ जगत् रजोमय, सत्त्वमय और तमोमय सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान् में ही स्थित रहते हैं । वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं ॥ ४१ ॥ जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं — सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियों, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म ॥ ४२ ॥ इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता हैं और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है । पाप कर्म करनेवाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं ॥ ४३ ॥ निष्पाप पुरूषो ! जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही हैं । इसीलिये सभी से कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता ॥ ४४ ॥ इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है ॥ ४५ ॥ देवशिरोमणियो ! सत्व, रज और तम — इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में भी तीन प्रकार के प्राणी दीख पड़ते हैं — पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप दोनों से युक्त, अथवा सुखी, दुखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त; वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधता का अनुमान किया जाता हैं ॥ ४६ ॥ वर्तमान समय ही भूत और भविष्य का अनुमान करा देता है । वैसे ही वर्तमान जन्म के पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य जन्मों के पाप-पुण्य का अनुमान करा देते हैं ॥ ४७ ॥ हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्तःकरणों में ही विराजमान हैं । इसलिये वे अपने मन से ही सबके पूर्वरूपों को देख लेते हैं । वे साथ ही उनके भावी स्वरूप का भी विचार कर लेते हैं ॥ ४८ ॥ जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्न के समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीर को ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये हुए अथवा जागनेवाले शरीर को भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्वजन्मों की याद भूल जाता है और वर्तमान शरीर के सिवा पहले और पिछले शरीरों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता ॥ ४९ ॥ सिद्धपुरुषो ! जीव इस शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियों से लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियों से रूप-रस आदि पाँच विषयों का अनुभव करता हैं और सोलहवें मन के साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय — इन तीनों के विषयों को भोगता है ॥ ५० ॥ जीव का यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणोंवाला लिङ्गशरीर अनादि है । यही जीव को बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देनेवाले जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालता है ॥ ५१ ॥ जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर — इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं । जैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने कर्म के जाल में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है ॥ ५२ ॥ कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता । प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं ॥ ५३ ॥ जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है । उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माताके-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिताके-जैसा (पुरुषरूप) ॥ ५४ ॥ प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के विपरीत लिङ्गशरीर मान बैठा है । यह विपर्यय भगवान् के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता हैं ॥ ५५ ॥ देवताओ ! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था । शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था । ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था ॥ ५६ ॥ इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी । अहङ्कार तो इसमें था ही नहीं । यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूंढता था ॥ ५७ ॥ एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा ॥ ५८ ॥ लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज हैं, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है । वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है । नशे के कारण उसकी आँखें नाच रही है, वह अंर्द्धनग्न अवस्था में हो रही है । वह शूद्र उस वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है ॥ ५९-६० ॥ निष्पाप पुरुषो ! शूद्र की भुजाओं में अङ्गरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थी और वह उनसे इस कुलटा को आलिङ्गन कर रहा था । अजामिल उन्हें इस अवस्था में देखकर सहसा मोहित और काम के वश हो गया ॥ ६१ ॥ यद्यपि अजामिल ने अपने धैर्य और ज्ञान के अनुसार अपने काम-वेग से विचलित मन को रोकने की बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देने पर भी वह अपने मन को रोकने में असमर्थ रहा ॥ ६२ ॥ उस वेश्या को निमित बनाकर काम-पिशाच ने अजामिल के मन को ग्रस लिया । इसकी सदाचार और शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी । अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया ॥ ६३ ॥ अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता । यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया । यह ब्राह्मण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो ॥ ६४ ॥ उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटा की तिरछी चितवन ने इसके मन को ऐसा लुभा लिया कि इसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया । इसके पाप की भी भला कोई सीमा है ॥ ६५ ॥ यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता । उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता ॥ ६६ ॥ इस पापी ने शास्त्राज्ञा का उल्लङ्घन करके स्वच्छन्द आचरण किया है । यह सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित है । इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है ॥ ६७ ॥ इसने अबतक अपने पापों का कोई प्रायश्चित्त भी नहीं किया है । इसलिये अब हम इस पापी को दण्डपाणि भगवान् यमराज के पास ले जायेंगे । वहाँ यह अपने पापों का दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा ॥ ६८ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related